ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र चोदीः॒ सखा॑ वृ॒त्रं यद्व॑ज्रिन्वृषकर्मन्नु॒भ्नाः। यद्ध॑ शूर वृषमणः परा॒चैर्वि दस्यूँ॒र्योना॒वकृ॑तो वृथा॒षाट् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । चो॒दीः॒ । सखा॑ । वृ॒त्रम् । यत् । व॒ज्रि॒न् । वृ॒ष॒ऽक॒र्म॒न् । उ॒भ्नाः । यत् । ह॒ । शू॒र॒ । वृ॒ष॒ऽम॒णः॒ । प॒रा॒चैः । वि । दस्यू॑न् । योनौ॑ । अकृ॑तः । वृ॒था॒षाट् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यदिन्द्र चोदीः सखा वृत्रं यद्वज्रिन्वृषकर्मन्नुभ्नाः। यद्ध शूर वृषमणः पराचैर्वि दस्यूँर्योनावकृतो वृथाषाट् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। ह। त्यत्। इन्द्र। चोदीः। सखा। वृत्रम्। यत्। वज्रिन्। वृषऽकर्मन्। उभ्नाः। यत्। ह। शूर। वृषऽमणः। पराचैः। वि। दस्यून्। योनौ। अकृतः। वृथाषाट् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्मात्त्वं ह त्यत्तं वृत्रं पराचैश्चोदीर्दूरे प्रक्षिपसि। तस्माच्छिष्टानां पालने समर्थोऽसि। हे वृषकर्मन्निन्द्र ! यद्यतस्त्वं सखासि तस्मात्सखीन् पालयसि। हे शूर ! यस्त्वं ह खलु दस्यून् पराचैरकृतः पृथक् पृथक् विच्छिनत्सि तस्मात् प्रजारक्षितुं योग्योऽसि। हे वृषमण इन्द्र ! यतस्त्वं सुखान्युभ्नाः प्रपूर्द्धि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि। इन्द्र ! यतस्त्वं वृथाषाडसि तस्माद्योनौ गृहे सर्वान् सुखैरुभ्नाः ॥ ४ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (ह) खलु (त्यत्) तम् (इन्द्र) सद्गुणधारक (चोदीः) शुभे कर्मणि प्रेरयसि (सखा) सुहृत् (वृत्रम्) मेघमिव सुखावरकं शत्रुम् (यत्) यस्मात् (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त (वृषकर्मन्) वृषस्य श्रेष्ठस्येव कर्माणि यस्य सः (उभ्नाः) प्रपूर्द्धि। अत्र व्यत्ययेन श्ना। (यत्) यः (ह) खलु (शूर) निर्भय (वृषमणः) वृषेषु शूरवीरेषु मनो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ (पराचैः) दूरार्थे। अत्र बाहुलकात्परोपदादपि चिधातोर्डसिः प्रत्ययः। (वि) विविधार्थे (दस्यून्) परस्वापहारकान् (योनौ) गृहे। योनिरिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (अकृतः) कृन्तसि (वृथाषाट्) यो वृथाऽनायासेन सहते सः ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यथा सूर्य्यः स्वप्रकाशेन सर्वानानन्द्य मेघमुत्पाद्य वर्षयति, अन्धकारं निवार्य प्रकाशते तथैव सभाद्यध्यक्षो विद्यादिशुभगुणैः सर्वान् सुखयित्वा शरीरात्मबलमुत्पाद्य धर्मशिक्षाभयानि वर्षित्वाऽधर्मान्धकारशत्रून् निवार्य्य राज्ये प्रकाशेत ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह पूर्वोक्त सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रों के धारण करने तथा (इन्द्र) उत्तम गुणों के जाननेवाले सभाध्यक्ष ! जिस कारण (त्वम्) आप (ह) निश्चय करके (त्यत्) उस (वृत्रम्) शत्रु को (पराचैः) दूर (चोदीः) कर देते हो, इसी कारण श्रेष्ठ पुरुषों के धारण और पालन करने को समर्थ हो। हे (वृषकर्मन्) श्रेष्ठ मनुष्यों के समान उत्तम कर्मों के करनेवाले सभाध्यक्ष ! (यत्) जिस कारण आप (सखा) सबके मित्र हो, इसीसे मित्रों की रक्षा करते हो। हे (शूर) निर्भय सेनाध्यक्ष ! (यत्) जो आप (ह) निश्चय करके (दस्यून्) दूसरे के पदार्थों को छीन लेनेवाले दुष्टों को (अकृतः) दूर से (वि) विशेष कर के छेदन करते हो, इससे प्रजा की रक्षा करने के योग्य हो। हे (वृषमणः) शूरवीरों में विचारशील सभाध्यक्ष ! आप जिस कारण सुखों को (उभ्नाः) पूर्ण करते हो, इससे सत्कार करने के योग्य हो। तथा हे सभाध्यक्ष ! जिस कारण आप (वृथाषाट्) सहज स्वभाव से सहन करनेवाले हो, इससे (योनौ) घर में रहनेवाले सब मनुष्यों के सुखों को पूर्ण करते हो ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सबको आनन्दित कर तथा मेघ को उत्पन्न करके वर्षाता है और अन्धकार को निवारण करके अपने प्रकाश को फैलाता है, वैसे ही सभाध्यक्ष विद्यादि उत्तम गुणों से सबको सुखी, शरीर वा आत्मा के बल को सिद्ध, धर्म, शिक्षा, अभय आदि की वर्षा, अधर्मरूपी अन्धकार और शत्रुओं का निवारण करके राज्य में प्रकाशित होवे ॥ ४ ॥
