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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
वय॑श्चित्ते पत॒त्रिणो॑ द्वि॒पच्चतु॑ष्पदर्जुनि । उषः॒ प्रार॑न्नृ॒तूँरनु॑ दि॒वो अन्ते॑भ्य॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवयः॑ । चि॒त् । ते॒ । प॒त॒त्रिणः॑ । द्वि॒पत् । चतुः॑ऽपत् । अ॒र्जु॒नि॒ । उषः॑ । प्र । आ॒र॒न् ऋ॒तून् । अनु॑ । दि॒वः । अन्ते॑भ्यः । परि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि । उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठवयः । चित् । ते । पतत्रिणः । द्विपत् । चतुःपत् । अर्जुनि । उषः । प्र । आरन् ऋतून् । अनु । दिवः । अन्तेभ्यः । परि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(वयः) पक्षिणः (चित्) इव (ते) तव (पतत्रिणः) पतनशीलाः। अत्र पतेरत्रिन्। उ० ४।८०। #अनेनायं सिद्धः (द्विपत्) द्वौपादौ यस्य मनुष्यादेः सः (चतुष्पत्) चत्वारः पादा यस्य पश्वादेः सः। अत्रोभयत्र वाच्छन्दसि इति पदादेशः। (अर्जुनि) अर्जयन्ति प्रतियतन्ते ययोषसा सा। अत्र अर्जप्रतियत्ने धातोः रक्* प्रत्ययो णिलुक् च। ¤उ० ३।५७। अनेनायं सिद्धः। अर्जुनीत्युषर्ना० निघं० १।८। (उषः) उषर्वत्पुरुषार्थनिमित्ते (प्र) (आरन्) प्रापयति (ऋतून्) वसन्तादीन् (अनु) पश्चात् (दिवः) प्रकाशस्य (अन्तेभ्यः) समीपेभ्योऽहोरात्रेभ्यः (परि) सर्वतः ॥३॥ #[उ० ४।६९।] *[उनन् प्र०। सं०।] ¤[अर्जे र्णिलुक् च उ० ३।५८। सं०।]
अन्वयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे स्त्रि ! यथार्जुनि दिवोंऽतेभ्य ऋतून् संपादयन्ती द्विपचतुष्पच्च बोधयन्ती सत्पुषाः सर्वान् प्राप्नोती यथाऽस्याः पतत्रिणो वयः प्रारँश्चित्ते गुणा भवन्तु ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालंकारः। यथोषा मुहूर्त्तप्रहरदिनमासर्त्वयनसंवत्सरान् विभजन्ती सर्वेषां प्राणिनां व्यवहारचेतने विभजति तथा स्त्री सर्वाणि गृहकृत्यानि विभजेत् ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे स्त्रि ! जैसे (अर्जुनि) अच्छे प्रकार प्रयत्न का निमित्त (उषः) उषा (दिवः) सूर्य्यप्रकाश के (अन्तेभ्यः) समीप से (ऋतून्) ऋतुओं को सिद्ध और (द्विपत्) मनुष्यादि तथा (चतुष्पत्) पशु आदि का बोध कराती हुई सबको प्राप्त होके जैसे इससे (पतत्त्रिणः) नीचे ऊचे उड़नेवाले (वयः) पक्षी (प्रारन्) इधर उधर जाते (चित्) वैसे ही (ते) तेरे गुण हों ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालंकार है जैसे उषा मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, मास, ऋतु, अयन अर्थात् दक्षिणायन और वर्षो का विभाग करती हुई सब प्राणियों के व्यवहार और चेतनता को करती है वैसे ही स्त्री सब गृहकृत्यों को पृथक्-२ करें ॥३॥
विषय
अर्जुनी उषा
पदार्थ
१. (अर्जुनि उषः) = शुभ प्रकाशवाली उषे ! (ते ऋतून् अनु) = तेरी नियमित गतियों के अनुसार, अर्थात् यथासमय तेरे उदित होने पर (दिवः अन्तेभ्यः परि) = आकाश के सुदूर प्रान्तों से (पतत्रिणः वयः) = पंखोंवाले ये पक्षी (चित्) = भी और (द्विपत्) = दो पाँवोंवाले मनुष्य तथा (चतुष्पत्) = चार पाँवोंवाले गौ आदि पशु (प्रारन्) = प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं । २. उषा का प्रकाश होते ही मनुष्य, पशु, पक्षी सभी गतिवाले हो जाते हैं । उषा सबको जागने व कर्म में लगने की प्रेरणा देती है । उषा अर्जुनी - शुभ्र प्रकाशवाली है । उसका अनुसरण करनेवाला व्यक्ति भी इसी प्रकार शुभ्रप्रकाश का अर्जन करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा के होते ही हमें गतिमय जीवनवाला होने का प्रयत्न करना चाहिए ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ २ कान्तिमती कन्या