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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒ग्रा सन्ता॑ हवामह॒ उपे॒दं सव॑नं सु॒तम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी एह ग॑च्छताम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रा । सन्ता॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । उप॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । सु॒तम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । आ । इ॒ह । ग॒च्छ॒ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम्। इन्द्राग्नी एह गच्छताम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रा। सन्ता। हवामहे। उप। इदम्। सवनम्। सुतम्। इन्द्राग्नी इति। आ। इह। गच्छताम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    वयं याविदं सुतं सवनमुपागच्छतामुपागमयतस्तावुग्रोग्रौ सन्तासन्ताविन्द्राग्नी इह हवामहे॥४॥

    पदार्थः

    (उग्रा) तीव्रौ (सन्ता) वर्त्तमानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारः। (हवामहे) विद्यासिध्यर्थमुपदिशामः शृणुमश्च (उप) उपगमार्थे (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत् (सुतम्) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (आ) समन्तात् (इह) शिल्पक्रियाव्यवहारे (गच्छताम्) गमयतः। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यत इमौ प्रत्यक्षीभूतौ तीव्रवेगादिगुणौ शिल्पक्रियाव्यवहारे सर्वकार्य्योपयोगिनौ स्तस्तस्मादेतौ विद्यासिद्धये कार्य्येषु सदोपयोजनीयाविति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हम लोग विद्या की सिद्धि के लिये जिन (उग्रा) तीव्र (सन्ता) वर्त्तमान (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि का (हवामहे) उपदेश वा श्रवण करते हैं, वे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (सवनम्) अर्थात् जिससे पदार्थों को उत्पन्न और (सुतम्) उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को (उपागच्छताम्) हमारे निकटवर्ती करते हैं॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जिस कारण ये दृष्टिगोचर हुए तीव्र वेग आदि गुणवाले वायु और अग्नि शिल्पक्रियायुक्त व्यवहार में सम्पूर्ण कार्य्यों के उपयोगी होते हैं, इससे इनको विद्या की सिद्धि के लिये कार्यों में सदा संयुक्त करना चाहिये॥४॥

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    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सुतं सवनम् उपागच्छताम् उपागमयतः तौ उग्रौ सन्ता सन्तौ इन्द्राग्नी इह हवामहे॥४॥

    पदार्थ

    (सुतम्) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम्= उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को, (सवनम्) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत्=जिससे पदार्थों को उत्पन्न किया जाता है, (उप) उपगमार्थे=समीप, (गच्छताम्) गमयतः=जाते हैं, (तौ)=वे, (उग्रा) तीव्रौ= तीव्र, (सन्ता-सन्तौ) वर्त्तमानौ=होते हुए, (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ-वाय्वग्नी=वायु और अग्नि के गुणों को, (इह) शिल्पक्रियाव्यवहारे=शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार में, (हवामहे) विद्यासिध्यर्थमुपदिशामः शृणुमश्च=विद्या की सिद्धि के लिये उपदेश करते हैं और सुनते हैं ॥४॥ 
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को जिस कारण ये दृष्टिगोचर हुए तीव्र वेग आदि गुणवाले वायु और अग्नि शिल्पक्रियायुक्त व्यवहार में सम्पूर्ण कार्यों  के लिये उपयोगी होते हैं, इससे इनको विद्या की सिद्धि के लिये कार्यों में सदा संयुक्त करना चाहिये॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (सुतम्) उत्तम शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार को (सवनम्) जिससे पदार्थों को उत्पन्न किया जाता है (उप) समीप (गच्छताम्) जाते हैं। (तौ) वे (उग्रा) तीव्र (सन्ता) होते हुए (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि के गुणों को (इह) शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए व्यवहार में, (हवामहे) विद्या की सिद्धि के लिये उपदेश करते हैं और सुनते हैं ॥४॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उग्रा) तीव्रौ (सन्ता) वर्त्तमानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारः। (हवामहे) विद्यासिध्यर्थमुपदिशामः शृणुमश्च (उप) उपगमार्थे (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत् (सुतम्) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (आ) समन्तात् (इह) शिल्पक्रियाव्यवहारे (गच्छताम्) गमयतः। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥४॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- वयं याविदं सुतं सवनमुपागच्छतामुपागमयतस्तावुग्रोग्रौ सन्तासन्ताविन्द्राग्नी इह हवामहे॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यत इमौ प्रत्यक्षीभूतौ तीव्रवेगादिगुणौ शिल्पक्रियाव्यवहारे सर्वकार्य्योपयोगिनौ स्तस्तस्मादेतौ विद्यासिद्धये कार्य्येषु सदोपयोजनीयाविति॥४॥ 

