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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 66/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    तं व॑श्च॒राथा॑ व॒यं व॑स॒त्यास्तं॒ न गावो॒ नक्ष॑न्त इ॒द्धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । वः॒ । च॒राथा॑ । व॒यम् । व॒स॒त्या अस्त॑म् । न । गावः॑ । नक्ष॑न्ते । इ॒द्धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वश्चराथा वयं वसत्यास्तं न गावो नक्षन्त इद्धम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। वः। चराथा। वयम्। वसत्या अस्तम्। न। गावः। नक्षन्ते। इद्धम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 66; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यः सभेशश्चराथा वसत्या गावोऽस्तं न गृहमिव नक्षन्ते गाव स्वर्दृशीक इद्धं नवन्तेव सिन्धुर्नीचीः क्षोदो न वः प्रैनोत् प्राप्नोति तं वयं सेवेमहि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तम्) पूर्वोक्तम् (वः) युष्मभ्यम् (चराथा) चराथया। अत्र चरधातो बाहुलकादौणादिकोऽथप्रत्ययः प्रत्ययादेर्दीर्घः सुपां सुलुगित्याकारादेशश्च। (वयम्) अनुष्ठातारः (वसत्या) वसन्ति यस्यां तया (अस्तम्) गृहम् (न) इव (गावः) पालिता धेनवः (नक्षन्ते) प्राप्नुवन्ति (इद्धम्) दीप्तम् (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (नीचीः) निम्नदेशे (ऐनोत्) प्राप्नोति। अत्रेण् धातोर्व्यत्ययेन श्नुः। (नवन्त) गच्छन्ति। नवत इति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) (गावः) किरणाः (स्वः) आदित्ये (दृशीके) दर्शके। अत्र दृशधातोर्बाहुलकादौणादिक ईकन् प्रत्ययः किच्च ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। य एवं जगदीश्वरं संसेव्य विद्युतं वा साध्नुवन्ति तान् यथा गावो गृहं किरणाः सूर्य्यं च गच्छन्ति तथैव सुखानि प्राप्नुवन्ति। यथा मनुष्यः समुद्रं प्राप्य नानाकार्य्याण्यलंकरोति तथैव सज्जनैरन्तर्यामिणमुपास्य विद्युद्विद्यां वा साध्य सर्वे कामा अलंकर्त्तव्याः ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरस्याग्नेश्च गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर पूर्वोक्त कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जो (चराथा) चररूप (वसत्या) वास करने योग्य पृथिवी के सह वर्त्तमान (गावः) गौ (न) जैसे (अस्तम्) घर को (नक्षन्ते) प्राप्त होती हैं, जैसे (गावः) किरण (स्वर्दृशीके) देखने के हेतु व्यवहार में (इद्धम्) सूर्य्य को (नवन्ते) प्राप्त होते हैं (न) जैसे (सिन्धुः) समुद्र (नीचीः) नीचे के (क्षोदः) जल को प्राप्त होता है, वैसे (वः) तुम लोगों को (प्रैनोत्) प्राप्त होता है, उसी की सेवा हम लोग करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सभापति आदि इस प्रकार परमेश्वर का सेवन और विद्युत् अग्नि को सिद्ध करते हैं, उनको जैसे गौ, घर और किरण सूर्य को प्राप्त होते हैं और जैसे मनुष्य समुद्र को प्राप्त होके नाना प्रकार के कामों को सुशोभित (सिद्ध) करता है, वैसे ही सज्जन पुरुषों को उचित है कि अन्तर्य्यामी परमेश्वर की उपासना तथा विद्युत् विद्या को यथावत् सिद्ध करके अपनी सब कामनाओं को पूर्ण करें ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर और अग्नि के गुणों का वर्णन होने इस सूक्त की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥

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    विषय

    स्वर्दृशीक प्रभु

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस परमात्मा को जो (इद्धम्) = ज्ञानज्योति से सर्वतः दीप्त हैं, (वयम्) = हम उसी प्रकार प्राप्त होते हैं (न) = जैसे (गावः) = गौएँ (अस्तम्) = घर को । किस साधन से प्राप्त होते हैं - इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (वः) = तुम्हारे (चराथा) = [चरन्त्या पश्वाहुत्या - निरु० १०/२१] अत्यन्त तीव्र गतिवाले काम - क्रोधादि पशुओं की आहुति से, अर्थात् सामान्यतः मनुष्यों में जो काम - क्रोधादि पाशविक वृत्तियों का निवास है, जो वृत्तियाँ मनुष्य को अत्यन्त अशान्त बना देती हैं, इनकी आहुति देने से । काम - क्रोधादि के भस्मीकरण से ही हम उस प्रभु को प्राप्त करते हैं । [ख] (वसत्या) = [निवसन्त्यौषधाहुत्या - निरु०] उत्तम निवास के कारणभूत यव व व्रीहि [जौ - चावल] आदि औषधों [व्रीहियवौ दिवस्पुत्रौ अमृत्यौ] की आहुति से, अर्थात् प्रभु - प्राप्ति के लिए हम (व्रीहि) = यवादि सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हैं । इस प्रकार प्रभु प्राप्ति के लिए दो बातें आवश्यक है - [क] काम - क्रोधादि को भस्म करना और [ख] जौ - चावल आदि सात्त्विक अन्नों का सेवन करना । २. जब हम इस प्रकार प्रभु को प्राप्त करते हैं तब वे प्रभु (सिन्धुः न क्षोदः) = स्यन्दनशील जल की भाँति (नीचीः) = [नितरामञ्चतीः] अत्यन्त उद्गगत होती हुई ज्ञान की ज्वालाओं को (प्र ऐनोत्) = हमारे हृदयोदेशों में प्रेरित करते हैं । जिस प्रकार जलधारा का प्रवाह स्वाभाविक होता है, उसी प्रकार हममें ज्ञानधाराओं का प्रवाह स्वाभाविक हो जाता है । वस्तुतः (गावः) = सम्पूर्ण ज्ञानरश्मियाँ (स्वर्दृशीके) = आदित्य के समान दर्शनीय [आदित्यवर्णम्] प्रभु में (नवन्त) = संगत होती हैं । सम्पूर्ण ज्ञानरश्मियाँ उस प्रभु में हैं और जो भी प्रभु को प्राप्त करता है, वह इन ज्ञानरश्मियों से अपने को दीप्त करनेवाला बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए काम - दहन व सात्त्विक अन्न सेवन आवश्यक हैं । वे प्रभु हमें अपनी ज्ञानरश्मियों से दीप्त करते हैं ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त के प्रारम्भ में कहते हैं कि वे प्रभु हमारे अद्भुत धन हैं [१] । वे ही क्षेम के धारक हैं [२] । दुर्लभ दीप्तिवाले हैं [३] । हमारी न्यूनताओं को दूर करते हैं और [४] हमें ज्ञान की किरणों को प्राप्त कराते हैं [५] । वे प्रभु उपासकों में ही प्रादुर्भूत होते हैं -

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as cows return to their stall, just as rays of the sun withdraw to the sun, just as streams and rivers flow down to the sea, so may we all, moving as well as settled people, attain to you, Agni, light of the sun, and the Lord Almighty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni) is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As cows hasten to their stall, so let us approach President of the Assembly who is bright like the fire with all over movable and immovable property. As the flowing water gives movement to the water down words, so let the commander of the Army send his sub-ordinates to different places. As the rays of the sun commingle which is visible in the sky, so let learned men approach the President of the Assembly who is charming and destroyer of enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अस्तम् ) गृहम् = House. अस्तमितिगृहनाम (निघ० ३.४ ) (क्षोद:) जलम् क्षोद इति उदकनाम (निघ० १.१२ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are Luptomapama and Upamalankars in the Mantra. Those who thus adore God, enjoy happiness as cows go to their stall and rays to the sun. As a man can accomplish many works by going to the sea, in the same manner, men should get their desire fulfilled by having communion with Omnipresent God and by having correct knowledge of the science of electricity.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as in this also there is the mention of God and Agni (fire etc.). Here ends the sixty-sixth hymn of the first Mandala of the Rigveda.

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