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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्र: छन्दः - महापङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यो न॑ इन्द्रा॒भितो॒ जनो॑ वृका॒युरा॒दिदे॑शति । अ॒ध॒स्प॒दं तमीं॑ कृधि विबा॒धो अ॑सि सास॒हिर्नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒भितः॑ । जनः॑ । वृ॒क॒ऽयुः । आ॒ऽदिदे॑शति । अ॒धः॒ऽप॒दम् । तम् । ई॒म् । कृ॒धि॒ । वि॒ऽबा॒धः । अ॒सि॒ । स॒स॒हिः । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒काः । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो न इन्द्राभितो जनो वृकायुरादिदेशति । अधस्पदं तमीं कृधि विबाधो असि सासहिर्नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । नः । इन्द्र । अभितः । जनः । वृकऽयुः । आऽदिदेशति । अधःऽपदम् । तम् । ईम् । कृधि । विऽबाधः । असि । ससहिः । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वऽसु ॥ १०.१३३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 133; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (यः-जनः) जो मनुष्य (वृकायुः) भेड़िये के समान (नः) हम पर (अभितः) सामने होकर (आदिदेशति) शस्त्रप्रहार करता है (तम्-ईम्) उस शत्रु को (अधस्पदं कृधि) पैर के नीचे कुचल दे (विबाधः) तू विशेषरूप से बाधक-पीड़ित करनेवाला (सासहिः-असि) दबानेवाला है (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥४॥

    भावार्थ

    जो जंगली पशु भेड़िये के समान शस्त्रों से आक्रमण करनेवाला शत्रु है, उसे पराक्रमी राजा कुचल डाले ॥४॥

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    विषय

    वृकायु-विनाश

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सेनापते ! (यः जनः) = जो मनुष्य (वृकायुः) = [ वृक इव आचरन्] भेड़िये की तरह आचरण करता हुआ (नः अभितः) = हमारे चारों ओर (आदिदेशति) = लक्ष्य करके बाण आदि को छोड़ता है [दिश अतिसर्जने], (तम्) = उसको (ईम्) = निश्चय से (अधस्पदं कृधि) = पादाक्रान्त कर दो। [२] हे सेनापते! आप (विबाधः) = विशेषरूप से शत्रुओं को पीड़ित करनेवाले तथा (सासहि:) = शत्रुओं को कुचल डालनेवाले असि हैं। आपकी शक्ति के समाने (अन्यकेषां ज्याकाः) = इन कुत्सित वृत्तिवाले शत्रुओं की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही नभन्ताम् नष्ट हो जाएँ। इनके अस्त्र इस प्रकार कुण्ठित हो जाएँ कि ये हमारे पर आक्रमण कर ही न सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ-भेड़िये की वृत्तिवाले शत्रुओं को कुचल दिया जाए।

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    विषय

    दण्डनीय पुरुषों को उचित दण्ड।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् ! (यः) जो (वृकायुः जनः) भेड़िये वा चोर के समान हमारे पास आने वाला, वा चोरस्वभाव का मनुष्य (नः अभितः) हमारे सब ओर (आदिदेशति) हम पर हिंसा का प्रयोग करता, शस्त्रादि फेंकता है, (तम् ईं अधः पदं कृधि) उसको हमारे पैर के नीचे, पदाधिकार के नीचे कर। तू (विबाधः असि) शत्रुओं को विशेष रूप से पीड़ित करने वाला है। तू (सासहिः असि) शत्रुओं को पराजित करने वाला है। (नभन्ताम्०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सुराः पैजवनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः-१-३ शक्वरी। ४-६ महापंक्तिः। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! (यः-जनः-वृकायुः-नः-अभितः-आदिदेशति) यो मनुष्यो वनश्वेवास्मान्-अभिमुखः सन् शस्त्राणि प्रेरयति (तम्-ईम्-अधस्पदं कृधि) तं शत्रुं पादस्याधस्तात् कुरु ताडयेत्यर्थः (विबाधः सासहिः-असि) त्वं विशेषेण तस्य बाधकः पीडयिता तथाऽभिभविता चासि, (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And the thief and the man wolf that designs against us all round all time, pray crush down to naught. You are the protector, Indra, the power to resist and overthrow the danger. Let the strings of enemy bows snap under their own fear and frustration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो जंगली पशू लांडग्याप्रमाणे शस्त्रांनी आक्रमण करणारा शत्रू आहे. त्याला पराक्रमी राजाने नष्ट करावे. ॥४॥

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