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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 165/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कपोतो नैर्ऋतः देवता - कपोतापहतौप्रायश्चित्तं वैश्वदेवम् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हे॒तिः प॒क्षिणी॒ न द॑भात्य॒स्माना॒ष्ट्र्यां प॒दं कृ॑णुते अग्नि॒धाने॑ । शं नो॒ गोभ्य॑श्च॒ पुरु॑षेभ्यश्चास्तु॒ मा नो॑ हिंसीदि॒ह दे॑वाः क॒पोत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हे॒तिः । प॒क्षिणी॑ । न । द॒भा॒ति॒ । अ॒स्मान् । आ॒ष्ट्र्याम् । प॒दम् । कृ॒णु॒ते॒ । अ॒ग्नि॒ऽधाने॑ । शम् । नः॒ । गोभ्यः॑ । च॒ । पुरु॑षेभ्यः । च॒ । अ॒स्तु॒ । मा । नः॒ । हिं॒सी॒त् । इ॒ह । दे॒वाः॒ । क॒पोतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हेतिः पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्ट्र्यां पदं कृणुते अग्निधाने । शं नो गोभ्यश्च पुरुषेभ्यश्चास्तु मा नो हिंसीदिह देवाः कपोत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हेतिः । पक्षिणी । न । दभाति । अस्मान् । आष्ट्र्याम् । पदम् । कृणुते । अग्निऽधाने । शम् । नः । गोभ्यः । च । पुरुषेभ्यः । च । अस्तु । मा । नः । हिंसीत् । इह । देवाः । कपोतः ॥ १०.१६५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 165; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) हे विजय के इच्छुक विद्वानों (पक्षिणी हेतिः) पर पक्षवाली प्रहार करनेवाली सेना (अस्मान्) हमें (न दभाति) नहीं हिंसित करती है (आष्ट्र्याम्-अग्निधाने) अशनशाला-भोजनशाला में खाने को तथा अग्निस्थान यज्ञकुण्ड में होमने को (पदं कृणुते) स्वपद-सहयोग पद स्थापित करता है, इस प्रकार मैत्री मित्रता को बनाता है, अतः (नः) हमारे (पुरुषेभ्यः) मनुष्यों के लिए (च) और (गोभ्यः-च शम्-अस्तु) और गौओं के लिए कल्याण होवे-है (कपोतः मा नः हिंसीत्) दूत हमें नहीं हिंसित करेगा ॥३॥

    भावार्थ

    परराष्ट्र का दूत अपनी भोजनशाला में साथ भोजन करके और होम यज्ञ में साथ यज्ञ करके मैत्री करने के लिए या मित्रता करने के लिए इस प्रकार सहयोग करता है और उसका सहयोग प्राप्त हो जाता है, तब परराष्ट्र की सेना द्वारा प्रहार का भय नहीं रहता, इसलिए दूत के साथ स्वागतपूर्वक अच्छा व्यवहार करना चाहिए ॥३॥

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    विषय

    'अति' से बचना

    पदार्थ

    [१] (पक्षिणी हेतिः) = किसी एक पक्ष में चले जानेरूप नाशक (अस्त्र अस्मान्) = हमें (न दभाति) = हिंसित नहीं करता। किसी भी अति [extreme ] में न पड़कर हम सदा मध्यमार्ग में चलते हैं और इस प्रकार अपने जीवन में हिंसित नहीं होते। अति ही हमारे रोग आदि का कारण बनती है । यह अति से बचनेवाला पुरुष (आष्ट्याम्) = [अशू व्याप्तौ ] व्यापक मनोवृत्ति में तथा अग्निधाने यज्ञों के लिये अग्नि के स्थापित करने आदि कार्यों में (पदं कृणुते) = गति को करता है, अर्थात् मनोवृत्ति को व्यापक बनाता है और यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होता है । [२] इस प्रकार [क] मध्यमार्ग में चलने, [ख] मनोवृत्ति को व्यापक बनाने [ग] तथा यज्ञों के करने पर (नः) = हमारे (गोभ्यः) = गवादि पशुओं के लिये (च) = और (पुरुषेभ्यः) = पुरुषों के लिये (शं अस्तु) = शान्ति हो । वस्तुतः हमारे कर्मों के उत्तम होने पर आधिदैविक आपत्तियों का भी निवारण हो जाता है, सारा वातावरण उत्तम बन जाता है । (देवाः) = हे देवो ! (इह) = इस जीवन में (कपोतः) = यह ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति (नः) = हमें (मा हिंसीत्) = मत हिंसित करे। अपने सदुपदेशों से हमारा कल्याण ही करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अति में न आयें । मनोवृत्ति को व्यापक बनायें। अग्निहोत्रादि यज्ञों को करें । इस प्रकार हमारे पशुओं व मनुष्यों के लिये शान्ति हो ।

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    विषय

    दूत सदा प्रजा की सुख शान्ति का ध्यान रखें।

    भावार्थ

    (पक्षिणी हेतिः) दोनों पक्षों वाली सेना, (अस्मान् न दभाति) हमारा नाश न करे। (आष्ट्रयां) व्यापक सेना में वह विद्वान् पुरुष (अग्नि-धाने) अग्निवत् तेजस्वी पद के योग्य स्थान पर (पदं कृणुते) मानपद प्राप्त करता है। हे (देवाः) विद्वान् जनो ! वह (कपोतः) अद्भुतवर्णवाला पुरुष (नः मा हिंसीत) हमें न मारे। (नः गोभ्यः शम्, पुरुषेभ्यः च शम् अस्तु) हमारी गौओं और पुरुषों के लिये भी वह शान्तिदायक हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कपोतो नैर्ऋतः॥ देवता—कपोतोपहतौ प्रायश्चित्तं वैश्वदेवम्॥ छन्दः—१ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः) हे जिगीषवो विद्वांसः (पक्षिणी-हेतिः-अस्मान् न दभाति) परपक्षिणी प्रहर्त्री सेनाऽस्मान् न हिनस्ति ( आष्ट्र्याम्-अग्निधाने पदं कृणुते) यतोऽयं दूतोऽश्नाति भुञ्जते यस्यां तस्यां भोजनशालायां भोक्तुं तथाऽग्निधाने यज्ञकुण्डे च स्वपदं सहयोगपदं करोति स्थापयति, एवं मैत्रीं भावयति, अतः (नः-गोभ्यः च पुरुषेभ्यः-च शम्-अस्तु) अस्माकं गोभ्यो गवादिपशुभ्यस्तथा पुरुषेभ्यश्च कल्याणं भवेत् (कपोतः-मा नः-हिंसीत्) दूतोऽस्मान् न हिंसीत् हिंसिष्यति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let not the winged force of the messenger attack, destroy or deceive us. Let it create a place for itself in our space and in the yajnic hall. Let there be peace for our lands, cows and culture and for our people. O leading lights, this messenger must not hurt us here.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परराष्ट्राचा दूत आपल्या भोजनशाळेत एकत्र भोजन करून व होमयज्ञात यज्ञ करून मैत्री करण्यासाठी सहयोग करतो व जेव्हा त्याचा सहयोग प्राप्त होतो तेव्हा परराष्ट्राच्या सेनेद्वारे प्रहाराचे भय राहत नाही. त्यासाठी दूताबरोबर स्वागतपूर्वक चांगला व्यवहार केला पाहिजे. ॥३॥

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