Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 148 के मन्त्र
1 2 3 4 5
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 148/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पृथुर्वैन्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒र्यो वा॒ गिरो॑ अ॒भ्य॑र्च वि॒द्वानृषी॑णां॒ विप्र॑: सुम॒तिं च॑का॒नः । ते स्या॑म॒ ये र॒णय॑न्त॒ सोमै॑रे॒नोत तुभ्यं॑ रथोळ्ह भ॒क्षैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्यः । वा॒ । गिरः॑ । अ॒भि । अ॒र्च॒ । वि॒द्वान् । ऋषी॑णाम् । विप्रः॑ । सु॒ऽम॒तिम् । च॒का॒नः । ते । स्या॒म॒ । ये । र॒णय॑न्त । सोमैः॑ । ए॒ना । उ॒त । तुभ्य॑म् । र॒थ॒ऽओ॒ळ्ह॒ । भ॒क्षैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्यो वा गिरो अभ्यर्च विद्वानृषीणां विप्र: सुमतिं चकानः । ते स्याम ये रणयन्त सोमैरेनोत तुभ्यं रथोळ्ह भक्षैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्यः । वा । गिरः । अभि । अर्च । विद्वान् । ऋषीणाम् । विप्रः । सुऽमतिम् । चकानः । ते । स्याम । ये । रणयन्त । सोमैः । एना । उत । तुभ्यम् । रथऽओळ्ह । भक्षैः ॥ १०.१४८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 148; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (रथोढ) हे रमणीय मोक्षपद पर सदा वर्तमान नित्यमुक्त परमात्मन् ! (अर्यः) स्वामी (विद्वान्) सर्वज्ञ (वा) और (विप्रः) विशेष तृप्त करनेवाला (ऋषीणाम्) मन्त्रद्रष्टा विद्वानों की (सुमतिम्) सुन्दर वाणी स्तुति को (चकानः) कामना करता हुआ (गिरः) उनकी वाणियों का (अभि-अर्च) स्वागत कर (ये-एना) जो इन (भक्षैः सोमैः-उत) भजनीय सेवनीय उपासनारसों से भी (तुभ्यं रणयन्त) तेरे अन्दर रमण करते हैं (ते स्याम) वह तेरे हम होवें ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्षपद में सदा वर्तमान, नित्यमुक्त, स्वामी, सर्वज्ञ और तृप्त करनेवाला है, ऋषियों की स्तुति का स्वागत करनेवाला है, जो भजनीय स्तुतियों से तेरे अन्दर रमण करते हैं, वे तेरे हो जाते हैं ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सोमरक्षण व सात्त्विक भोजन

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (अर्य:) = स्वामी तथा (विद्वान्) = ज्ञानी आप (ऋषीणाम्) = [ऋष् गतौ ] गतिशील पुरुषों के (विप्रः) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं। इस पूरण के लिये ही (सुमतिं चकान:) = उनकी सुमति की आप कामना करते हैं। आप उन ऋषियों को सुमति प्राप्त कराते हैं। आप (वा) = निश्चय से (गिरः) = इनकी ज्ञान की वाणियों को (अभ्यर्च) = [अर्च् to shire] दीप्त कीजिये। इन ज्ञान की वाणियों के द्वारा ही तो ये अपने जीवन की न्यूनताओं को दूर कर पायेंगे। [२] वे इन (ते स्याम) = आपके हों, हमारा झुकाव आपकी ओर हो, हम प्रकृति में फँस न जायें। (ये) = जो हम (सोमैः रणयन्त) = सोमरक्षण के द्वारा आपको अपने जीवन में रममाण करते हैं। जितना जितना हम सोम का रक्षण करते हैं, उतना उतना ही हम प्रभु के प्रिय बनते हैं । हे (रथोढ) = शरीररूप रथ के द्वारा वहन किये जानेवाले प्रभो ! हम इन शरीर रथों के आपकी ओर ही आनेवाले बनते हैं। (एना) = इस सोम के द्वारा (उत) = और (भक्षैः) = सात्त्विक भोजनों के द्वारा (तुभ्यम्) = हम आपके लिये ही गतिवाले होते हैं। भोजनों को भी हम इस दृष्टिकोण से खाते हैं कि हम सात्त्विक बुद्धिवाले बनकर आपकी ओर गतिवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें सुमति देते हैं, हमारी ज्ञानवाणियों को दीप्त करते हैं। सोम का रक्षण करते हुए व सात्त्विक भोजनों का सेवन करते हुए हम आपकी ओर बढ़ें, आपके प्रिय हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आत्मा की उपासना।

    भावार्थ

    तू (अर्यः) सबका स्वामी, (विद्वान्) ज्ञानवान् (विप्रः) मेधावी, (ऋषीणां सु-मतिं चकानः) मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की शुभ मति की कामना करता हुआ (गिरः अभि अर्च) वाणियों को स्वीकार कर। हे (रथ-ऊढ) रथ द्वारा वहन करने योग्य रथीवत् आत्मन् ! (ये) जो तुझे (सोमैः) उत्तम र ऐश्वर्यों, अन्नों से (रणयन्त) प्रसन्न करते हैं (ते) वे हम (स्याम) हों (उत) और (तुभ्यम्) तेरे लिये (एना) इन (भक्षैः) भजन-सेवन करने योग्य पदार्थों से हम तेरी परिचर्या करें। (२) अध्यात्म में—‘अर्य’ स्वामी आत्मा और ‘ऋषि’ इन्द्रियां। वह उनके उत्तम ज्ञानों की कामना करता और वाणी द्वारा बोलता है। वह देहवान् रथीवत् है, हम जीव उसे अन्न-ओषधियों से पुष्ट करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः- १—५ पृथुवैन्यः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (रथोढ) रमणीयमोक्षपदे सदा वर्त्तमान नित्यमुक्त परमात्मन् ! (अर्यः) स्वामी (विद्वान्) सर्वज्ञ (वा)(विप्रः) विशेषेण प्रीणयिता (ऋषीणां-सुमतिं चकानः) मन्त्रदृष्टॄणां सुवाचं स्तुतिम् “वाग्वै मतिः” [श० ८।१।२।७] कामयमानाऽसि, अतः (गिरः-अभि-अर्च) तेषां स्तुतिवाचः प्रशंसय-स्वागतीकुरु (ये-एना भक्षैः-सोमैः उत तुभ्यं रणयन्त) ये-उपासकाः एतै भजनीयैः-सेवनीयैः “भक्षः सेवनीयः” [यजु० ८।३७ दयानन्दः] उपासनारसैरपि तुभ्यं-‘त्वयि विभक्तिव्यत्ययः, रमणं कुर्वन्ति ते वयम्’ (ते स्याम) तव भवेम ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of the cosmic chariot, ruler protector of the universe, vibrant and omniscient Indra, lover of the sages’ songs of adoration, pray accept and honour our words of prayer so that, serving and celebrating you with delicious homage of soma and ourselves exulting, we may ever abide in your gracious favour and presence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा मोक्षपदात सदैव वर्तमान, नित्य, मुक्त, स्वामी, सर्वज्ञ व तृप्त करणारा आहे. ऋषींच्या स्तुतीचे स्वागत करणारा आहे. जे भजनीय स्तुतीने त्याच्यात रमण करतात ते त्याचे होतात. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top