विषय
वासना का प्रारम्भ में ही नाश [Nip the evil in the bud]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सखा) = सच्चे मित्र होते हुए (त्वम्) = आपने (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस प्रसिद्ध यश, धन व ज्ञान को (चोदीः) = अपने भक्तों के प्रति प्रेरित किया है । कब ? (यत्) = जबकि हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! (वृषकर्मन्) = शक्तिशाली व सबपर सुखों की वर्षारूप कर्म करनेवाले प्रभो ! आपके (वृत्रम्) = वृत्र को (उभ्नाः) = हिंसित किया । प्रभुकृपा से हमारा कामरूप शत्रु नष्ट हो जाता है और हमें उज्ज्वल यश, धन व ज्ञान प्राप्त होता है । २. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (वृषमणः) = सबपर सुखों की वर्षा करने की भावना से युक्त मनवाले प्रभो ! (यत् ह) = जब आप निश्चय से (दस्यून्) = हमारा नाश करनेवाले कामादि शत्रुओं को (पराचैः) = दूर गमनों के द्वारा - दूर भगाने के द्वारा (योनौ) = मूल, उत्पत्ति - स्थान में ही (व्यकृतः) = विशेषण छिन्न - भिन्न कर देते हैं, तब आप हमें यश, धन व ज्ञान प्राप्त कराते हैं । ३. हे प्रभो ! आप (वृथाषाट्) = अनायास ही इन कामादि शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं । मैं तो अपनी पूरी शक्ति से भी इन कामादि को न कुचल सकता ; आपके मित्र हो जाने पर इस वृत्र का विनाश हुआ करता है । आप इन वासनाओं को मूल में ही विनष्ट कर देते हैं [Nip evil in the bud] और आपकी इस कृपा से मेरा यश, धन व ज्ञान बढ़ता है ।
भावार्थ
भावार्थ - वे प्रभु ‘वज्री, वृषकर्मा, शूर, वृषमण व वृथाषाट्’ हैं । वे हमारे मित्र हैं और हमारे शत्रुभूत वृत्र का विनाश करते हैं ।
विषय
दुष्टों का दमन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! ( ह ) निश्चय से (त्वम्) तू ही (त्यत्) उस दूरस्थ (वृत्रम्) मेघ के समान उमड़ते हुए शत्रु को भी ( पराचैः चोदीः ) दूर से ही परास्त कर । हे ( वृषकर्मन् ) वर्षणशील मेघ के समान प्रजाओं पर सुखों और शत्रुओं पर शस्त्र अस्त्रों की वर्षा करने हारे ! हे (वज्रिन) उत्तम शस्त्र अस्त्रों से युक्त ! तू (सखा) सबका मित्र है । हे ( शूर ) शूरवीर ! हे ( वृषमनः ) शूरवीरों के समान उदारचित्त वाले ! अथवा शूरों की व्यवस्था को जानने हारे ! उनकी वृद्धि में दत्तचित्त ! ( यत् ह ) जिससे तू ( वृथाषाट् ) अनायास ही शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ होकर ( दस्यून् ) प्रजा पीड़कों को ( योनौ ) उनके घर में ही ( वि अकृतः ) विविध उपायों से छेदता भेदता है, इसलिये तू आदर करने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह पूर्वोक्त सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे वज्रिन् इन्द्र ! यस्मात् त्वं ह त्यत् तं वृत्रं पराचैः चोदीः दूरे प्रक्षिपसि। तस्मात् शिष्टानां पालने समर्थः असि। हे वृषकर्मन् इन्द्र ! यत् यतः त्वं सखा असि तस्मात् सखीन् पालयसि। हे शूर ! यः त्वं ह खलु दस्यून् पराचैः अकृतः पृथक् पृथक् विच्छिनत्सि तस्मात् प्रजाः अक्षितुं योग्यः असि। हे वृषमण इन्द्र ! यः त्वं सुखानि उभ्नाः प्रपूर्द्धि तस्मात् सत्कर्त्तव्यः असि। इन्द्र ! यः त्वं वृथाषाट् असि तस्मात् योनौ गृहे सर्वान् सुखैः उभ्नाः ॥४॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त=प्रशस्त शस्त्रों के समूह से युक्त (इन्द्र) सद्गुणधारक= सद्गुणों के धारक ! (यस्मात्)=क्योंकि, (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः=तुम सभा आदि के अध्यक्ष, (ह) खलु=निश्चित रूप से ही, (त्यत्) तम्=उस, (वृत्रम्)=बादल को, (पराचैः) दूरार्थ=दूर रख के, (चोदीः) शुभे कर्मणि प्रेरयसि=शुभ कामों में प्रेरित करते हो, (दूरे)=दूर,(प्रक्षिपसि)=फेंक देते हो। (तस्मात्)=इसलिये, (शिष्टानाम्)= शिष्ट लोगों के, (पालने)=रक्षण में, (समर्थः) = समर्थ, (असि)=हो। हे (वृषकर्मन्) वृषस्य श्रेष्ठस्येव कर्माणि यस्य सः=श्रेष्ठ कर्मोंवाले, और (इन्द्र) सद्गुणधारक= सद्गुणों को धारण करनेवाले ! (यत्) यस्मात्=क्योंकि, (त्वम्)= तुम, (सखा) सुहृत्=मित्र, (असि)=हो, {वृत्रम्} मेघमिव सुखावरकं शत्रुम्=बादल के समान सुख को ढकनेवाले शत्रु को, (तस्मात्)= इसलिये, (सखीन्)=मित्रों का, (पालयसि)=रक्षण करते हो। हे (शूर) निर्भय= निर्भय ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (ह) खलु=निश्चित रूप से, {वि} विविधार्थे= विविध प्रकार के, (दस्यून्) परस्वापहारकान् पराचैः=दूसरों की सम्पत्ति को चुरानेवाले दस्युओं को, (अकृतः) कृन्तसि=छेदन करते हो, (पृथक्-पृथक्)= पृथक्-पृथक्, (विच्छिनत्सि) =विभाजित कर देते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (प्रजाः)= प्रजा के, (अक्षितुम्) = क्षय को बचाने के, (योग्यः)= योग्य, (असि)=हो। हे (वृषमणः) वृषेषु शूरवीरेषु मनो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ= सदाचारी, शूर और वीरता के विशेष ज्ञानवाले ! (इन्द्र) सद्गुणधारक सद्गुणों को धारण करनेवाले, (यः)=जो, (त्वं)=तुम, (सुखानि)=सुखों को, (उभ्नाः) प्रपूर्द्धि=बढ़ाते हो, (तस्मात्) =इसलिये, (सत्कर्त्तव्यः)=आदर के योग्य, (असि)=हो। हे (इन्द्र) सद्गुणधारक= सद्गुणो को धारण करनेवाले ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (वृथाषाट्) यो वृथाऽनायासेन सहते सः=वृथा आसानी से सहन करनेवाले, (असि)=हो, (तस्मात्)=इसलिये, (योनौ) गृहे=घर में, (सर्वान्)=समस्त, (सुखैः)=सुखों को, (उभ्नाः) प्रपूर्द्धि=भर दीजिये॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सबको आनन्दित कर वर्षा कराता है, अन्धकार को निवारण करके अपने प्रकाश को फैलाता है, वैसे ही सभा आदि का अध्यक्ष विद्यादि शुभ गुणों से सबको सुखी करके, शरीर और आत्मा के बल को उत्पन्न करके धर्म, शिक्षा और अभय की वर्षा करके अधर्मरूपी अन्धकार और शत्रुओं का निवारण करके राज्य को प्रकाशित करना चाहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (वज्रिन्) प्रशस्त शस्त्रों के समूह से युक्त और (इन्द्र) सद्गुणों के धारक ! (यस्मात्) क्योंकि, (त्वम्) तुम सभा आदि के अध्यक्ष, (ह) निश्चित रूप से ही (त्यत्) उस (वृत्रम्) बादल को (पराचैः) दूर रख के (चोदीः) शुभ कामों में प्रेरित करते हो और (दूरे) दूर(प्रक्षिपसि) फेंक देते हो। (तस्मात्) इसलिये (शिष्टानाम्) शिष्ट लोगों के (पालने) रक्षण में (समर्थः) समर्थ (असि) हो। हे (वृषकर्मन्) श्रेष्ठ कर्मोंवाले और (इन्द्र) सद्गुणों को धारण करनेवाले ! (यत्) क्योंकि (त्वम्) तुम (सखा) मित्र (असि) हो, {वृत्रम्} बादल के समान सुख को ढकनेवाले शत्रु से (तस्मात्) इसलिये (सखीन्) मित्रों का (पालयसि) रक्षण करते हो। हे (शूर) निर्भय ! (यः) जो (त्वम्) तुम (ह) निश्चित रूप से {वि} विविध प्रकार के, (दस्यून्) दूसरों की सम्पत्ति को चुरानेवाले दस्युओं का (अकृतः) छेदन करते हो और (पृथक्-पृथक्) पृथक्-पृथक् (विच्छिनत्सि) टुकड़े कर देते हो, (तस्मात्) इसलिये (प्रजाः) प्रजा के (अक्षितुम्) क्षय को बचाने के (योग्यः) योग्य (असि) हो। हे (वृषमणः) सदाचारी, शूर और वीरता के विशेष ज्ञानवाले ! हे (इन्द्र) सद्गुणों को धारण करनेवाले, (यः) जो (त्वं) तुम (सुखानि) सुखों को (उभ्नाः) बढ़ाते हो (तस्मात्) इसलिये(सत्कर्त्तव्यः) आदर के योग्य (असि) हो। हे (इन्द्र) सद्गुणो को धारण करनेवाले ! (यः) जो (त्वम्) तुम (वृथाषाट्) आसानी से सहन करनेवाले (असि) हो, (तस्मात्) इसलिये (योनौ) घर में (सर्वान्) समस्त (सुखैः) सुखों को (उभ्नाः) भर दीजिये॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (ह) खलु (त्यत्) तम् (इन्द्र) सद्गुणधारक (चोदीः) शुभे कर्मणि प्रेरयसि (सखा) सुहृत् (वृत्रम्) मेघमिव सुखावरकं शत्रुम् (यत्) यस्मात् (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त (वृषकर्मन्) वृषस्य श्रेष्ठस्येव कर्माणि यस्य सः (उभ्नाः) प्रपूर्द्धि। अत्र व्यत्ययेन श्ना। (यत्) यः (ह) खलु (शूर) निर्भय (वृषमणः) वृषेषु शूरवीरेषु मनो विज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ (पराचैः) दूरार्थे। अत्र बाहुलकात्परोपदादपि चिधातोर्डसिः प्रत्ययः। (वि) विविधार्थे (दस्यून्) परस्वापहारकान् (योनौ) गृहे। योनिरिति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (अकृतः) कृन्तसि (वृथाषाट्) यो वृथाऽनायासेन सहते सः ॥४॥ विषयः-पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्मात्त्वं ह त्यत्तं वृत्रं पराचैश्चोदीर्दूरे प्रक्षिपसि। तस्माच्छिष्टानां पालने समर्थोऽसि। हे वृषकर्मन्निन्द्र ! यद्यतस्त्वं सखासि तस्मात्सखीन् पालयसि। हे शूर ! यस्त्वं ह खलु दस्यून् पराचैरकृतः पृथक् पृथक् विच्छिनत्सि तस्मात् प्रजारक्षितुं योग्योऽसि। हे वृषमण इन्द्र ! यतस्त्वं सुखान्युभ्नाः प्रपूर्द्धि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि। इन्द्र ! यतस्त्वं वृथाषाडसि तस्माद्योनौ गृहे सर्वान् सुखैरुभ्नाः ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यथा सूर्य्यः स्वप्रकाशेन सर्वानानन्द्य मेघमुत्पाद्य वर्षयति, अन्धकारं निवार्य प्रकाशते तथैव सभाद्यध्यक्षो विद्यादिशुभगुणैः सर्वान् सुखयित्वा शरीरात्मबलमुत्पाद्य धर्मशिक्षाभयानि वर्षित्वाऽधर्मान्धकारशत्रून् निवार्य्य राज्ये प्रकाशेत ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी जाणावे की जसा सूर्य आपल्या प्रकाशाने सर्वांना आनंदित करतो व मेघाला उत्पन्न करून वृष्टी करवितो आणि अंधकाराचे निवारण करतो व आपला प्रकाश पसरवितो. तसेच सभाध्यक्षानी विद्या इत्यादी उत्तम गुणांनी सर्वांना सुखी करून शरीर व आत्म्याचे बल सिद्ध करावे. धर्म, शिक्षण, निर्भयता इत्यादींची वृष्टी करून अधर्मरूपी अंधकार व शत्रूंचे निवारण करून राज्यात प्रसिद्ध व्हावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
You only, for sure, Indra, are the universal friend, wielder of the thunderbolt, and hero of vast operation who take on the cloud of darkness and want, overthrow the demon of want and darkness and shower the blessings of plenty and fulfilment and who, O brave one, generous at heart, by nature and instinct nip evil and wickedness in the bud itself.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly or the Commander in-Chief of the Army etc.). O wielder of the thunderbolt or strong weapons, as thou throwest away an enemy who is like the cloud the coverer of happiness, therefore thou art able to protect the righteous. O doer of noble deeds, because thou art a true friend, thou protectest or safe-guardest thy friends. O fearless hero, because thou cuttest down all thieves and robbers, therefore thou art able to protect thy subjects. O lover of heroic persons and their knower, as thou fillest all with happiness, therefore, thou art worthy of respect and honour. As thou endurest all without much difficulty, therefore thou fillest all at home with great delight.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृत्रम्) मेघमिव सुखावरकं शत्रुम् । = An enemy covering happiness like a cloud. (योनौ) गृहे । योनिरिति गृहनाम (निघ० ३.४ ) = At home.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun gladdens all by his light and is the cause of rain by producing the cloud and as he illumines all by dispelling darkness, in the same manner, the President of the Assembly should shine in his kingdom by gladdening all by his knowledge and other virtues, by creating physical and spiritual force in all and by raining down knowledge Dharma (righteousness) and fearlessness and by setting aside all un-righteousness, darkness (of ignorance) and enemies.
