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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विहव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    ये न॑: स॒पत्ना॒ अप॒ ते भ॑वन्त्विन्द्रा॒ग्निभ्या॒मव॑ बाधामहे॒ तान् । वस॑वो रु॒द्रा आ॑दि॒त्या उ॑परि॒स्पृशं॑ मो॒ग्रं चेत्ता॑रमधिरा॒जम॑क्रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । नः॒ । स॒ऽपत्नाः॑ । अप॑ । ते । भ॒व॒न्तु॒ । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । अव॑ । बा॒धा॒म॒हे॒ । तान् । वस॑वः । रु॒द्राः । आ॒दि॒त्याः । उ॒प॒रि॒ऽस्पृश॑म् । मा॒ । उ॒ग्रम् । चेत्ता॑रम् । अ॒धि॒ऽरा॒जम् । अ॒क्र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये न: सपत्ना अप ते भवन्त्विन्द्राग्निभ्यामव बाधामहे तान् । वसवो रुद्रा आदित्या उपरिस्पृशं मोग्रं चेत्तारमधिराजमक्रन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । नः । सऽपत्नाः । अप । ते । भवन्तु । इन्द्राग्निऽभ्याम् । अव । बाधामहे । तान् । वसवः । रुद्राः । आदित्याः । उपरिऽस्पृशम् । मा । उग्रम् । चेत्तारम् । अधिऽराजम् । अक्रन् ॥ १०.१२८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नः) हमारे (ये सपत्नाः) जो शत्रु हैं, (ते) वे (अप भवन्तु) पृथक् हो जावें (तान्) उनको (इन्द्राग्निभ्याम्) संग्राम में विद्युदग्नि शक्ति सम्पन्न अस्त्रों से या (अप बाधामहे) होम में वायु अग्नि के द्वारा पीड़ित करें, (वसवः) वसानेवाले (रुद्राः) उपदेश करनेवाले (आदित्याः) स्वीकार करनेवाले जन, यज्ञ में ऋतुएँ, रश्मियाँ (मा-उपरिस्पृशम्) मुझे ऊँचे पद प्राप्त करनेवाले (उग्रं चेत्तारम्) तेजस्वी चेतानेवाले (अधिराजम्) अधिराजमान (अक्रन्) करें ॥९॥

    भावार्थ

    शत्रु दूर रहें, उन्हें विद्युदग्नि शक्ति सम्पन्न अस्त्रों द्वारा संग्राम में पीड़ित करना चाहिये, वसानेवाले, उपदेश देनेवाले, स्वीकार करनेवाले जन तेजस्वी अधिकारी को राजा बनावें एवं जो अन्य प्राणियों को पीड़ा देते हैं, वे दूर हों, उन्हें यज्ञ में अग्नि और वायु होमे हुए पदार्थ द्वारा नष्ट करें, वायुएँ, ऋतुएँ, रश्मियाँ मनुष्य को स्वस्थ बनाती हैं ॥९॥

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    विषय

    अधिराट्

    पदार्थ

    [१] शरीर में 'रोग' हमारे सपत्न हैं, मन में 'वासनाएँ'। (ये) = जो भी (न) = हमारे (सपत्ना:) = शत्रु हैं, (ते) = वे (अपभवन्तु) = हमारे से दूर हों । (इन्द्राग्निभ्याम्) = बल व प्रकाश के द्वारा ['इन्द्र' बल का प्रतीक है, 'अग्नि' प्रकाश का] हम उन सब सपत्नों को (अवबाधामहे) = अपने से दूर करते हैं । इन्द्र के द्वारा रोगों को तथा अग्नि के द्वारा वासनाओं को हम पराजित करते हैं । जितेन्द्रिय के समीप रोग नहीं आते, ज्ञान के प्रकाशवाला वासनाओं से बचा रहता है, इस ज्ञानाग्नि में वासनाएँ भस्म हो जाती हैं । [२] (वसवः) = शरीर में अपने निवास को उत्तम बनानेवाले, प्रकृति के पूर्ण ज्ञानी विद्वान्, (रुद्रा:) = वासनाओं को आक्रान्त करनेवाले [रोरूयमाण [द्रवति]] जीव के रहस्य को समझनेवाले विद्वान् तथा (आदित्याः) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले सूर्यसम ज्योति ब्रह्म के ज्ञाता पुरुष (मा) = मुझे (अक्रन्) = बनाएँ कैसा ? [क] उपरिस्पृशम् ऊपर और ऊपर स्पर्श करनेवाला, हीन भावनाओं से ऊपर उठनेवाला, [ख] (उग्रम्) = तेजस्वी- शत्रुओं के लिए भयंकर, [ग] (चेत्तारम्) = चेतनावाला तथा [घ] (अधिराजम्) = मन, बुद्धि व इन्द्रियों का शासक। ऐसा बनकर ही तो मैं आदर्श मानव हो सकूँगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्र व अग्नि तत्त्व का अपने में विकास करें। उत्कृष्ट, तेजस्वी, ज्ञानी व आत्मशासक बनें । सूक्त का प्रारम्भ 'चतुर्दिग् विजय' से होता है [१] और समाप्ति पर 'अधिराट्' बनने का उल्लेख है [२] यह अधिराट् 'परमेष्ठी' सर्वोच्च स्थान में स्थित होता है, यह 'प्रजापति' प्रजा को रक्षण के कार्यों में तत्पर होता है। अगले सूक्त का यही ऋषि है । 'परमेष्ठी प्रजापति' प्रभु हैं, इनको जाननेवाला भी इसी नाम से कहलाता है। यह प्रभु के द्वारा होनेवाली इस सृष्टि का ध्यान करते हुए कहते है-

