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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तेन॑ स॒त्येन॑ जागृत॒मधि॑ प्रचे॒तुने॑ प॒दे। इन्द्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेन॑ । स॒त्येन॑ । जा॒गृ॒त॒म् । अधि॑ । प्र॒ऽचे॒तुने॑ । प॒दे । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे। इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तेन। सत्येन। जागृतम्। अधि। प्रऽचेतुने। पदे। इन्द्राग्नी इति। शर्म। यच्छतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    याविन्द्राग्नी तेन सत्येन प्रचेतुने पदेऽधिजागृतं तौ शर्म यच्छतं दत्तः॥६॥

    पदार्थः

    (तेन) गुणसमूहाधारेण (सत्येन) अविनाशिस्वभावेन कारणेन (जागृतम्) प्रसिद्धगुणौ स्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (अधि) उपरिभावे (प्रचेतुने) प्रचेतयन्त्यानन्देन यस्मिँस्तस्मिन्। (पदे) प्राप्तुं योग्ये (इन्द्राग्नी) प्राणविद्युतौ (शर्म) सुखम् (यच्छतम्) दत्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥६॥

    भावार्थः

    ये नित्याः पदार्थाः सन्ति तेषां गुणा अपि नित्या भवितुमर्हन्ति, ये शरीरस्था बहिस्थाः प्राणा विद्युच्च सम्यक् सेविताश्चेतनत्वहेतवो भूत्वा सुखप्रदा भवन्ति, ते कथं न सम्प्रयोक्तव्यौ॥६॥ विंशसूक्तोक्ता मेधाविनः पदार्थविद्यासिद्धेरिन्द्राग्नी मुख्यौ हेतू भवत इति जानन्त्यनेन पूर्वसूक्तार्थेन सहैकविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्च विरुद्धार्थं व्याख्यातम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (इन्द्राग्नी) प्राण और बिजुली हैं वे (तेन) उस (सत्येन) अविनाशी गुणों के समूह से (प्रचेतुने) जिसमें आनन्द से चित्त प्रफुल्लित होता है (पदे) उस सुखप्रापक व्यवहार में (अधिजागृतम्) प्रसिद्ध गुणवाले होते और (शर्म) उत्तम सुख को भी (यच्छतम्) देते हैं, उनको क्यों उपयुक्त न करना चाहिये॥६॥

    भावार्थ

    जो नित्य पदार्थ हैं, उनके गुण भी नित्य होते हैं, जो शरीर में वा बाहर रहनेवाले प्राणवायु तथा बिजुली हैं, वे अच्छी प्रकार सेवन किये हुए चेतनता करानेवाले होकर सुख देनेवाले होते हैं॥६॥बीसवें सूक्त में कहे हुए बुद्धिमानों की पदार्थविद्या की सिद्धि के वायु और अग्नि मुख्य हेतु होते हैं, इस अभिप्राय के जानने से पूर्वोक्त बीसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस इक्कीसवें सूक्त के अर्थ का मेल जानना चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विरुद्ध अर्थ से वर्णन किया है॥

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    विषय

    उक्त कार्य्य के करने में किसका सामर्थ्य होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यौ इन्द्राग्नी तेन सत्येन प्रचेतुने पदे अधिजागृतं  तौ शर्म यच्छतं  दत्तः॥६॥