Subject of the mantra
Then what kind of that aforesaid President of the Assembly should be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vajrin)= equipped with a vast array of weapons and, (indra) =bearer of virtues, (yasmāt) =because, (tvam) =you are President of the Assembly etc., (ha) =definitely, (tyat) =to that, (vṛtram) =cloud, (parācaiḥ) =of keeping away, (codīḥ)= inspire in good deeds and, (dūre) =away, (prakṣipasi) =throw away, (tasmāt) =therefore, (śiṣṭānām) =of gentlemen, (pālane) =in protection, (samarthaḥ) =capable, (asi) =are, (He)=O! (vṛṣakarman)=those with noble deeds and, (indra)= those who possess virtues, (yat) =because, (tvam) =you, (sakhā) =friend, (asi) =are, {vṛtram}=from the enemy who covers happiness like a cloud, (tasmāt) =therefore, (sakhīn) =of friends, (pālayasi) =you are protector, (He)=O! (śūra) =fearless, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (ha) =definitely, {vi} =of various types, (dasyūn) =of bandits who steal other people's property, (akṛtaḥ)= pierce and, (pṛthak-pṛthak) =separately, (vicchinatsi)=break into pieces, (tasmāt) =therefore, (prajāḥ) =of people, (akṣitum)= to protect against losses, (yogyaḥ) =capable, (asi) =are, (He)=O! he (vṛṣamaṇaḥ)= virtuous, brave and having special knowledge of bravery, (He)=O! (indra)=those who possess virtues, (yaḥ)=that, (tvaṃ) =you, (sukhāni) =to delights, (ubhnāḥ) =enhance, (tasmāt) =therefore, (satkarttavyaḥ) =worthy of respect, (asi) =are, (He)=O! (indra)= those who possess virtues, (yaḥ) =that, (tvam) =you, (vṛthāṣāṭ)=who easily toleras, (asi) =are, (tasmāt)=therefore, (yonau) =in house, (sarvān) =all, (sukhaiḥ) =to delights, (ubhnāḥ) =enhance.
English Translation (K.K.V.)
O one equipped with a host of elaborate weapons and possessor of virtues! Because, you, the President of the Assembly etc., definitely keep that cloud away and inspire it in good deeds and throw it away. Therefore, be able to protect the friendly people. O fearless! Because you certainly pierce and cut into pieces various types of bandits who steal the property of others, you are therefore capable of saving the people from destruction. O virtuous person with special knowledge of courage and bravery and possessor of virtues! you are worthy of respect because you enhance happiness. You can tolerate easily. Therefore fill your house with all the happiness.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as the Sun makes everyone happy with its light and spreads its light through human beings, removes darkness and spreads its light, in the same way, the President of the Assembly, by making everyone happy with auspicious virtues like knowledge etc., by generating strength of body and soul, promotes righteousness and education. And by showering fearlessness the kingdom should be illuminated by removing the darkness of unrighteousness and enemies.
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