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    विषय

    यज्ञ व सोम के समीप

    पदार्थ

    १. ये (इन्द्राग्नी) - बल व प्रकाश की देवता जोकि (उग्ना सन्ता) - तेजस्वी व उदात्त होती हुई सदा (इदम्) - इस (सवनम्) - यज्ञ के तथा (सुतम्) - सोम - सम्पादन के (उप) - समीप रहती हैं , उनको (हवामहे) - हम पुकारते हैं । बल व प्रकाश के होने पर मनुष्य यज्ञशील जीवनवाला होता है और उत्पन्न हुए - हुए सोम का रक्षण करता है । 

    २. (इन्द्राग्नी) - बल व प्रकाश के देवता (इह) - इस मानव - जीवन में (आगच्छताम्) - मुझे प्राप्त हों । जिस समय मनुष्य शरीर में बल व मस्तिष्क में प्रकाशवाला होता है , उस समय यज्ञशील जीवनवाला तो होता ही है , साथ ही भोगों के दोषों को देखता हुआ वह उनमें फंसता नहीं है , अपितु सोम का रक्षण करनेवाला बनता है । इस सोम - रक्षण से ही वस्तुतः उसका बल व प्रकाश बढ़ता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्राग्नी की उपासना से तेजस्वी बनकर हम यज्ञशील बनें और सोम का रक्षण करें । 

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर ।

    भावार्थ

    ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि, वायु और सूर्य, या विद्युत् और अग्नि या विद्युत् और मेघ इन दोनों के समान ( उग्रा सन्ता ) उग्र बलवान्, तीव्र स्वभाव के दोनों को हम ( हवामहे ) बुलाते हैं, ( इदं ) यह ( सवनं सुतम्) सवन, ऐश्वर्योत्पादक राज्य तैयार है । वे दोनों (इह) यह ( आ गच्छताम् ) आवें । भौतिक में—वायु और अग्नि दोनों तत्व तीव्र स्वभाव के हों और पदार्थोत्पादक कारखाना चलावें, उनमें दोनों का उपयोग लें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवते-इन्द्राग्नी । छन्दः—२ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ५ निचृद्गायत्री । १, ३, ४, ६ गायत्री । षड्र्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांना दृष्टिगोचर होणारे तीव्र वेग इत्यादी गुण असणारे वायू व अग्नी शिल्पक्रियायुक्त व्यवहाराच्या संपूर्ण कार्यात सदैव उपयोगी असतात. यामुळे त्यांना विद्येच्या सिद्धीसाठी कार्यात सदैव संयुक्त केले पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We invoke and honour Indra and Agni, powers of air and fire, both powerful and brilliant, to come and join this yajnic project of ours for the creation of wealth and joy. May they come here, promote the yajna and bless us.

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    Subject of the mantra

    Then, how are they, in other words, what are their attributes, has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (sutam)=accomplished by excellent manual skill, (savanam)=by which substances are produced, (upa) in close quarters, (gacchatām)=go, (tau)=they, (ugrā) intensive, (santā)= While happening, (indrāgnī=to qualities of air and fire, (iha)=in the accomplishment of craftsmanship practice, (havāmahe)=preaches and listens for the attainment of knowledge.

    English Translation (K.K.V.)

    Accomplished by excellent manual skill by which substances are produced, they go in close quarters. They take to practice accomplishment of craftsmanship and are present in intensive qualities of air and fire for accomplishment of knowledge. They being intensified preach and listen for the attainment of learning, in practice perfected by the craft the qualities of air and fire.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Due to which they are visible to human beings, air and fire of high velocity etc. are useful for all tasks in crafty practices. With this, they should always be used in works for the accomplishment of knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they or what are their attributes is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We invoke and instruct about Indra and Agni (air and fire) which are strong and mighty and which help to perform all transactions where many articles are accomplished in this act, consisting of various arts and industries.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हवामहे) विद्यासिद्धयर्थम् उपदिशामः शृणुमश्च । = Instruct and listen to for the accomplishment and acquisition of scientific knowledge. (सवनम् ) सुन्वन्ति निष्पादयन्ति पदार्थान् येन तत् । = an act in which various articles are manufactured or made. (सुतम् ) क्रियया निष्पादितं व्यवहारम् । = Work of art and industry. (उप गच्छ्रताम्) उपगमयतः अत्र लडर्थे लोट् अन्तर्गतो व्यर्थश्च । = Cause to perform.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should properly and methodically utilize the air and fire full of force and rapidity which are useful for the accomplishment of many purposes, connected with arts and crafts and sciences.

    Translator's Notes

    हवामहे हे स्पर्धायाम् It is very wrong on the part of Griffith to translate the word उग्रा as Strong Gods. There is no word in the text denoting Gods and yet obsessed with the idea of the worship of many Gods in the Vedas, these Western scholars generally insert their own pet words which very often go against the spirit of the Mantras. As a matter of fact, means simply strong and mighty. There is no word for Gods here and yet Griffith has inserted it according to his own imagination. Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith all take इन्द्राग्नी to be some particular Gods which is wrong.

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