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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वैश्वा॑नर॒ तव॒ तत्स॒त्यम॑स्त्व॒स्मान्रायो॑ म॒घवा॑नः सचन्ताम्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वैश्वा॑नर । तव॑ । तत् । स॒त्यम् । अ॒स्तु॒ । अ॒स्मान् । रायः॑ । म॒घवा॑नः । स॒च॒न्ता॒म् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानर तव तत्सत्यमस्त्वस्मान्रायो मघवानः सचन्ताम्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानर। तव। तत्। सत्यम्। अस्तु। अस्मान्। रायः। मघवानः। सचन्ताम्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.९८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 98; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविद्वांसौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे वैश्वानर यत्तव सत्यं शीलमस्ति तदस्मान् प्राप्तमस्तु। यन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी द्यौश्च मामहन्तां तदैश्वर्यमपि नोऽस्मान् प्राप्तमस्तु। मघवानो यान्रायः सचन्तां तान् वयमुताऽपि प्राप्नुयाम ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (वैश्वानर) सर्वेषु मनुष्येषु विद्याप्रकाशक (तव) (तत्) (सत्यम्) व्रतम् (अस्तु) प्राप्तं भवतु (अस्मान्) (रायः) विद्याराजश्रियः (मघवानः) मघं परमपूज्यं विद्याधनं विद्यते येषां विदुषां राज्ञां वा ते (सचन्ताम्) समवयन्तु (तत्) (नः) अस्मान् (मित्रः) सुहृत् (वरुणः) उत्तमगुणस्वभावो मनुष्यः (मामहन्ताम्) (अदितिः) विश्वेदेवाः सर्वे विद्वांसः (सिन्धुः) अन्तरिक्षस्थो जलसमूहः (पृथिवी) भूमिः (उत) (द्यौः) विद्युत्प्रकाशः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    मनुष्या ईश्वरस्य विदुषां च सकाशात्सत्यं शीलं धर्म्याणि धनानि धार्मिकान् मनुष्यान् सक्रियाः पदार्थविद्याश्च पुरुषार्थेन प्राप्य सर्वसुखाय प्रयतेरन् ॥ ३ ॥अत्रेश्वराग्निविद्वत्संबन्धिकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोद्धव्या ॥इत्यष्टानवतितमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर और विद्वान् कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वैश्वानर) सब मनुष्यों में विद्या का प्रकाश करनेहारे ईश्वर वा विद्वान् ! जो (तव) आपका (सत्यम्) सत्यशील है (तत्) वह (अस्मान्) हम लोगों को प्राप्त (अस्तु) हो, जो (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त स्वभाववाला मनुष्य (अदितिः) समस्त विद्वान् जन (सिन्धुः) अन्तरिक्ष में ठहरनेवाला जल (पृथिवी) भूमि और (द्यौः) बिजुली का प्रकाश (मामहन्ताम्) उन्नति देवे (तत्) वह ऐश्वर्य्य (नः) हम लोगों को प्राप्त हो, वा (मघवानः) जिनके परम सत्कार करने योग्य विद्या धन हैं वे विद्वान् व राजा लोग जिन (रायः) विद्या और राज्य श्री को (सचन्ताम्) निःसन्देह युक्त करें, उनको हम लोग (उत) और भी प्राप्त हों ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर और विद्वानों की उत्तेजना से सत्यशील धर्मयुक्त धन धार्मिक मनुष्य और क्रिया कौशलयुक्त पदार्थविद्याओं को पुरुषार्थ से पाकर समस्त सुख के लिये अच्छे प्रकार यत्न करें ॥ ३ ॥इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों से सम्बन्ध रखनेवाले कर्म के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह ९८ अठ्ठानवाँ सूक्त और ६ छठा वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    यज्ञोपयोगी धन

    पदार्थ

    १. हे (वैश्वानर) = सब नरों के हितकारी प्रभो ! तब आपका (तत्) = यह वैश्वानर (नाम सत्यं अस्तु) = सत्य हो , अर्थात् हम भी सचमुच आपके द्वारा हित को प्राप्त करनेवाले हों । इस हित के लिए ही (अस्मान्) = हमें (मघवानः) = यज्ञोंवाले (रायः) = ऐश्वर्य (सचन्ताम्) = प्राप्त हों । हमें धन प्राप्त हों और हम उन धनों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले हों । वस्तुतः मानवहित का सर्वोत्तम साधन धनों का यज्ञों में विनियोग ही है । इस प्रकार ये धन विलास का कारण नहीं बनते और हम विनाश से बच जाते हैं । प्रभु ऐसे धनों को देकर हमारे लिए हित को साधते हुए वैश्वानर इस अन्वर्थक नामवाले होते हैं । 

