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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - वायु: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वायो॒ तव॑ प्रपृञ्च॒ती धेना॑ जिगाति दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची सोम॑पीतये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वायो॒ इति॑ । तव॑ । प्र॒ऽपृ॒ञ्च॒ती । धेना॑ । जि॒गा॒ति॒ । दा॒शुषे॑ । उ॒रू॒ची । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो इति। तव। प्रऽपृञ्चती। धेना। जिगाति। दाशुषे। उरूची। सोमऽपीतये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ तेषामुक्थानां श्रवणोच्चारणनिमित्तमुपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे वायो परमेश्वर ! भवत्कृपया या तव प्रपृञ्चत्युरूची धेना सा सोमपीतये दाशुषे विदुषे जिगाति। तथा तवास्य वायो प्राणस्य प्रपृञ्चत्युरूची धेना सोमपीतये दाशुषे जीवाय जिगाति॥३॥

    पदार्थः

    (वायो) वेदवाणीप्रकाशकेश्वर ! (तव) जगदीश्वरस्य (प्रपृञ्चती) प्रकृष्टा चासौ पृञ्चती चार्थसम्बन्धेन सकलविद्यासम्पर्ककारयित्री (धेना) वेदचतुष्टयी वाक्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (जिगाति) प्राप्नोति। जिगातीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) तस्मात्प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (दाशुषे) निष्कपटेन विद्यां दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (उरूची) बह्वीनां पदार्थविद्यानां ज्ञापिका। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (सोमपीतये) सूयन्ते ये पदार्थास्तेषां पीतिः पानं यस्य तस्मै विदुषे मनुष्याय। अत्र सह सुपेति समासः। भौतिकपक्षे त्वयं विशेषः—(वायो) पवनस्य योगेनैव (तव) अस्य (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारणसाधिका (धेना) वाणी (दाशुषे) शब्दोच्चारणकर्त्रे (उरूची) बह्वर्थज्ञापिका। अन्यत्पूर्ववत्॥३॥

    भावार्थः

    अत्रापि श्लेषालङ्कारः। द्वितीयमन्त्रे यया वेदवाण्या परमेश्वरभौतिकयोर्गुणः प्रकाशितास्तस्याः फलप्राप्ती अस्मिन्मन्त्रे प्रकाशिते स्तः। अर्थात्प्रथमार्थे वेदविद्या द्वितीये वक्तॄणां जीवानां वाङ्निमित्तं च प्रकाश्यत इति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    पूर्वोक्त स्तोत्रों का जो श्रवण और उच्चारण का निमित्त है, उसका प्रकाश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    (वायो) हे वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर ! (तव) आपकी (प्रपृञ्चती) सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने, और (उरूची) अनेक विद्याओं के प्रयोजनों को प्राप्त करानेहारी (धेना) चार वेदों की वाणी है, सो (सोमपीतये) जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने, तथा (दाशुषे) निष्कपट से प्रीत के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है। दूसरा अर्थ-(वायो तव) इस भौतिक वायु के योग से जो (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारण श्रवण कराने और (उरूची) अनेक पदार्थों की जाननेवाली (धेना) वाणी है, सो (सोमपीतये) संसारी पदार्थों के पान करने योग्य रस को पीने वा (दाशुषे) शब्दोच्चारण श्रवण करनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है॥३॥

    भावार्थ

    यहाँ भी श्लेषालङ्कार है। दूसरे मन्त्र में जिस वेदवाणी से परमेश्वर और भौतिक वायु के गुण प्रकाश किये हैं, उसका फल और प्राप्ति इस मन्त्र में प्रकाशित की है अर्थात् प्रथम अर्थ से वेदविद्या और दूसरे से जीवों की वाणी का फल और उसकी प्राप्ति का निमित्त प्रकाश किया है॥३॥

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    विषय

    वायु की धेना

    पदार्थ

    १. हे (वायो)(गति , ज्ञान) सम्पूर्ण ज्ञानों के भण्डार व सम्पूर्ण ज्ञानों को देनेवाले प्रभो  ! (तव) आपकी (धेना) वेदवाणी (दाशुषे) समर्पण करनेवाले के लिए (जिगाति) प्राप्त होती है । वस्तुतः अध्यापक से दिया जाता हुआ ज्ञान उसी विद्यार्थी को प्राप्त होता है जो कि अध्यापक के प्रति अपना अर्पण करता है , जिसका सारा कार्यक्रम अध्यापक के निर्देश के अनुसार चलता है । हमारा जीवन प्रभु के निर्देश के अनुसार चलेगा तो हमें भी प्रभु से दिया जाता हुआ ज्ञान प्राप्त होगा ।