    पदार्थ

    (यौ)=जो, (इन्द्राग्नी) प्राणविद्युतौ=प्राण और बिजली हैं, (तेन) गुणसमूहाधारेण=उस गुणों के समूह को धारण करने से, (सत्येन) अविनाशिस्वभावेन कारणेन=अविनाशी गुणों के स्वभाव से, (प्रचेतुने) प्रचेतयन्त्यानन्देन यस्मिँस्तस्मिन्=जिसमें आनन्द से चित्त प्रफुल्लित होता है, (पदे) प्राप्तुं योग्ये= उस प्राप्ति योग्य में, (अधिजागृतम्) प्रसिद्धगुणौ=प्रसिद्ध गुणवाले (स्तः)=होते हैं, (तौ)=वे दोनों, (शर्म)=उत्तम सुख को, (यच्छतम्) दत्तः=देते हैं॥६॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो नित्य पदार्थ हैं, उनके गुण भी नित्य होते हैं, जो शरीर में वा बाहर रहनेवाले प्राणवायु तथा बिजली हैं, वे अच्छी प्रकार सेवन किये हुए चेतनता करानेवाले होकर सुख देनेवाले होते हैं ॥६॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद- बीसवें सूक्त में कहे हुए बुद्धिमानों की पदार्थविद्या की सिद्धि के वायु और अग्नि मुख्य हेतु होते हैं, इस अभिप्राय के जानने से पूर्वोक्त बीसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस इक्कीसवें सूक्त के अर्थ का सङ्गति जानना चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने विरुद्ध अर्थ से वर्णन किया है ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यौ) जो (इन्द्राग्नी) प्राण और बिजली हैं, वे (सत्येन) अविनाशी गुणों के स्वभाव से (तेन) और उस गुणों के समूह को धारण करने से (प्रचेतुने) जिसमें आनन्द से चित्त प्रफुल्लित होता है, (पदे) उसे प्राप्त करने की योग्यता में (अधिजागृतम्) प्रसिद्ध गुण वाले, (स्तः) होते हैं । (तौ) वे दोनों (शर्म) उत्तम सुख को (यच्छतम्) देते हैं॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तेन) गुणसमूहाधारेण (सत्येन) अविनाशिस्वभावेन कारणेन (जागृतम्) प्रसिद्धगुणौ स्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च (अधि) उपरिभावे (प्रचेतुने) प्रचेतयन्त्यानन्देन यस्मिँस्तस्मिन्। (पदे) प्राप्तुं योग्ये (इन्द्राग्नी) प्राणविद्युतौ (शर्म) सुखम् (यच्छतम्) दत्तः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥६॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- याविन्द्राग्नी तेन सत्येन प्रचेतुने पदेऽधिजागृतं तौ शर्म यच्छतं दत्तः॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये नित्याः पदार्थाः सन्ति तेषां गुणा अपि नित्या भवितुमर्हन्ति, ये शरीरस्था बहिस्थाः प्राणा विद्युच्च सम्यक् सेविताश्चेतनत्वहेतवो भूत्वा सुखप्रदा भवन्ति, ते कथं न सम्प्रयोक्तव्यौ॥६॥ 

    महर्षिकृतः सूक्तस्य भावार्थः- विंशसूक्तोक्ता मेधाविनः पदार्थविद्यासिद्धेरिन्द्राग्नी मुख्यौ हेतू भवत इति जानन्त्यनेन पूर्वसूक्तार्थेन सहैकविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्च विरुद्धार्थं व्याख्यातम्॥ 

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    विषय

    सत्य व चेतना

    पदार्थ

    १. राक्षसी भावों को नष्ट करके ये (इन्द्राग्नी) - बल व प्रकाश के देवता (तेन सत्येन) - उस सत्य से (जागृतम्) - हमारे अन्दर जागरित रहें । राक्षसी भावों की भस्म पर ही सत्य का भवन स्थित होता है । 

    २. ये इन्द्राग्नी हमें (प्रचेतुने पदे अधि) - प्रकृष्ट चेतनावाले स्थान में अधिक्येन स्थापित करें । इन देवों की कृपा से हमारी स्मृति नष्ट न हो । 

    ३. इस प्रकार ये इन्द्र और अग्नि हमारे राक्षसीभावों को नष्ट तथा हमारी स्मृति को स्थिर करके (शर्म यच्छतम्) - सुख के देनेवाले हों । बल व प्रकाश से ही मनुष्य का कल्याण होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र व अग्नि की कृपा से हममें सत्य का जागरण हो , स्मृति की स्थिरता हो । हम अपने स्वरूप व कर्तव्य को भूल न जाएँ और अपने कल्याण को सिद्ध कर सकें । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ बल व प्रकाश के देवता के स्तवन से होता है [१] । ये ही देवता हमारे जीवन को यज्ञमय , प्रशंसनीय व सुरक्षित प्राणवाला बनाते हैं [२] । इनके द्वारा हम प्रभु - स्तवन व सोमपान करनेवाले बनते हैं [३] । इनसे हम तेजस्वी , यज्ञशील , सोम के रक्षक बनें [४] । ये ही देवता हमारे राक्षसीभावों को दिव्यभावों में परिवर्तित करते हैं [५] । हममें सत्य का जागरण व स्मृति की स्थापना करके हमारा कल्याण करते हैं [६] । इस स्मृति के परिणामस्वरूप हम अपना जीवन प्राणसाधनामय बनाते हैं -