के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (उषः) प्रभातवेला के समान सबको प्रयत्न और पुरुषार्थ में लगानेहारी ! हे (अर्जुनि) सबको गृह के उद्योगों में प्रवृत्त करने वाली ! (ऋतून् अनु ) तेरे नाना आगमनों के साथ साथ (चित् ) जिस प्रकार ऋतुओं के अनुकूल ( पतत्रिणः) आनेवाले (वयः) पक्षीगण और (द्विपत्, चतुष्पद्) दोपाये और चौपाये, नाना मनुष्य और पशुगण,(दिवः अन्तेभ्यः परि ) आकाश के नाना प्रदेशों और भूमि के नाना प्रदेशों से (प्र आरन्) आया करते हैं इसी प्रकार ( ऋतून् अनु ) ऋतुओं के अनुसार (ते) तेरे गृह पर (वयः) नाना ज्ञान विज्ञान से युक्त, परमहंस परिव्राजक गण, (द्विपत्) दोपाये भृत्यजन और (चतुष्पद्) चौपाये, गौ, अश्व आदि पशुगण भी (दिवः अन्तेभ्यः परि) पृथिवी के नाना प्रान्तों से (प्र आरन्) अच्छी प्रकार आवें । ज्ञानी जन उपदेश करें, भृत्यजन सेवा करें और पशुगण सुखसम्पदा बढ़ावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काणव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः ॥
विषय
फिर वह स्त्री कैसी है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्त्रि ! यथा अर्जुनि दिवः अन्तेभ्य ऋतून् संपादयन्ती द्विपत् चतुष्पत् च बोधयन्ती सती उषाः सर्वान् प्राप्नोति यथा अस्याः पतत्रिणः वयः प्रारन् चित् ते गुणा भवन्तु ॥३॥
पदार्थ
हे (स्त्रि)=स्त्री ! (यथा)=जैसे, (अर्जुनि) अर्जयन्ति प्रतियतन्ते ययोषसा सा=उषा के समान अर्जित करते हैं, (दिवः) प्रकाशस्य=प्रकाश के, (अन्तेभ्यः) समीपेभ्योऽहोरात्रेभ्यः=समीप से दिन और रात्रि से, (ऋतून्) वसन्तादीन्= वसन्त आदि ऋतुओं का, (संपादयन्ती)=निर्माण करती हुई, (द्विपत्) द्वौपादौ यस्य मनुष्यादेः सः= मनुष्य आदि (च) =और, (चतुष्पत्) चत्वारः पादा यस्य पश्वादेः सः=पशुओं आदि को, (बोधयन्ती)= बोध कराती, (सती)=हुई, (उषः) उषर्वत्पुरुषार्थनिमित्ते =उषा के समान पुरुषार्थ के निमित्त, (सर्वान्)=सबको, (प्राप्नोति)= प्राप्त होती है। (यथा)=जैसे, (अस्याः)=इसके, (पतत्रिणः) पतनशीलाः=गिरने के स्वभाव के, (वयः) पक्षिणः=पक्षी में, (प्र)=प्रकष्ट रूप से, (आरन्) प्रापयति= प्राप्त करने, (चित्) इव=जैसे, (गुणा)= गुण, (भवन्तु)=होवें ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे उषा मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, मास,ऋतु, अयन (उत्तरायण और दक्षिणायन) और वर्षो का विभाग करती हुई, सब प्राणियों के व्यवहार और चेतनता को विभाजित करती है, वैसे ही स्त्री सब गृह कार्यों को विभाजित करें ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्त्रि) स्त्री ! (यथा)जैसे (अर्जुनि) उषा के समान अर्जित करनेवाले (दिवः) प्रकाश के (अन्तेभ्यः) समीप से दिन और रात्रि से (ऋतून्) वसन्त आदि ऋतुओं का (संपादयन्ती) निर्माण करती हुई, (द्विपत्) मनुष्य आदि (च) और (चतुष्पत्) पशुओं आदि को, (बोधयन्ती) बोध कराती (सती) हुई (उषः) उषा के समान पुरुषार्थ के निमित्त (सर्वान्) सबको (प्राप्नोति) प्राप्त होती है। (यथा) जैसे (अस्याः) इसके (पतत्रिणः) गिरने के स्वभाववाले (वयः) पक्षी में, (प्र) प्रकष्ट रूप से (आरन्) प्राप्त करने (चित्) जैसे (गुणा) गुण (भवन्तु) होवें ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वयः) पक्षिणः (चित्) इव (ते) तव (पतत्रिणः) पतनशीलाः। अत्र पतेरत्रिन्। उ० ४।८०। #अनेनायं सिद्धः (द्विपत्) द्वौपादौ यस्य मनुष्यादेः सः (चतुष्पत्) चत्वारः पादा यस्य पश्वादेः सः। अत्रोभयत्र वाच्छन्दसि इति पदादेशः। (अर्जुनि) अर्जयन्ति प्रतियतन्ते ययोषसा सा। अत्र अर्जप्रतियत्ने धातोः रक्* प्रत्ययो णिलुक् च। ¤उ० ३।५७। अनेनायं सिद्धः। अर्जुनीत्युषर्ना० निघं० १।