    २. वह वेदज्ञान कैसा है , इसका प्रतिपादन धेना के दो विशेषणों के द्वारा यहाँ किया जा रहा है - [क] (प्रपृञ्चती) प्रकृष्ट सम्पर्क को उत्पन्न करनेवाली यह वेदवाणी है , अर्थात् इसके अध्ययन से हमें वह ज्ञान प्राप्त होता है जो हमें प्रकृति की ओर झुकाववाला न बनाकर प्रभु के सम्पर्कवाला बनाता है । [ख] (उरूची) (उरु अञ्च) विशाल प्रदेशों में यह गतिवाली है । ऋग्वेद यदि प्राकृतिक विज्ञानों (Natural Sciences) का मुख्यतः प्रतिपादन करता है तो यजुर्वेद कर्मवेद है । यह मनोविज्ञान व सामाजिक विज्ञानों का प्रतिपादक है । साम अध्यात्मशास्त्र (Metaphysics) को लेता है और अथर्व युद्ध - विद्या व आयुर्वेद (Science of War तथा Science of Medicine) को अपना विषय बनाता है । इस प्रकार यह वेदवाणी सचमुच उरूची है ।

    ३. इस वेदवाणी के पठन से जहाँ हमारा ज्ञान बढ़ता है वहाँ यह (सोमपीतये) सोम की पीति के लिए होती है , इसके स्वाध्याय से शरीर में सोम का रक्षण होता है । यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और इस प्रकार उचित व्यय होकर यह हमारे विकास में सहायक होता है । एवं , स्वाध्याय सोमपान में सहायक होता है । सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और तीव्रबुद्धि बनकर हम अधिक ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं । एवं , हमारे शरीर में सोमपान व स्वाध्याय का परस्पर भावन चलता है । स्वाध्याय से सोम की रक्षा होती है , सोमरक्षण से स्वाध्याय की योग्यता बढ़ती है ।

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदवाणी प्रभु के प्रति समर्पण करनेवाले को प्राप्त होती है । यह प्रभु - सम्पर्क को बढ़ाती है , व्यापक ज्ञान को देती है । सोमपान के लिए - शरीर में शक्ति को सुरक्षित करने के लिए यह स्वाध्याय सहायक है ।

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    विषय

    पूर्वोक्त स्तोत्रों का जो श्रवण और उच्चारण का निमित्त है, उसका प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे वायो परमेश्वर ! भवत् कृपया या तव प्रपृञ्चि उरूची धेना सा सोमपीतये दाशुषे विदुषे जिगाति। तथा तव अस्य वायो प्राणस्य प्रपृञ्चि  उरूची धेना सोमपीतये दाशुषे जीवाय जिगाति॥३॥

