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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 189 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अवो॑चाम नि॒वच॑नान्यस्मि॒न्मान॑स्य सू॒नुः स॑हसा॒ने अ॒ग्नौ। व॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भिः सनेम वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवो॑चाम । नि॒ऽवच॑नानि । अ॒स्मि॒न् । मान॑स्य । सू॒नुः । स॒ह॒सा॒ने । अ॒ग्नौ । व॒यम् । स॒हस्र॑म् । ऋषि॑ऽभिः । स॒ने॒म॒ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवोचाम निवचनान्यस्मिन्मानस्य सूनुः सहसाने अग्नौ। वयं सहस्रमृषिभिः सनेम विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवोचाम। निऽवचनानि। अस्मिन्। मानस्य। सूनुः। सहसाने। अग्नौ। वयम्। सहस्रम्। ऋषिऽभिः। सनेम। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१८९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो मानस्य सूनुस्तमस्मिन् सहसानेऽग्नौ निवचनानि यथा वयमवोचाम ऋषिभिः सहस्रं सनेम इषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम तथा यूयमप्याचरत ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (अवोचाम) उपदिशेम (निवचनानि) परीक्षया निश्चितानि धर्म्यवचांसि (अस्मिन्) (मानस्य) विज्ञानवतो जनस्य (सूनुः) (सहसाने) सहमाने (अग्नौ) पावकइव विदुषी (वयम्) (सहस्रम्) असङ्ख्यम् (ऋषिभिः) वेदार्थविद्भिः सह (सनेम) संभजेम (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) (जीरदानुम्) ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाप्ताः शान्ता उपदेष्टारः श्रोतृभ्यः सत्यान्युपदिश्य सुखिनः कुर्वन्ति तैः सहान्ये विद्वांसो जायन्ते तथोपदिश्य श्रुत्वा विद्यावृद्धिं सर्वे कुर्वन्तु ॥ ८ ॥अस्मिन् सूक्ते परमेश्वरविद्वच्छासकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकोननवत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (मानस्य) विज्ञानवान् जन का (सूनुः) सन्तान है उसके प्रति (अस्मिन्) इस (सहसाने) सहन करते हुए (अग्नौ) अग्नि के समान विद्वान् के निमित्त (निवचनानि) परीक्षा से निश्चित किये वचनों को जैसे (वयम्) हम लोग (अवोचाम) उपदेश करें वा (ऋषिभिः) वेदार्थ के जाननेवालों से (सहस्रम्) असंख्य सुख का (सनेम) सेवन करें वा (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें वैसा तुम भी आचरण करो ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाप्ताः शान्ता उपदेष्टारः श्रोतृभ्यः सत्यान्युपदिश्य सुखिनः कुर्वन्ति तैः सहान्ये विद्वांसो जायन्ते तथोपदिश्य श्रुत्वा विद्यावृद्धिं सर्वे कुर्वन्तु ॥ ८ ॥अस्मिन् सूक्ते परमेश्वरविद्वच्छासकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकोननवत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥ अस्मिन् सूक्ते परमेश्वरविद्वच्छासकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकोननवत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    विषय

    ज्ञानदाता प्रभु

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम (अस्मिन्) = इस सहसाने शत्रुओं का मर्षण करनेवाले (अग्नौ) = अग्रणी प्रभु के विषय में (निवचनानि) = निश्चित स्तुतिवचनों को (अवोचाम) = उच्चारित करते हैं। ये प्रभु (मानस्य) = [मनु अवबोधे] अवबोध व ज्ञान का (सूनुः) = प्रेरक है। इस ज्ञानाग्नि से ही वस्तुतः ये हमारे शत्रुओं को भस्म करते हैं । २. हम (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियों के द्वारा (सहस्रम्) = सहस्रशः ज्ञानधनों को (सनेम) = प्राप्त करें और (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पाप के निवारण व बल को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को विद्याम प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु-स्तवन करते हुए हम प्रभु - प्रेरणा द्वारा ज्ञान प्राप्त करें। ज्ञानियों का सम्पर्क हमारी ज्ञानवृद्धि का कारण हो ।

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    विषय

    तेजस्वी राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जो (मानस्य ) ज्ञानवान् पुरुषों और शत्रुनाशक सैन्यों का (सूनुः) संचालक है ( अस्मिन् ) उस ( अग्नौ ) अग्रणी, ज्ञानवान् नायक के निमित्त हम ( निवचनानि ) निश्चित सत्य वचनों का (अवोचाम) उपदेश करें और उस (सहसाने) शत्रु पराजयकारी पुरुष के अधीन रहकर (वयम्) हम लोग ( ऋषिभिः ) विद्वान् वेदमन्त्रार्थ-द्रष्टा पुरुषों और वेदमन्त्रों से ( सहस्रम् ) सहस्रों ज्ञान और ऐश्वर्य (सनेम) प्राप्त करें और हम ( इष ) अन्न, (वृजनं) निवारक बल और ( जीरदानुम् ) उत्तम जीवन ( विद्याम ) प्राप्त करें। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे आप्त, शांत उपदेशक विद्वान लोक श्रोत्यांना सत्य उपदेश करून सुखी करतात, त्यांच्याबरोबर इतर विद्वानही असतात तसा उपदेश करून दुसऱ्याचे श्रवण करून सर्वांनी विद्यावृद्धी करावी. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In homage and worship to this Agni, mighty lord creator of honour and self-esteem and inspirer of the idea and sense of purpose in life, we speak and sing these words of adoration with reflection and holy thought in composition, and thereby we share with a thousand sages of vision and insight of knowledge food and energy for body, mind and soul, the path of Dharma and the spirit and joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The learned should propagate their teachings.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! we utter good righteous and balanced words to a man who equally is equally the son of a learned person and is himself a fire like learned mighty man, and who subdues his enemies. We distribute that knowledge along with the sages, because they know the true meaning of the Vedas. You should also do the same way, so that we may fulfil the noble desires, strength and long life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Absolutely truthful preachers of peaceful and impressive appearance make the audience happy by giving them noble teachings. Thus along with them, others become learned. In the same manner, the persons should spread the knowledge after listening to the good sermons delivered by the wise.

    Foot Notes

    (मानस्य) विज्ञानवतो जनस्य = Of a thoughtful learned person. (अग्नौ) पावक इव विदुषि = With regard to a learned person who is purifier like the fire.

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