ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 157/ मन्त्र 5
ऋषिः - भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - द्विपदात्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नय॒ञ्छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । अ॒न॒य॒न् । शची॑भिः । आत् । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यञ्चमर्कमनयञ्छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभिः । आत् । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ १०.१५७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 157; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शचीभिः) विद्वान् कर्मों से (अर्कम्) अर्चनीय राजा को (प्रत्यञ्चम्) प्रतिपूजा स्थान को (अनयन्) पहुँचाते हैं, तब (इषिराम्) इष्ट (स्वधाम्) स्वकीय धारण योग्य वृत्ति-भारी दक्षिणा (परि-अपश्यन्) परिप्राप्त करते हैं ॥५॥
भावार्थ
विद्वान् जन राजा को राजसूययज्ञ द्वारा राजपद पर प्रतिष्ठित कर देते हैं, तो उन्हें अभीष्ट पुष्कल स्थिर जीविका मिलनी चाहिए ॥५॥
विषय
इषिरा 'स्वधा'
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के देव शचीभिः प्रज्ञापूर्वक कर्मों के द्वारा (प्रत्यञ्चम्) = उस अन्तः स्थित (अर्कम्) = उपास्य प्रभु को (अनयन्) = अपने प्रति प्राप्त कराते हैं। प्रज्ञापूर्वक कर्मों से ही प्रभु का सच्चा उपासन होता है । इन कर्मों से ही हम प्रभु को प्राप्त करते हैं । [२] (आत् इत्) = प्रभु को प्राप्त करने के बाद एकदम ये देव अपने अन्दर (इषिराम्) = [एषति to go, move] गतिशील (स्वधाम्) = आत्मधारण शक्ति को (पर्यपश्यन्) = देखते हैं । प्रभु को अपने हृदयों में स्थापित करने से इन्हें वह आत्मधारण शक्ति प्राप्त होती है, जो कि इन्हें सब प्राणियों के हितसाधन में निरन्तर प्रवृत्त रखती है 'सर्वभूत हिते रताः ' ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रज्ञापूर्वक कर्मों से प्रभु का उपासन होता है। प्रभु को हृदय में स्थापित करने से क्रियामय आत्मधारण शक्ति प्राप्त होती है। सम्पूर्ण सूक्त का भाव भी यही है कि शरीर, मन व मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हुए हम प्रज्ञापूर्वक कर्मों में प्रवृत्त रहें। इस प्रकार प्रभु का स्तवन करते हुए हम अपने अन्दर शक्ति का अनुभव करें और सदा लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहें इन लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहने के लिये चक्षु आदि इन्द्रियों का सशक्त बने रहना आवश्यक है । चक्षु आदि इन्द्रियों की शक्ति को स्थिरता के लिये सूर्यादि देवों की अनुकूलता आवश्यक होती है। इस अनुकूलता को सिद्ध करनेवाला 'चक्षुः सौर्य: ' अगले सूक्त का ऋषि है। उसकी प्रार्थना इस प्रकार है-
विषय
पक्षान्तर में साधकों का चिति शक्ति का दर्शन।
भावार्थ
वे विद्वान् एवं विजयेच्छुक उत्तम जन, (अर्कम्) अर्चना करने योग्य पुरुष को (शचीभिः) शक्तियों और उत्तम कर्मों, अधिकारों और स्तुतियों द्वारा (प्रत्यञ्चम्) प्रतिपद पर पूजनीय रूप में आगे ही आगे (अनयन्) लिये जावें, तब (आत् इत्) अनन्तर ही वे (इषिरां स्वधाम् परि अपश्यन्) अन्न देने वाली अपनी देह-पोषक आजीविका को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार साधक लोग (प्रत्यञ्चम् अर्कम्) अपने प्रत्यक् आत्मा, उपास्य के प्रति (शचीभिः) साधना और वाणियों द्वारा प्राप्त करते हैं और अनन्तर (इषिरां स्वधाम् परि अपश्यन्) इच्छा शक्ति से युक्त अपने देह की धारणा शक्ति चित् का दर्शन करते हैं। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। विश्वेदेवा देवताः॥ द्विपदा त्रिष्टुप् पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शचीभिः) विद्वांसः कर्मभिः (अर्कम्) अर्चनीयं राजानम् (प्रत्यञ्चम्-अनयन्) प्रतिपूजास्थानं नयन्ति, तदा (इषिरां स्वधाम्) इष्टां स्वकीयधारणयोग्यवृत्तिम् (परि-अपश्यन्) परि प्राप्नुवन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the Vishvedevas, divinities of nature and human nobilities, offer their songs of adoration in their best of yajnic homage higher and higher forward, then only they see and experience divine inspiration and invigoration descending to them step by step from divinity through nature to humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोक राजाला राजसूय यज्ञाद्वारे राजपदावर प्रतिष्ठित करतात. तेव्हा त्यांना अभीष्ट अत्यंत स्थिर जीविका मिळाली पाहिजे. ॥५॥
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