    पदार्थ

    हे (वायो) वेदवाणीप्रकाशकेश्वर= वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले (परमेश्वर)= परमेश्वर! (भवत्)=आप (कृपया)= कृपया, (या)=जो, (तव) जगदीश्वरस्य= परमेश्वर के, (प्रपृञ्चचि) प्रकृष्टा चासौ पृञ्चती चार्थसम्बन्धेन सकलविद्यासम्पर्ककारयित्री= सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने, और (उरूची) बह्वीनां पदार्थविद्यानां ज्ञापिका= अनेक विद्याओं के प्रयोजनों को प्राप्त करानेहारी, (धेना) वेदचतुष्टयी वाक् = चार वेदों की वाणी है, सो, (सा)=वह, (सोमपीतये) सूयन्ते ये पदार्थास्तेषां पीतिः पानं यस्य तस्मै विदुषे मनुष्याय= जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने, और  (दाशुषे) निष्कपटेन विद्यां दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय= निष्कपट से प्रीत के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को,  (विदुषे)= विद्वानों के लिए, (जिगाति) प्राप्नोति =प्राप्त होती है।  (तथा)=वैसे ही दूसरा अर्थ- (वायो तव) इस भौतिक वायु के योग से (प्राणस्य)=प्राणों की जो (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारणसाधिका- शब्दोच्चारण श्रवण कराने और (उरूची) बह्वर्थज्ञापिका= अनेक पदार्थों की जाननेवाली (धेना) वाणी है, सो (सोमपीतये) संसारी पदार्थों के पान करने योग्य रस को पीने वा (दाशुषे) शब्दोच्चारण श्रवण करनेवाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहाँ भी श्लेषालङ्कार है। दूसरे मन्त्र में जिस वेदवाणी से परमेश्वर और भौतिक वायु के गुण प्रकाश किये हैं, उसका फल और प्राप्ति इस मन्त्र में प्रकाशित की है अर्थात् प्रथम अर्थ से वेदविद्या और दूसरे से जीवों की वाणी का फल और उसकी प्राप्ति का निमित्त प्रकाश किया है॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (प्रथमः)- परमेश्वर के पक्ष में-
    हे (वायो) वेदविद्या के प्रकाश करनेवाले (परमेश्वर) परमेश्वर! (भवत्) आप (कृपया) कृपया (या) जो (तव) परमेश्वर की (प्रपृञ्चि) सब विद्याओं के सम्बन्ध से विज्ञान का प्रकाश कराने और (उरूची) अनेक विद्याओं के प्रयोजनों को प्राप्त कराने हारी (धेना) चार वेदों की वाणी है, सो (सा) वह वाणी (सोमपीतये) जानने योग्य संसारी पदार्थों के निरन्तर विचार करने और  (दाशुषे) निष्कपट से प्रीत के साथ विद्या देनेवाले पुरुषार्थी (विदुषे) विद्वान् के लिए (जिगाति) प्राप्त होती है। 
    (द्वितीयः)- वायु के पक्ष में-
    (वायो तव) आपके इस भौतिक वायु के योग से  (प्राणस्य) प्राणों की जो (प्रपृञ्चि) शब्दोच्चारण श्रवण कराने और (उरूची) अनेक पदार्थों की जाननेवाली (धेना) वाणी है, (सो) वह (सोमपीतये) संसारी पदार्थों के पान करने योग्य रस को पीने या (दाशुषे) शब्दोच्चारण श्रवण करने वाले पुरुषार्थी विद्वान् को (जिगाति) प्राप्त होती है॥३॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वायो) वेदवाणीप्रकाशकेश्वर ! (तव) जगदीश्वरस्य (प्रपृञ्चती) प्रकृष्टा चासौ पृञ्चती चार्थसम्बन्धेन सकलविद्यासम्पर्ककारयित्री (धेना) वेदचतुष्टयी वाक्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (जिगाति) प्राप्नोति। जिगातीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) तस्मात्प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (दाशुषे) निष्कपटेन विद्यां दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (उरूची) बह्वीनां पदार्थविद्यानां ज्ञापिका। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (सोमपीतये) सूयन्ते ये पदार्थास्तेषां पीतिः पानं यस्य तस्मै विदुषे मनुष्याय। अत्र सह सुपेति समासः। भौतिकपक्षे त्वयं विशेषः- (वायो) पवनस्य योगेनैव (तव) अस्य (प्रपृञ्चती) शब्दोच्चारणसाधिका (धेना) वाणी (दाशुषे) शब्दोच्चारणकर्त्रे (उरूची) बह्वर्थज्ञापिका। अन्यत्पूर्ववत्॥३॥
    विषयः- अथ तेषामुक्थानां श्रवणोच्चारणनिमित्तमुपदिश्यते।

    अन्वयः- हे वायो परमेश्वर ! भवत्कृपया या तव प्रपृञ्चत्युरूची धेना सा सोमपीतये दाशुषे विदुषे जिगाति। तथा तवास्य वायो प्राणस्य प्रपृञ्चत्युरूची धेना सोमपीतये दाशुषे जीवाय जिगाति॥३॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रापि श्लेषालङ्कारः। द्वितीयमन्त्रे यया वेदवाण्या परमेश्वरभौतिकयोर्गुणः प्रकाशितास्तस्याः फलप्राप्ती अस्मिन्मन्त्रे प्रकाशिते स्तः। अर्थात्प्रथमार्थे वेदविद्या द्वितीये वक्तॄणां जीवानां वाङ्निमित्तं च प्रकाश्यत इति॥३॥