८। (उषः) उषर्वत्पुरुषार्थनिमित्ते (प्र) (आरन्) प्रापयति (ऋतून्) वसन्तादीन् (अनु) पश्चात् (दिवः) प्रकाशस्य (अन्तेभ्यः) समीपेभ्योऽहोरात्रेभ्यः (परि) सर्वतः ॥३॥ #[उ० ४।६९।] *[उनन् प्र०। सं०।] ¤[अर्जे र्णिलुक् च उ० ३।५८। सं०।] विषयः- पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे स्त्रि ! यथार्जुनि दिवोऽन्तेभ्य ऋतून् संपादयन्ती द्विपचतुष्पच्च बोधयन्ती सत्युषाः सर्वान् प्राप्नोति यथाऽस्याः पतत्रिणो वयः प्रारँश्चित्ते गुणा भवन्तु ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारः। यथोषा मुहूर्त्तप्रहरदिनमासर्त्वयनसंवत्सरान् विभजन्ती सर्वेषां प्राणिनां व्यवहारचेतने विभजति तथा स्त्री सर्वाणि गृहकृत्यानि विभजेत् ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी उषा, मुहूर्त, प्रवर, दिवस, महिना, ऋतू, अयन अर्थात् दक्षिणायन व वर्ष यांचा विभाग करून सर्व प्राण्यांचे व्यवहार व चेतना प्राप्त करवून देते. तसेच स्त्रीने सर्व गृहकृत्यांना पृथक पृथक करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Blessed Dawn, fiery messenger of light and life, may humans and animals as the birds of flight, we pray, rise and reach unto the bounds of heaven in pursuance of the time and seasons of your arrival.
Subject of the mantra
hen how is that woman, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (stri) =woman, (yathā) =like, (arjuni)=earning like dawn, (divaḥ) =of light, (antebhyaḥ)=closely day and night, (ṛtūn)=creating of spring etc. seasons, (saṃpādayantī) =creating, (dvipat) =human etc., (ca) =and, (catuṣpat) =to animals etc., (bodhayantī+satī) =making known, (uṣaḥ)=for effort like dawn, (sarvān) =to all, (prāpnoti) =gets obtained, (yathā) =like, (asyāḥ)=its, (patatriṇaḥ) prone to fall (vayaḥ) =in the bird,, (pra) =exceedingly, (āran) =to obtain, (cit) =like, (guṇā)=qualities, (bhavantu)=be.
English Translation (K.K.V.)
O woman! Just like the one who creates the seasons like dawn from day and night from near the light that earns, like dawn, gives understanding to humans etc. Just like a bird with the nature of its fall, should have the qualities of attaining clearly.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as dawn divides the behaviour and consciousness of all living beings by dividing the time like prahar, day, month, season and ayana (uttarayana and dakshinayana) and years, similarly women should divide all the household chores.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is she (Usha) is taught further in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
3. As after appearance of the mobile, bright and activating dawn, the bipeds, quadrupeds and birds all start moving to and from, in the same manner, O noble woman, thou shouldst also be active and charming like that, on account of thy virtues. (Thou shouldst be able to stir all into activity by thy noble example.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अर्जुनि) अर्जयन्ति प्रतियतन्ते यया उषा सा अत्र अर्जप्रयतने इति धातोः रक् प्रत्ययो णिलुक् च (उणादि ३.५७) अनेनायं सिद्धः । अर्जुनीत्युषर्नामसु ( निघ० १.८) = Dawn.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the Dawn divides the year into the moments, hours, days, months, seasons etc. in the same manner, a wife should divide her domestic duties regularly.
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