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    विषय

    प्रधान पुरुष की अन्य वीरों, विद्वानों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    (ये नः सपत्ना:) जो हमारे शत्रु हैं (ते अप भवन्तु) वे दूर हों। हम (इन्द्राग्निभ्याम् तान् अव बाधामहे) इन्द्र और अग्नि ऐश्वर्यवान् और तेजस्वी नायकों, सभा सेनादि के अध्यक्षों द्वारा उनको पीड़ित करें। (वसवः) वसुजन, (रुद्राः) दुष्टों को रुलाने वाले (आदित्याः) आदित्यवत् तेजस्वी, पिता, मातामह प्रपितामह के तुल्य, एवं गृहस्थ, वनस्थ, संन्यस्त जन सब मिलकर (मा) मुझे (उपरि-स्पृशं) सर्वोपरि पद तक पहुंचाता हुआ और (अधि धराजम्) राजाओं के भी ऊपर महाराज एवं (चेत्तारम् अक्रन्) सब को सन्मार्ग में चेताने वाला बनावें। इति षोडशो वर्गः॥ इति दशमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नः) अस्माकं (ये सपत्नाः) ये शत्रवः सन्ति (ते-अप भवन्तु) ते पृथग्भवन्तु (तान्-इन्द्राग्निभ्याम्-अप बाधामहे) तान् सङ्ग्रामे विद्युदग्नि-शक्तिसम्पन्नास्त्राभ्यां होमे वाय्वग्निभ्यां पीडयामहे (वसवः-रुद्राः-आदित्याः) वासयितारः-उपदेष्टारः स्वीकारकर्त्तारो जनाः-यज्ञे वायवः, ऋतवः, रश्मयः (मा-उपरिस्पृशम्-उग्रं चेत्तारम्-अधिराजम्-अक्रन्) मामुपरिपदप्रापकं तेजस्विनं चेतयितारमधिराजमानं कुर्वन्तु ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those who are our adversaries, enemies and hostile rivals, let them be off ! We keep them off, we throw them out in conflict by Indra and Agni, divine air and fire power. May the Vasus, shelter and support givers of life and the general order of educated people, Rudras, powers of justice and order and the middle order of intellectuals, and Adityas, powers of light and the highest order of scholars and sages raise me high, inspire me with the brilliance of fire, enlighten me and anoint me as the highest ruling authority.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शत्रू दूर राहावे. त्यांना विद्युदग्नी शक्तिसंपन्न अस्त्रांद्वारे संग्रामात त्रस्त करावे. सर्वांना वसविणाऱ्या, उपदेश देणाऱ्या, स्वीकार करणाऱ्या लोकांनी तेजस्वी व्यक्तीला राजा बनवावे व जे इतर प्राण्यांना त्रास देतात ते दूर व्हावेत. यज्ञात अग्नी व वायूयुक्त होमात टाकलेल्या पदार्थांद्वारे त्यांना नष्ट करावे. वायू, ऋतू, रश्मी माणसाला स्वस्थ बनवितात. ॥९॥

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