ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
त्वं सिन्धूँ॒रवा॑सृजोऽध॒राचो॒ अह॒न्नहि॑म् । अ॒श॒त्रुरि॑न्द्र जज्ञिषे॒ विश्वं॑ पुष्यसि॒ वार्यं॒ तं त्वा॒ परि॑ ष्वजामहे॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सिन्धू॑न् । अव॑ । अ॒सृ॒जः॒ । अ॒ध॒राचः॑ । अह॑न् । अहि॑म् । अ॒श॒त्रुः । इ॒न्द्र॒ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒सि॒ । वार्य॑म् । तम् । त्वा॒ । परि॑ । स्व॒जा॒म॒हे॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒काः । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम् । अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि वार्यं तं त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सिन्धून् । अव । असृजः । अधराचः । अहन् । अहिम् । अशत्रुः । इन्द्र । जज्ञिषे । विश्वम् । पुष्यसि । वार्यम् । तम् । त्वा । परि । स्वजामहे । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वऽसु ॥ १०.१३३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 133; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वम्-इन्द्र) तू हे राजन् ! (अहिम्-अहन्) आहन्ता शत्रु को हनन करता है (अधराचः) नीचे मुख हुए (सिन्धून्) बहते जैसे भागते हुए शत्रुओं को (अवसृज) नीचे कर (अशत्रुः-जज्ञिषे) तू शत्रुरहित उत्पन्न हुआ (विश्वं वार्यं पुष्यसि) हमारे लिये सब वरणीय वस्तु की रक्षा करता है (तं त्वा परिष्वजामहे) उस तुझको हम स्नेह करते हैं। (नभन्तामन्यके०) पूर्ववत् ॥२॥
भावार्थ
राजा इतना बलवान् हो कि शत्रु उसके सम्मुख न ठहर सके, शत्रुओं को नीचे धकेलता जावे, प्रजा की आवश्यक वस्तुओं की रक्षा वृद्धि करे, प्रजा का स्नेहपात्र बना रहे ॥२॥
विषय
[१] (अहिम्) = [आहन्ति] चारों ओर मार-काट करनेवाले शत्रु को (त्वम्) = तू (अहन्) = नष्ट करता है और (अधराच:) = नीचे की ओर बहनेवाली (सिन्धून्) = रक्त नदियों को तू (अवासृजः) = उत्पन्न कर देता है । शत्रु संहार से रक्त की धाराएँ बह उठती हैं । इस प्रकार शत्रुओं को समाप्त करके हे (इन्द्र) = सेनापते ! तू (अशत्रुः जज्ञिये) = शत्रुरहित हो जाता है । तेरी शक्ति के कारण कोई भी तेरा विरोधी नहीं रहता। [३] इस प्रकार शत्रुओं से राष्ट्र की रक्षा करके तू (विश्वं वार्यम्) = सब वरणीय वस्तुओं का (पुष्यसि) = पोषण करता है । (तं त्वा) = उस तुझको हम (परिष्वजामहे) = आलिंगित करते हैं, तेरा उचित अभिनन्दन करते हैं । शत्रु विजय से लौटे हुए सेनापति का उचित आदर होना ही चाहिए। इसके बल के सामने (अन्यकेषाम्) = कुत्सित वृत्तिवाले इन शत्रुओं की (ज्याकाः) = डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
पदार्थ
भावार्थ - घातपात करनेवाले शत्रुओं को मारकर रक्तधाराओं को ही सेनापति बहा दे । राष्ट्र को अशत्रु करके वरणीय वस्तुओं का पोषण करे। राष्ट्रोत्थान का यही तो मार्ग है, बाह्य भय का न होना तथा वरणीय तत्त्वों का वर्धन ।
विषय
शत्रु के प्रति उसके नाश के लिये उचित भावना।
भावार्थ
हे स्वामिन् ! (त्वं) तू (सिन्धून्) बहने वाले नद और नदियों के समान वेग से जाने वाले सैन्य वा शत्रुओं को (अधराचः अव असृजः) नीचे करता है। (अहिम् अहन्) मेघ को सूर्यवत् और सर्पवत् कुटिल स्वभाव के पुरुष को नाश करता है। तू (अशत्रुः जज्ञिषे) शत्रु रहित हो जाता है। (विश्व वार्यं पुष्यसि) समस्त उत्तम वरण करने योग्य धन को पुष्ट करता है। (तं त्वा परि ष्वजामहे) उस तुझ को हम सब प्रकार से अपनाते हैं। (नभन्ताम्० इत्यादि) पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुराः पैजवनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः-१-३ शक्वरी। ४-६ महापंक्तिः। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्वम्-इन्द्र-अहिम्-अहन्) त्वं हे राजन् ! आहन्तारं शत्रुं हंसि “अहिर्निर्ह्रसितोपसर्गः” [निरु० २।१७] (अधराचः, सिन्धून्-अव असृजः) अधोमुखान् स्यन्दमानान् शत्रून् “सिन्धवः समुद्रनदीवत् कठिनावगाहाः शत्रवः” [ऋ० १।६१।११ दयानन्दः] निम्नान् कुरु (अशत्रुः-जज्ञिषे) त्वं शत्रुरहितो जातः (विश्वं वार्यं पुष्यसि) सर्ववरणीयं वस्तु पोषयसि रक्षसि (तं त्वा परि स्वजामहे) तं त्वां परितः स्निह्याम (नभन्ताम् अन्यकेषाम्) पूर्ववत् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you release the floods of rivers to flow down on the earth. You destroy the demon of darkness, evil, want and ignorance. You are born without an equal, adversary and enemy, and you promote the choicest wealth and excellence of the world. Such as you are we love and embrace you as our closest loving friend and companion. Let the alien strings of the enemy bows snap upon their bows.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा इतका बलवान असावा, की शत्रू त्याच्या समोर उभा राहता कामा नये. शत्रूला मागे-मागे हटवीत जावे. प्रजेच्या आवश्यक वस्तूचे रक्षण व वृद्धी करावी. प्रजेशी स्नेहभाव ठेवावा. ॥२॥
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