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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 140/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अग्निः पावकः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इ॒र॒ज्यन्न॑ग्ने प्रथयस्व ज॒न्तुभि॑र॒स्मे रायो॑ अमर्त्य । स द॑र्श॒तस्य॒ वपु॑षो॒ वि रा॑जसि पृ॒णक्षि॑ सान॒सिं क्रतु॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒र॒ज्यन् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒य॒स्व॒ । ज॒न्तुऽभिः॑ । अ॒स्मे इति॑ । रायः॑ । अ॒म॒र्त्य॒ । सः । द॒र्श॒तस्य॑ । वपु॑षः । वि । रा॒ज॒सि॒ । पृ॒णक्षि॑ । सा॒न॒सिम् । क्रतु॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जन्तुभिरस्मे रायो अमर्त्य । स दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिं क्रतुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इरज्यन् । अग्ने । प्रथयस्व । जन्तुऽभिः । अस्मे इति । रायः । अमर्त्य । सः । दर्शतस्य । वपुषः । वि । राजसि । पृणक्षि । सानसिम् । क्रतुम् ॥ १०.१४०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 140; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अमर्त्य-अग्ने) हे अमर अग्रणायक परमात्मन् ! (जन्तुभिः-इरज्यन्) उत्पन्न पदार्थों से ऐश्वर्यों को प्राप्त हुआ वर्तमान है (अस्मे) हमारे लिये (रायः) धनों को (प्रथयस्व) फैला-विस्तार करो (सः) वह तू (दर्शतस्य वपुषः) दर्शनीय रूप का (विराजसि) विशिष्ट स्वामी है उससे विराजमान है (सानसिं क्रतुम्) संभजनीय कर्मफल को (पृणक्षि) पूरण करता है ॥४॥

    भावार्थ

    अमर परमात्मा पदार्थों को उत्पन्न करके उन पर स्वामित्व करता है, मनुष्यों के लिए धनादि भोग्य वस्तुओं का विस्तार करता है, कर्मों के अनुसार फलप्रदान करता है ॥४॥

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    विषय

    धन-सौन्दर्य- शक्ति

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् (अमर्त्य) = कभी नष्ट न होनेवाले प्रभो! आप (इरज्यन्) = सब ऐश्वर्यों के स्वामी होते हुए (अस्मे) = हमारे लिये (जन्तुभिः) = गौ इत्यादि पशुओं के द्वारा (रायः) = धनों का (प्रथयस्व) = विस्तार कीजिये। इन गवादि पशुओं से कृषि गोरक्षा वाणिज्य आदि को करते हुए हम अपने धनों को बढ़ानेवाले हों। अथवा 'जन्तुभिः' का भाव यह भी हो सकता है कि (हमारे पोषणीय प्राणियों) के अनुसार हमें धन दीजिये। हमें अधिक प्राणियों का पोषण करना है तो अधिक धन, कम का पोषण करना है तो कम धन । व्यर्थ का धन होना, आवश्यकताओं की पूर्ति में कमी न पड़े। अतिरिक्त धन तो विलास का ही कारण बना करता है। इस धन से हम उन्नत हों [अग्नि] असमय की मृत्यु से बचें [अमर्त्य] । [२] हे प्रभो ! आप (दर्शतस्य) = दर्शनीय (वपुषः) = सौन्दर्य के व सुन्दर शरीर के (विराजसि) = राजा हैं। आप हमें उचित धनों को प्राप्त कराके इस योग्य बनायें कि हम शरीर को स्वस्थ व सुन्दर बना सकें। आप हमारे में (सानसिं क्रतुम्) = सम्भजनीय यज्ञों का व शक्ति का (पृणक्षि) = पूरण करते हैं । क्रतु शब्द यज्ञ का वाचक है, साथ ही शक्ति का भी प्रतिपादन करता है । सम्भजनीय शक्ति वह है जो कि रक्षण में विनियुक्त होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें पर्याप्त धन दें । सुन्दर शरीर व सम्भजनीय शक्ति को प्राप्त करायें। यह शक्ति व धन यज्ञादि उत्तम कर्मों में ही व्ययित हो ।

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    विषय

    पालक राजा और प्रभु का वर्णन। उससे ऐश्वर्य वृद्धि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! तू नाना (जन्तुभिः) उत्पन्न होने वाले लोकों और प्राणियों से (इरज्यन्) ऐश्वर्यवान् होता हुआ, हे (अमर्त्य) अविनाशी ! तू (अस्मे रायः प्रथयस्व) हमारे लिये नाना ऐश्वर्य विस्तृत कर। (सः) वह तू (दर्शतस्य वपुषः विराजसि) दर्शनीय शरीर या उत्पादक सामर्थ्य से विशेष रूप से शोभा दे रहा है। और (सानसिं क्रतुम्) नाना सुख कर्म फलादि देने वाले यज्ञ-कर्म को (पृणक्षि) पालन और पूर्ण कर रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरग्निः पावकः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृत्पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्ति:। ५ संस्तारपंक्तिः॥ ६ विराट त्रिष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अमर्त्य-अग्ने) हे अमर ! अग्रणायक परमात्मन् ! (जन्तुभिः-इरज्यन्) जायमानपदार्थैरैश्वर्यमाप्नुवन् “इरज्यति ऐश्वर्यकर्मा” [निघ० २।२१] (अस्मे) अस्मभ्यं (रायः प्रथयस्व) धनानि प्रसारय (सः) स त्वं (दर्शतस्य वपुषः वि राजसि) दर्शनीयस्य रूपस्य विशिष्टः स्वामी भवसि-दर्शनीयेन रूपेण विराजसे-इत्यर्थः (सानसिं क्रतुं पृणक्षि) सम्भजनीयं कर्मफलं पूरयसि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Immortal Agni, waxing and exalting with all living beings, develop and expand the wealth and excellence of life for us. Of noble and gracious form as you are and shine and rule as you do, join us with yajnic action and bless us with abundant fruit of success and victory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अमर परमात्मा पदार्थ उत्पन्न करतो. त्यांच्यावर त्याचे स्वामित्व असते. माणसांसाठी धन इत्यादी भोग्य वस्तूंचा विस्तार करतो. कर्मानुसार फल प्रदान करतो. ॥४॥

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