ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 140/ मन्त्र 5
इ॒ष्क॒र्तार॑मध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसं॒ क्षय॑न्तं॒ राध॑सो म॒हः । रा॒तिं वा॒मस्य॑ सु॒भगां॑ म॒हीमिषं॒ दधा॑सि सान॒सिं र॒यिम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ष्क॒र्तार॑म् । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्रऽचे॑तसम् । क्षय॑न्तम् । राध॑सः । म॒हः । रा॒तिम् । वा॒मस्य॑ । सु॒ऽभगा॑म् । म॒हीम् । इष॑म् । दधा॑सि । सा॒न॒सिम् । र॒यिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्कर्तारमध्वरस्य प्रचेतसं क्षयन्तं राधसो महः । रातिं वामस्य सुभगां महीमिषं दधासि सानसिं रयिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइष्कर्तारम् । अध्वरस्य । प्रऽचेतसम् । क्षयन्तम् । राधसः । महः । रातिम् । वामस्य । सुऽभगाम् । महीम् । इषम् । दधासि । सानसिम् । रयिम् ॥ १०.१४०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 140; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध्वरस्य) अध्यात्मयज्ञ के (निष्कर्त्तारम्) संस्कर्त्ता (महः-राधसः) महान् धन के (क्षयन्तम्) स्वामित्व करते हुए (प्रचेतसम्) प्रकृष्ट सावधान परमात्मा की स्तुति करें (वामस्य) वननीय कमनीय धन के (सुभगां महीम्) सौभग्य देने वाली महती (इषं रातिम्) कमनीय दानक्रिया को (सानसिम्) सम्भजनीय (रयिम्) धन को (दधासि) धारण करता है-देता है ॥५॥
भावार्थ
आध्यात्मयज्ञ को सुन्दर रूप देनेवाला परमात्मा है, वह महान् धन का स्वामी सदा सावधान कमनीय धन सौभाग्य को देनेवाली दान दया से धन प्रदान करता है, वह स्तुति करने योग्य है ॥५॥
विषय
कैसा धन ?
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! आप (रयिं दधासि) = धन को धारण करते हैं, हमारे लिये धन को देते हैं। जो धन [क] (सानसिम्) = सम्भजनीय होता है, बाँटकर सेवन के योग्य होता है । [ख] (अध्वरस्य इष्कर्तारम्) = [निष्कर्तारं ] जो यज्ञ का साधक होता है, जिस धन के द्वारा हम यज्ञों को सिद्ध कर पाते हैं । [ग] (महः राधसः क्षयन्तम्) = जो महान् सफलता का निवास-स्थान बनता है, जिस धन के द्वारा हम अपने कार्यों में सफलता को प्राप्त कर पाते हैं । [२] इस धन के साथ आप हमारे में (वामस्य) = इस उत्तम साधनों से कमाये गये सुन्दर धन की (सुभगां रातिम्) = उत्तम ऐश्वर्य की कारणभूत राति [दान] को धारण करते हैं । हम इस धन का लोकहित के कार्यों के लिए दान देनेवाले बनते हैं। यह दान हमारे ऐश्वर्य के और बढ़ानेवाला होता है । [३] आप धन तथा दानवृत्ति के साथ (महीं इषम्) = महनीय प्रेरणा को प्राप्त कराते हैं। इस प्रेरणा से ही हमारा जीवन उत्तम बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें धन, दान की वृत्ति तथा महनीय प्रेरणा को प्राप्त कराते हैं।
विषय
महान् दाता यज्ञकर्त्ता प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(अध्वरस्य इष्कर्त्तारम्) यज्ञ को अच्छी प्रकार करने वाले ! (महः राधसः) बड़े भारी ऐश्वर्य के (क्षयन्तं) स्वामी (प्र-चेतसम्) बड़े ज्ञानी परम पुरुष की हम स्तुति करें। वह हमें (वामस्य) सेवन योग्य उत्तम धन के (सु-भगम्) सुख सौभाग्यसम्पन्न (रातिम्) दान और (महीम् इषम्) बड़ी भारी अन्नादि समृद्धि और (मानसिं रयिम्) सुख देने वाला, वा परस्पर बांट कर सेवने योग्य ऐश्वर्य (दधासि) देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरग्निः पावकः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृत्पंक्तिः। २ भुरिक् पंक्ति:। ५ संस्तारपंक्तिः॥ ६ विराट त्रिष्टुप्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अध्वरस्य-इष्कर्तारम्) अध्यात्मयज्ञस्य निष्कर्तारं संस्कर्तारम्, ‘नकारलोपश्छान्दसः’ (महः-राधसः) महतो धनस्य (क्षयन्तं प्रचेतसम्) स्वामित्वं कुर्वन्तं प्रकृष्टसावधानं स्तुम इति शेषः (वामस्य) वननीयस्य कमनीयस्य धनस्य (सुभगां महीम्-इषं रातिम्) सौभाग्ययुक्तां महतीं कमनीयां दानक्रियां (सानसिं रयिं दधासि) सम्भजनीयं धनं धारयसि ददासीत्यर्थः ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord, spirit, and power of the light and fire of life, we celebrate and adore you, inspirer, impeller and promoter of holy yajna of love and non-violence, omniscient treasure giver and controller of the great world’s wealth, who bear and bring us abundant gifts of beauty and splendour and the good fortune of life, high energy and food, plenty and prosperity, indeed all wealth, honour and excellence of life.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यात्मयज्ञाला सुंदर रूप देणारा परमात्मा आहे. तो महान धनाचा स्वामी, सदैव सावधान, कमनीय धन सौभाग्य प्रदान करतो. जो स्तुती करण्यायोग्य आहे. ॥५॥
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