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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - उषाः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सु॒पेश॑सं सु॒खं रथं॒ यम॒ध्यस्था॑ उष॒स्त्वम् । तेना॑ सु॒श्रव॑सं॒ जनं॒ प्रावा॒द्य दु॑हितर्दिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽपेश॑सम् । सु॒खम् । रथ॑म् । यम् । अ॒धि॒ऽअस्थाः॑ । उ॒षः॒ । त्वम् । तेन॑ । सु॒ऽश्रव॑सम् । जन॑म् । प्र । अ॒व॒ । अ॒द्य । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् । तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुपेशसम् । सुखम् । रथम् । यम् । अधिअस्थाः । उषः । त्वम् । तेन । सुश्रवसम् । जनम् । प्र । अव । अद्य । दुहितः । दिवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (सुपेशसम्) सुन्दरस्वरूपम् (सुखम्) आनन्दकारकम् (रथम्) रमणसाधनं यानम् (यम्) वक्ष्यमाणम् (अध्यस्थाः) अध्युपरि तिष्ठन्तीत्यधस्थाः (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (त्वम्) (तेन) रथेन (सुश्रवसम्) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यस्मिन्प्रसादे यस्य तम् (जनम्) विद्वांसम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (अव) रक्ष (अद्य) अस्मिन् दिने (दुहितः) पुत्रीव (दिवः) प्रकाशस्य ॥२॥

    अन्वयः

    पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे दिवो दुहितरुषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यं सुपेशसं सुखं रथमध्यस्था येन जना आनन्दमेधन्ते तेन रथेनाद्य सुश्रवसं जनं प्राव ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्यथा प्रकाशेन सुरूपप्रसिद्धिर्जायते तथा सौभाग्यकारिकया विदुष्या स्त्रिया गृहकृत्यसिद्धिरपत्योत्पत्तिश्च जायत इति विज्ञायोपकर्त्तव्यम् ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (दिवः) प्रकाशमान सूर्य्य की (दुहितः) पुत्री ही के तुल्य (उषः) वर्त्तमान स्त्रि ! तू (यम्) जिस (सुपेशसम्) सुन्दर रूप (सुखम्) आनन्दकारक (रथम्) क्रीड़ा के साधन यान से (अध्यस्थाः) ऊपर बैठने वाले प्राणी आनन्द को बढ़ाते हैं (तेन) उस रथ से (सुश्रवम्) उत्तम श्रवण युक्त (जनम्) विद्वान् मनुष्य की (प्राव) अच्छे प्रकार रक्षा आदि कर ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्य लोग जैसे सूर्य्य के प्रकाश से सुरूप की प्रसिद्धि होती है वैसे ही विदुषी स्त्री से घर का काम और पुत्रों की उत्पत्ति होती है ऐसा जानकर उनसे उपकार लेवें ॥२॥

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    विषय

    सुपेशस् - सुखरथ

    पदार्थ

    १. हे (उषः) = प्रातः काल ! (त्वम्) = तू (यम्) = जिस (सुपेशसम्) = स्वास्थ्य के कारण सुन्दर आकृतिवाले, (सुखम्) = सब सुन्दर छेदोंवाले - स्वस्थ इन्द्रिय द्वारोंवाले रथ - हमारे शरीररूप रथ में (अध्यस्थाः) = अधिष्ठित हुई है, (तेन) = उस शरीररूप रथ से (सुश्रवसं जनम्) = इस उत्तम यश व उत्तम कर्मोंवाले [fame, praiseworthy action] मनुष्य को हे (दिवः दुहितः) = प्रकाश का पूरण करनेवाली उषे ! (अद्य) = आज (प्राव) = प्रकर्षेण रक्षित करनेवाली हो । २. [क] हम प्रातः सबसे पहले शरीर के स्वास्थ्य व इन्द्रियों की प्रशस्तता का ध्यान करें । हमारे उत्तम शरीररूप रथ पर यह उषः काल आरूढ़ हो । [ख] दूसरे स्थान में हम यशस्वी कर्मों के द्वारा जीवन को प्रशस्त बनाने का संकल्प करें । [ग] यह प्रकाश का पूरण करनेवाली उषा हमें भी ज्ञान के प्रकाश से पूरित करनेवाली हो और हमें सब प्रकार से सुरक्षित करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा शरीर स्वास्थ्य के सौन्दर्यवाला व प्रशस्तेन्द्रिय हो । हम यशस्वी व प्रशस्त कार्यों को ही करनेवाले हों ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ २ कान्तिमती कन्या के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (उषः) उषा के समान कमनीये कन्ये ! हे (दिवः दुहितः) सूर्य-कन्या उषा के समान तेजस्वी माता पिता की पुत्रि ! (त्वम्) तु (यम्) जिस (सुखं) सुखद, अति अवकाश वाले विशाल (सुपेशसम्) उत्तम सुवर्ण आदि से बने, उत्तम रूप वाले (रथम्) रमण साधन रथ पर (अधि अस्थाः) विराजती है (तेन) उसी से (अद्य) आज शुभ अवसर पर (सुश्रवसम्) उत्तम ज्ञान, यश और ऐश्वर्य से युक्त प्रिय (जनम्) जन को निर्विघ्न रूप से (प्र अव) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काणव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः ॥

