ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - ओषधयः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यद॒पामोष॑धीनां परिं॒शमा॑रि॒शाम॑हे। वाता॑पे॒ पीब॒ इद्भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒पाम् । ओष॑धीनाम् । प॒रिं॒शम् । आ॒ऽरि॒शाम॑हे । वाता॑पे । पीवः॑ । इत् । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदपामोषधीनां परिंशमारिशामहे। वातापे पीब इद्भव ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अपाम्। ओषधीनाम्। परिंशम्। आऽरिशामहे। वातापे। पीबः। इत्। भव ॥ १.१८७.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वातापे परमेश्वर वयमपामोषधीनां यत्परिंशमन्नमारिशामहे तेन त्वं पीब इद्भव ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यत्) अन्नम् (अपाम्) जलानाम् (ओषधीनाम्) सोमाद्योषधीनाम् (परिंशम्) परितः सर्वतोंऽशं लेशम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेत्यलोपः। (आरिशामहे) समन्तात् प्राप्नुयाम। अत्र लिश गतावित्यस्य वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने रेफादेशः। (वातापे) वातइव सर्वान् पदार्थान् व्याप्नोति तत्सम्बुद्धौ (पीबः) वृद्धिकरः (इत्) एव (भव) ॥ ८ ॥
भावार्थः
जलान्नघृतसंस्कारेण प्रशस्तान्यन्नानि व्यञ्जनानि निर्माय भोक्तारो युक्ताहारविहारेण पुष्टा भवन्तु ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वातापे) पवन के समान सर्वपदार्थ व्यापक परमेश्वर ! हम लोग (अपाम्) जलों और (ओषधीनाम्) सोमादि ओषधियों के (यत्) जिस (परिंशम्) सब ओर से प्राप्त होनेवाले अन्न में विद्यमान अंश को (आरिशामहे) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं उससे आप (पीबः) उत्तम वृद्धि करनेवाले (इत्) ही (भव) हूजिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
जल, अन्न और घृत के संस्कार से प्रशंसित अन्न और व्यञ्जन इलायची, मिरच वा घृत, दूध पदार्थों को उत्तम बनाकर उन पदार्थों के भोजन करनेवाले जन युक्त आहार और विहार से पुष्ट होवें ॥ ८ ॥
विषय
जल व वनस्पति
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अपाम्) = जलों के व (ओषधीनाम्) = ओषधियों के परिंशम् [परिलेशम् सा०] अंश को-मात्रा में प्रयोग को (अरिशामहे) = आस्वादित करते हैं, रुचिपूर्वक ग्रहण करते हैं तो हे (वातापे) = [वातेन आप्यायते] वायु से आप्यायित होनेवाले शरीर ! (इत्) = निश्चय से (पीव: भव) = आप्यायित होनेवाला हो। २. मुख्यतया शरीर का धारण वायु पर निर्भर करता है, अतः शरीर 'वातापि' कहलाता है। इस शरीर के आप्यायन के लिए जल व वनस्पतियों का प्रयोग ही श्रेयस्कर है। इनका प्रयोग भी (उचित) मात्रा में करना ही ठीक है। 'अरिशामहे' शब्द से यह भी स्पष्ट है कि इनका प्रयोग भी आस्वाद के साथ करना है। रुचि से ग्रहण किया हुआ अन्न उत्तम धातुओं का निर्माण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - जल व ओषधियों के मात्रा में प्रयोग से हम शरीर को आप्यायित करें।
विषय
अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।
भावार्थ
( यत् ) जो हम ( अपाम् ) जलों और (ओषधीनाम्) अन्न और सोम आदि ओषधियों का ( परिंशम् ) शरीर में सर्वत्र व्यापने वाला अंश ( आरिशामहे ) रचा लेते हैं इसलिये हे ( वातापे ) वात अर्थात् प्राण से बलवान्, पुष्ट होने वाले तू ( पीवः इत् ) पुष्ट ही ( भव ) रह । अथवा (ओषधीनाम्) देह की उष्मता को धारण करने वाले (अपाम्) प्राणों के व्यापक अंश को सर्वत्र फैलाते हैं अतः हे प्राण से पुष्ट देह ! तू दृढ़ बना रह ( ३ ) अथवा (अपाम् ओषधीनाम्) हे राजन् ! तू प्रजाओं और संतापक अस्त्रों के धारक सैनिकों के राष्ट्र में व्यापक भाग को हम सर्वत्र स्थापित करें, तो हे राजन् ! हे (वातापे) वायु के समान बलवान् ! तू (पीवः इद् भव) सुदृढ़ बना रह और हमारा पुष्टि कर हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जल, अन्न व घृताच्या संस्काराने प्रशंसित अन्न व निरनिराळी व्यंजने बनवून भोजन करणाऱ्या लोकांनी युक्त आहार-विहाराने पुष्ट व्हावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When to our heart’s content we have eaten of the gift of herbs and waters, then, O universal energy pervasive of food, be with us, kind and gracious, for our growth and advancement (not for corpulence).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The significance of good meals.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God pervading in all objects like the air be giver of strength to us, because we enjoy the plenty of Waters and the herbs.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons who partakes of well-cooked meals with proportionate water, butter and other vegetables would become ´robust by taking meals at regular intervals.
Foot Notes
(वातापे) वात इव सर्वान् पदार्थान् व्याप्नोति, तत्सम्बुद्धौ = God who pervades all objects like the air. Though Shri Sayanacharya has taken वातापे to men body वातेन – प्राणेन आप्नोति स्व निर्वाहमिति, वातेनाप्यायते इति वा, वातापि शरीरम् and Wilson has also translated it as body, but Sayanancharya has also given the interpretation of the word corresponding to Rishi Dayananda Sarasvati's saying हे वातापे वातवत् सर्वव्यापक | (परिशम् ) परितः सर्वतः अंशलेशम् । = Taken from all sides in its particles. (पीव:) वृद्धिकर: = Strengthener.
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