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    विषय

    ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की स्तुति, आचार्य और भौतिक वायु का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( वायो ) ज्ञानप्रकाशक ईश्वर ! ( तव ) तेरी ( धेना ) वेद वाणी (प्रपृञ्चती) उत्कृष्ट अर्थों का ज्ञान कराकर समस्त विद्याओं को सम्पर्क करानेवाली अर्थात् उनको हृदय में प्रकाश करनेवाली होकर ( दाशुषे ) दानशील, दूसरों के विद्या देने हारे, विद्याभ्यासी और वेदानुशीलन में आत्मसमर्पण करनेवाले पुरुष को ही ( जिगा त ) प्राप्त होती है । और वह वाणी (सोमपीतये ) उत्पन्न पदार्थों के रस या ज्ञान को ग्रहण करनेवाले को ( उरूची ) बहुत अधिक ज्ञानों और विद्याओं का ज्ञान करनेवाली होती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दाः ऋषिः ॥ १-३ वायुर्देवता । ४-६ इन्द्रवायू । ७-९ मित्रा वरुणौ । गायत्र्यः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे श्लेषालंकार आहे. दुसऱ्या मंत्रात ज्या वेदवाणीद्वारे परमेश्वर व भौतिक वायूचे गुण प्रकट केलेले आहेत त्याचे फळ व प्राप्ती या मंत्रात सांगितलेली आहे. अर्थात प्रथम अर्थ वेदविद्या व दुसरा अर्थ जीवाच्या वाणीचे फळ व त्याच्या प्राप्तीचे निमित्त प्रकट केलेले आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Vayu, breath of life and love, your voice of omniscience resounding across heaven and earth overflows like the mother cow for the generous yajnic soul and gives him a surfeit of soma, drink of immortality.

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    Translation

    O Lord of cosmic vitality, your inspiring voice resounds all through the thoughts and feelings of your devotees, the perceptors of your divine wisdom, who have tasted the sweetness of your favours.

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    Subject of the mantra

    Which is the reason of listening of aforesaid groups of hymns of Vedas and their citation, its elucidation has been done in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- He=O! (vāyo)=elucidator of knowledge of Vedas, (parameśvara)=God, (bhavat)=You, (kṛpayā)=kindly, (yā)=which, (tava)= Your, (prapṛñci)=to elucidate specific knowledge of all branches of knowledge, (urūcī)=getting obtained purport of many branches of knowledge, (dhenā)=speech of four Vedas, (sā)=that speech (somapītaye)=continuous pondering over worth knowing earthly substances [aura]=and, (dāśuṣe)=industrious providers of knowledge with love sincerely, (dāśuṣe)=for scholar, (jigāti)=gets obtained. Second in favour of material air- (vāyo)=by combination of this material air, (prāṇasya)=of breath, (prapṛñci)= to hear the speech [aura]=and, (urūcī)= knowledgeable of many things, (dhenā)=the speech is, (so)=that, (somapītaye)= to drink the potable juice of worldly substances or, (dāśuṣe)= To the industrious scholar who listens to the pronunciation of words, (jigāti)=gets obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God- O elucidator of knowledge of Vedas, God! Your elucidation of specific knowledge of all branches of knowledge and getting obtained purport of many branches of knowledge, speech of four Vedas is, that speech, continuous pondering over worth knowing earthly substances and effort-making providers of knowledge with love sincerely. Kindly get obtained for the scholar. Second in favour of material air- With the combination of this physical air of yours, the speech of life breath which makes you listen the pronunciation of words and knows many things, it is received by the effort-making scholar who drinks the nectar of worldly substances or listens to the pronunciation of words.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as figurative in the second mantra as well. In the second mantra the effect and attainment of the Vedas by which the virtues of the Supreme God have been revealed, in other words, by first meaning knowledge of Vedas and by second the effect of the speech of living beings; and the attainment of that has been revealed.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now it is taught how those sounds of the hymns are to be heard.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O Omniscient God, the Illuminator of the Vedic Speech ! Thy Speech revealed in the form of the four Vedas which gives us the knowledge of various sciences and thus keeps us in touch with them is achieved by a person who imparts knowledge without deceit and who drinks the nectar of the Science of various objects created by Thee. (2) In the case of the air, it is with its co-operation or through its medium that the sound can be heard which gives us knowledge of various sciences.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    धेनाइतिवाङ्नाम ( निघण्टु १-११ ) दाशृ-दाने | उरुइति बहुनाम (निघण्टु ३ १) सोमाः सूयन्ते उत्पद्यन्ते ये ते पदार्थाः षु-प्रसवैश्वर्यययोरितिधातोः (म०-४)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this Mantra also, Shleshalankara-Paronomasia (double entendre) has been used. As in the second verse, the attributes of God and the air have been described, in this third Verse it is mentioned how they are to be attained and what is the result of attaining their knowledge.

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