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    विषय

    राज प्रजावर्ग को सावधान रहने का आदेश ।

    भावार्थ

    आप दोनों ( तेन सत्येन ) उस जगत्प्रसिद्ध, सत्य व्यवहार, सज्जनों के हितकारी न्याय, से ( प्रचेतने ) सबको चेतानेवाले ( पदे ) न्यायाधीश के परमपद पर रहकर स्वयम् ( अधि जागृतम् ) जागते रहो । सावधान रहो। और हे ( इन्द्राग्नी ) पूर्वोक्त इन्द्र और अग्नि आप दोनों सूर्य और अग्नि, वायु और विद्युत् के समान समस्त प्रजावर्ग को ( शर्म ) सुख और सुखप्रद शरण ( यच्छतम् ) प्रदान करो । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवते-इन्द्राग्नी । छन्दः—२ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ५ निचृद्गायत्री । १, ३, ४, ६ गायत्री । षड्र्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पदार्थ नित्य असतात त्यांचे गुणही नित्य असतात. शरीरात किंवा बाहेर राहणारे प्राणवायू व विद्युत चांगल्या प्रकारे सेवन केलेले, चेतनतेचे हेतू असतात. ते सुखी करणारे असतात. तेव्हा त्यांना उपयुक्त का म्हणू नये? ॥ ६ ॥

    टिप्पणी

    याही सूक्तात सायणाचार्य इत्यादी व युरोपवासी विल्सन इत्यादींनी विरुद्ध अर्थाचे वर्णन केलेले आहे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra and Agni, pranic energy and vital heat energy, are ever awake in their state of real and constant qualities with their blissful and beatific virtues. May these two provide us with peace and comfort in a safe and happy home.

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    Subject of the mantra

    Even then, what kind of they are, has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yau)=Those, (indrāgnī) =are breath and electricity,they, (satyena)=by virtue of imperishable nature, (tena) =and by possessing group of those virtues, (pracetune)=in whom the psyche gets ebullience, (pade)=in competency of achieving that, (adhijāgṛtam)=are having famous qualities, (staḥ)=are, (tau)=both of them, (śarma)=excellent delight, (yacchatam)=provide.

    English Translation (K.K.V.)

    Those who are eternal things, their qualities are also eternal, those who are living in the body or outside, they are the life-breath and electricity, they are well-used, they are the giver of consciousness and giver of happiness.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Air and fire are the main motives for the accomplishment of the material science of the wise, as stated in the twentieth hymn, by knowing this translation one should know the association of the translation of this twenty-first hymn with the translation of the twentieth hymn. This hymn has also been commented by Sayanacharya etc. and European scholars like Wilson etc. with opposite translation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May Indra and Agni (Prana-vital energy and electricity) which are well-known on account of the group of true attributes in that desirable state which fills us with joy and bliss, bestow happiness upon us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राग्नी) प्राण विद्युतौ । = Prana and electricity (शर्म ) सुखम् = happiness. (Nighantu 3.6). All wise men know that Indra and Agni (air & fire) are most prominent sources of the accomplishment of scientific knowledge, so this hymn mentioning their attributes has direct connection with the twentieth hymn. This hymn has also been wrongly translated by Sayanacharya, Prof. Wilson and other scholars of the West.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the eternal are also eternal or everlasting. Why should not the Pranas (within the body and without)and electricity which bestow happiness upon us and when used properly make us vigilant, be utilized scientifically?

    Translator's Notes

    In his commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has taken the word इन्द्र for Prana for which he has not quoted any authority from ancient literature, but which is clearly available as the following passage from Shatapath Brahmana 6. 1.2 28 shows. प्राण इन्द्रः (शतपथ ६.१.२.२८.) So it is evident that Rishi Dayananda's interpretation of the word Indra as Prana is not imaginary. In other mantras of this hymn, he has taken Indra in the sense of arg or air for which we may aptly cite the following passages. यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः । (शत० ४.१.३.९) अयं वा इन्द्रो योऽयं (वातः) पवते ।। In these passages of the Shatapath Brahman, it is clearly and un-ambiguously stated that the word Indra is used for a or air. In the commentary on this Mantra, Rishi Dayananda has taken Agni in the sense of विद्युत् or electricity, as it is one of its forms. Among the eight forms of Agni (fire) as stated in the Shatapath Brahmana अशनि electricity or lightning is one. तान्येतान्यष्टौ रुद्रः, सर्वः, पशुपति:, उग्रः अशनिः, भवः, महान् देवः, ईशान: अग्निरूपाणि । We have already pointed out some of the mistakes committed by Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith in the course of our Notes and comments: Here ends the 21st hymn of the first Mandala of the Rigveda.

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