ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 78/ मन्त्र 5
अवो॑चाम॒ रहू॑गणा अ॒ग्नये॒ मधु॑म॒द्वचः॑। द्यु॒म्नैर॒भि प्र णो॑नुमः ॥
स्वर सहित पद पाठअवो॑चाम । रहू॑गणाः । अ॒ग्नये॑ । मधु॑ऽमत् । वचः॑ । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवोचाम रहूगणा अग्नये मधुमद्वचः। द्युम्नैरभि प्र णोनुमः ॥
स्वर रहित पद पाठअवोचाम। रहूगणाः। अग्नये। मधुऽमत्। वचः। द्युम्नैः। अभि। प्र। नोनुमः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 78; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! रहूगणा भवन्तो यथा द्युम्नैरग्नये मधुमद्वचो ब्रुवते तथा वयमवोचाम। यथा वयं तमभिप्रणोनुमस्तथा यूयमपि नमत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(अवोचाम) उच्याम (रहूगणाः) रहवोऽधर्मत्यागिनो गणाः सेविता यैस्ते (अग्नये) विदुषे सभाध्यक्षाय (मधुमत्) मधुरसवत् (वचः) वचनम् (द्युम्नैः) उत्तमैर्यशोभिः (अभि) (प्र) (नोनुमः) भृशन्नमस्कुर्म्मः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्धर्म्यकीर्त्तिमतामेव प्रशंसा कार्य्या नेतरेषाम् ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्ताऽर्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् लोगो ! (रहूगणाः) धर्मयुक्त पापियों के समूह के त्याग करनेवाले तुम जैसे (द्युम्नैः) उत्तम कीर्त्ति के साथ वर्त्तमान (अग्नये) विद्वान् के लिये (मधुमत्) मिष्ट (वचः) वचन बोलते हो, वैसे हम भी (अवोचाम) बोला करें। जैसे हम लोग उसको (अभि प्र णोनुमः) नमस्कारादि से प्रसन्न करते हैं, वैसे तुम भी किया करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को अत्यावश्यक है कि धर्मयुक्त कीर्त्तिवाले मनुष्यों ही की प्रशंसा करें, अन्य की नहीं ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के गुणकथन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
मधुर वचन
पदार्थ
१. (रहूगणाः) = [रह त्यागे] त्याग की वृत्तिवाले अथवा ज्ञानज्योति से वासनाओं का परिहार करनेवाले हम (अग्नये) = उस अग्रणी प्रभु की प्राप्ति के लिए (मधुमत् वचः) = अत्यन्त माधुर्य से युक्त वचन (अबोचाम) = बोलते हैं । वेद में प्रभु का यह बारम्बार उपदेश है कि ‘इस संसार में मधुर वाणी को ही बोलना’, ‘मधुर ही बनना’, तुम्हें “भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः” भद्रवचन बोलने के लिए ही भेजा गया है, अतः प्रभु के इस आदेश को पालकर हम प्रभु के प्रिय बनते हैं । २. (द्युम्नैः) = यश को प्राप्त करने के हेतु से हम (अभिप्रणोनुमः) = प्रातः - सायं प्रभु का खुब ही उपासन करते हैं । प्रभु का आराधन हमें पवित्रता देगा, हमें यशस्वी बनाएगा ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम मधुर शब्द ही बोलें । प्रभु हमें यश व पवित्रता प्राप्त कराएंगे ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि प्रभु का उपासक गोतम प्रशस्तेन्द्रिय बनता है [१] । यह उपासक धन प्राप्त करता है [२] । इसे शक्ति मिलती है [३] । यह वासनाओं का विनाश करनेवाला होता है [४] । प्रभु - प्राप्ति के लिए हम मधुर वचनों को ही अपनाएँ, सब द्युम्नों की प्राप्ति प्रभुकृपा से ही तो होगी [५] । ज्ञानज्योति के प्रसार से हमारी राजस् भावनाएँ दूर हों, इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
राजा, विद्वान्, परमेश्वर से प्रार्थना ।
भावार्थ
( रहूगणाः) अधर्म को त्यागने वाले और शत्रु से अपने देश को छुडा लेने वाले अथवा अति वेग से शत्रु पर आक्रमण करने वाले हम सदा (अग्नये) अग्नि के समान तेजस्वी अग्रणी वीर नायक के आदर और हित के लिये ( मधुमत् ) मधुर और मनन योग्य, विचार पूर्ण, हर्षजनक ( वचः ) वचन ( अवोचाम) कहा करें। और (द्युम्नैः ) उत्तम गुण प्रकाशक स्तुति-वचनों से ( अभि प्र नोनुम ) उसके गुणों को सर्वत्र प्रकाशित करें । इति षड्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ गोतम राहूगण ऋषिः ॥ ऋग्नर्देवता ॥ १-५ गायत्री छन्दः ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वांसः ! रहूगणा भवन्तः यथा द्युम्नैः अग्नये मधुमत् वचः ब्रुवते तथा वयम् अवोचाम। यथा वयं तम् अभि प्र नोनुमः तथा यूयम् अपि नमत ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (विद्वांसः)=विद्वानों ! (रहूगणाः) रहवोऽधर्मत्यागिनो गणाः सेविता यैस्ते=अधर्म को त्यागनेवालों का अनुसरण करनेवाले, (भवन्तः)=आप लोग, (यथा)=जैसे, (द्युम्नैः) उत्तमैर्यशोभिः= उत्तम यशों के द्वारा, (अग्नये) विदुषे सभाध्यक्षाय= सभा के अध्यक्ष विद्वान् के लिये, (मधुमत्) मधुरसवत्=शहद के रस के समान मधुर, (वचः) वचनम्= वाणी, (ब्रुवते)=बोलते हो, (तथा)=वैसे ही, (वयम्)=हम, (अवोचाम) उच्याम=बोलें, (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (तम्)=उसको, (अभि)=हर ओर से, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (नोनुमः) भृशन्नमस्कुर्म्मः= विस्तृत रूप से नमन करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (नमत)= नमन करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा धर्म से प्रसिद्ध कार्यों की ही प्रशंसा करना चाहिए, अन्य की नहीं ॥५॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के गुण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वांसः) विद्वानों ! (रहूगणाः) अधर्म को त्यागनेवालों का अनुसरण करनेवाले (भवन्तः)आप लोग, (यथा) जैसे (द्युम्नैः) उत्तम यशों के द्वारा (अग्नये) सभा के अध्यक्ष विद्वान् के लिये (मधुमत्) मधु के रस के समान मधुर (वचः) वाणी (ब्रुवते) बोलते हो, (तथा) वैसे ही (वयम्) हम (अवोचाम) बोलें। (यथा) जैसे (वयम्) हम (तम्) उसको (अभि) हर ओर से (प्र) प्रकृष्ट और (नोनुमः) विस्तृत रूप से नमन करते हैं, (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (नमत) नमन करो ॥५॥
संस्कृत भाग
अवो॑चाम । रहू॑गणाः । अ॒ग्नये॑ । मधु॑ऽमत् । वचः॑ । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्धर्म्यकीर्त्तिमतामेव प्रशंसा कार्य्या नेतरेषाम् ॥५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्ताऽर्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी धर्मयुक्त कीर्ती असणाऱ्या माणसांचीच प्रशंसा करावी, इतरांची नव्हे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We all, free from sin and evil, offer honey-sweet songs of praise and celebration in honour of Agni with all our knowledge and brilliance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (learned person ) is taught further in the fifth Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, we utter sweet words to the highly educated president of the Assembly as you who have always served righteous men, who have given up all evil do along with good reputation. As we praise him repeatedly, so you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रहूगरणा:) रहवः-अधर्मत्यागिन: गरगा: सेविता यैस्ते । = Who have served the band of righteous persons that have risen above evil. (अस्मै अग्नये) विद्वेष सभाध्यक्षाय = For this learned President of the Assembly.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should praise only those who have good reputation full of righteousness and not others.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn as it deals with God and the attributes of learned persons (as before).Here ends the commentary on the Seventy-eighth hymn or 26th Varga of the first Mandala of the Rigveda.
Subject of the mantra
Then, what kind of scholar should he be? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvāṃsaḥ) =scholars, (rahūgaṇāḥ)= those who follow those who renounce unrighteousness (bhavantaḥ) =all of you, (yathā) =like, (dyumnaiḥ)=through excellent fames, (agnaye)= for the scholar presiding over the Assembly, (madhumat)= sweet like honey, (vacaḥ) =speech, (bruvate) =speak, (tathā) =similarly, (vayam) =we, (avocāma) =should speak, (yathā) =like, (vayam) =we, (tam) =to him, (abhi) = from all sides, (pra)=in eminent way and, (nonumaḥ) =bow down in elaborate way, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (namata) =bow down.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! You who follow those who have renounced unrighteousness, we should speak in the same way, just as you speak sweet words like honey to the scholar presiding over the Assembly through excellent fames. Just as we bow down to him from all sides in an eminent and elaborate way, in the same way all of you should also bow down to him.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. People should praise only those works which are famous in righteousness and not others. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Since the qualities of God and scholars are described in this hymn, the interpretation of this hymn should be consistent with the interpretation of the previous hymn.
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