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    विषय

    फिर वह सूर्य की पुत्री के समान स्त्री कैसी है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे दिवः दुहितः उषः वत् वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यं सुपेशसं सुखं रथम् अध्यस्था येन जना आनन्दम् एधन्ते तेन रथेन अद्य सुश्रवसं जनं प्र अव ॥२॥

    पदार्थ

    हे (दिवः) प्रकाशस्य=प्रकाश की, (दुहितः) पुत्रीव=पुत्री के समान, (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने वत् =उषा के समान वर्त्तमान, (स्त्रि)=स्त्री ! (त्वम्)=तुम, (यम्) वक्ष्यमाणम्=कहे हुए, (सुपेशसम्) सुन्दरस्वरूपम्=सुन्दरस्वरूप, (सुखम्) आनन्दकारकम्=आनन्द प्रदान करनेवाले, (रथम्) रमणसाधनं यानम्= रमण के साधन यान के, (अध्यस्थाः) अध्युपरि तिष्ठन्तीत्यधस्थाः=ऊपर बैठती हुई, (येन)=जिससे, (जना)=लोग, (आनन्दम्)= आनन्द मे, (एधन्ते)=बढ़ते हैं, (तेन) रथेन=रथ के द्वारा, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज, (सुश्रवसम्) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यस्मिन्प्रसादे यस्य तम्=परमेश्वर की दया से शोभनीय कानवाले, (जनम्) विद्वांसम्= विद्वान् की, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (अव) रक्ष=रक्षा कीजिये ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों के द्वारा जैसे प्रकाश से सुरूप की प्रसिद्धि होती है, वैसे ही विदुषी स्त्री से घर के काम की सिद्धि और सन्तान की उत्पत्ति होती है। ऐसा जानकर उनसे उपकार लेना चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (दिवः) प्रकाश की (दुहितः) पुत्री (उषः) उषा के समान वर्त्तमान (स्त्रि) स्त्री ! (त्वम्) तुम (यम्) कहे हुए (सुपेशसम्) सुन्दर स्वरूप की, (सुखम्) आनन्द प्रदान करनेवाली और (रथम्) रमण के साधन यान के (अध्यस्थाः) ऊपर बैठती हुई, (येन) जिससे (जना) लोग (आनन्दम्) आनन्द मे (एधन्ते) बढ़ते हैं, [ऐसे] (तेन) रथ के द्वारा (अद्य) आज ही (सुश्रवसम्) परमेश्वर की दया से शोभनीय कानवाले (जनम्) विद्वान् की (प्र) प्रकृष्ट रूप से (अव) रक्षा कीजिये ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सुपेशसम्) सुन्दरस्वरूपम् (सुखम्) आनन्दकारकम् (रथम्) रमणसाधनं यानम् (यम्) वक्ष्यमाणम् (अध्यस्थाः) अध्युपरि तिष्ठन्तीत्यधस्थाः (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (त्वम्) (तेन) रथेन (सुश्रवसम्) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यस्मिन्प्रसादे यस्य तम् (जनम्) विद्वांसम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (अव) रक्ष (अद्य) अस्मिन् दिने (दुहितः) पुत्रीव (दिवः) प्रकाशस्य ॥२॥ विषयः- पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे दिवो दुहितरुषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यं सुपेशसं सुखं रथमध्यस्था येन जना आनन्दमेधन्ते तेन रथेनाद्य सुश्रवसं जनं प्राव ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्यथा प्रकाशेन सुरूपप्रसिद्धिर्जायते तथा सौभाग्यकारिकया विदुष्या स्त्रिया गृहकृत्यसिद्धिरपत्योत्पत्तिश्च जायत इति विज्ञायोपकर्त्तव्यम् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्याच्या प्रकाशाने रूप प्रत्यक्ष दिसून येते तसेच विदुषी स्त्रीमुळे गृहकार्य व संततीची उत्पत्ती होते. हे जाणावे व कर्तव्य करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Daughter of Heaven, blessed dawn, by the refulgent beautiful and luxurious comfortable chariot you ride, protect and promote this morning the man dedicated to the Word Divine who loves to eat the holy food of yajna.

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    Subject of the mantra

    Then how is she a woman like the daughter of the Sun, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (divaḥ) =of light, (duhitaḥ) =daughter, (uṣaḥ) =present like a dawn, (stri) =woman, (tvam) =you, (yam) =as said, (supeśasam) =of the form, (sukham) =one who provides pleasures, [aura]=and, (ratham) =by aircraft as a means of travelling, (adhyasthāḥ)=sitting up, (yena) =like, (janā)=people, (ānandam) =with pleasure, (edhante) =sit, [aise]=such, (tena) =by the chariot, (adya) =today itself, (suśravasam)= beautiful ears by the mercy of God, (janam) =of a scholar, (pra)=excellently, (ava) =protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O woman present like dawn, the daughter of light! By the mercy of God, protect the scholar with beautiful ears today itself with such a chariot that gives pleasure and means of pleasure, by which people grow in joy.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as light brings glory to the beauty of men, similarly a learned woman accomplishes household chores and begets descendants. Knowing this, one should take a favour from him.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the (Usha) is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O woman shining like the Dawn daughter of the sun, mounting on the chariot pleasant, ample and beautiful come to a man of noble fame and knowledge (for marriage) and protect him from all evils.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that as by the light, things look beautiful, in the same way, by the association of learned auspicious virtuous wife, all domestic works are well accomplished and there is noble progeny.

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