    २. (नः) = हमारे (तत्) = इस संकल्प को कि हम यज्ञों में विनियुक्त होनेवाले धनों से युक्त हों (मित्रः) = स्नेह की भावना , (वरुणः) = निर्द्वेषता , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = बहने के स्वभाववाले रेतः कण , (पृथिवी) = शरीर (उत) = और (द्यौः) = मस्तिष्क , ये सब (मामहन्ताम्) = आदृत करें , अर्थात् इनके द्वारा हम धनों को प्राप्त करें और उन धनों का यज्ञों में विनियोग करें । मित्रता , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , रेतः कणों का रक्षण , सुदढ शरीर व दीप्त मस्तिष्क ये सब उत्तम धनों की प्राप्ति में सहायक बनते हैं और उन धनों के द्वारा यज्ञों में विनियोग के लिए भी ये सहायक होते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु यज्ञोपयोगी धनों को देकर हमारा हित साधते हैं । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि प्रभु की कल्याणी मति में हमें चलना चाहिए [१] । वे प्रभु ही सर्वव्यापक होने से हमें शत्रुओं के द्वारा होनेवाली हिंसा से बचाते हैं [२] । यज्ञोपयोगी धन देकर हमारा हित साधते हैं [३] । ये प्रभु ही हमें सब कष्टों और दुरितों से पार करते हैं । इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है - 
     

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    विषय

    सर्वहितैषी राजा को अग्नि और सूर्य के दृष्टान्त से उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( वैश्वानर ) सब नायकों का स्वामी, सर्वोपरि, सर्वहितकारी ! (तव ) तेरा (तत्) वह परम सामर्थ्य यश ( सत्यम् अस्तु ) अवश्य सत्य, सदा स्थिर हो रहे । (अस्मान् ) हमें ( रायः ) ऐश्वर्य और ( मघवानः ) ऐश्वर्यवान् उन के पालक, जन भी ( सचन्ताम् ) प्राप्त हो । ऐश्वर्य और ऐश्वर्य के स्वामी सम्पन्न पुरुष हमारे बीच में स्थिर होकर रहें । (मित्रः) प्रजा का मित्र, (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, (अदितिः) समस्त अखण्डनीय विद्वान, और विजयी पुरुष, ( सिन्धुः ) मेघ, और सागर ( पृथिवी उत द्यौः ) पृथिवी और सूर्य सब ( नः ) हमें ( तत् ) वह समस्त ऐश्वर्य (मामहन्ताम् ) प्रदान करें । इति षष्ठो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ अग्निवैश्वानरो देवता विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुम् । तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी ईश्वर, विद्वानांच्या साह्याने सत्य, शील, धर्मयुक्त धन, धार्मिक माणसे व क्रिया कौशल्ययुक्त पदार्थविद्यांना पुरुषार्थाने प्राप्त करून संपूर्ण सुखासाठी चांगल्या प्रकारे प्रयत्न करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May that divine nature, energy and vitality of Vaishvanara Agni, ruling and breathing power of life, be right and true for the world. May all the treasures and holders of the wealth of this world be kind and friendly to us. May Mitra, universal friend, Varuna, the best, just and reasonable worthy of choice, Aditi, motherly powers of nature and humanity, the earth, the seas, the cool waters above and the light of heaven bless us with the health and vitality of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are God and learned person is taught in the third Mantra

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Illuminator of knowledge among all men, (God or learned person) May we also acquire your vow of truth. May we obtain that wealth which is possessed (material as well as spiritual) in the form of wisdom, by great scholars and kings, by men of friendly nature, men of noble merits and disposition, learned mothers and enlightened persons, water in the firmament, earth and the light of electricity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वैश्वानर) सर्वेषु मनुष्येषु विद्याप्रकाशक = Illuminator of knowledge among all men. (राय:) विद्याराज्यश्रियः = Knowledge and royal prosperity. (अदितिः) विश्वेदेवाः सर्वेविद्वांसः = All learned persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should learn from God and learned persons truth, character, wealth earned by righteous means, pious men, theoretical and practical science with labour and then should try to bring about the welfare of all, making all happy.

    Translator's Notes

    Aditi has been interpreted by Rishi Dayananda on the basis of the Vedic Mantra. अदितिघरदितिरन्तरिक्षम्...विश्वे देवा अदितिः पंच जनाः (ऋ० १. ६. १६. १० ) Yaskacharya has also explained अदिति: as अदीना देवमाता = A learned mother of enlightened truthful persons. (विद्वांसोहि देवा:) (शत० ३. ७.३.१० )This hymn is connected with the Previous hymns as there is mention of God, Agni and learned persons as in that hymn. Here ends the commentary on the 98th hymn of the first Mandala of the Rigveda.

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