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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - आपः सोमो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्र॒प्सश्च॑स्कन्द प्रथ॒माँ अनु॒ द्यूनि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्व॑: । स॒मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्रा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒प्सः । च॒स्क॒न्द॒ । प्र॒थ॒माम् । अनु॑ । द्यून् । इ॒मम् । च॒ । योनि॑म् । अनु॑ । यः । च॒ । पूर्वः॑ । स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अनु॑ । स॒म्ऽचर॑न्तम् । द्र॒प्सम् । जु॒हो॒मि॒ । अनु॑ । स॒प्त । होत्राः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्व: । समानं योनिमनु संचरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्रा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रप्सः । चस्कन्द । प्रथमाम् । अनु । द्यून् । इमम् । च । योनिम् । अनु । यः । च । पूर्वः । समानम् । योनिम् । अनु । सम्ऽचरन्तम् । द्रप्सम् । जुहोमि । अनु । सप्त । होत्राः ॥ १०.१७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (द्रप्सः) सूर्य या ओषधिरस (प्रथमान् द्यून्-अनु चस्कन्द) प्रकृष्टतम प्रकाशित लोकों को लक्ष्य करके प्राप्त होता है (यः-च पूर्वः) और जो पुरातन-शाश्वतिक या पूर्वभावी है, (इमं योनिं च-अनु) इस पृथिवीलोक को पीछे प्राप्त होता है (समानं योनिम्-अनु) समान अन्तरिक्षस्थान में प्राप्त होते हुए उस (द्रप्सम्) सूर्य और ओषधिरस को (सप्त होत्राः-अनु) सात रश्मियों को लक्ष्य करके (जुहोमि) स्वजीवनोत्कर्ष के लिए मैं ग्रहण करता हूँ-प्रयुक्त करता हूँ ॥११॥

    भावार्थ

    द्युस्थानीय लोकों को सूर्य उनकी अपेक्षा पूर्वभावी रूप से प्राप्त होता है और इस पृथिवी पर पश्चात् प्राप्त होता है। सात रश्मियाँ उस सूर्य के साथ विचरण करती हैं। उनका उपयोग मनुष्यों को चिकित्सा के लिये करना चाहिए। इसी प्रकार पृथिवी पर ओषधिरस को भी चिकित्सा के लिए उपयोग में लाना चाहिये ॥११॥

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    विषय

    सप्तर्षियों से सम्पादित यज्ञ

    पदार्थ

    [१] प्रस्तुत तीन मन्त्रों का देवता 'सोम' है। 'सरस्वती के जल का पान' इस सोम के रक्षण से ही सम्भव है । इस सोम के कण ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं और तभी हम ज्ञानग्रहण की क्षमता वाले होते हैं । इन सोमकणों को 'द्रप्स:' [drops] कहा गया है, ये सोमकण [दृप्-दर्पति Light, inflame, candel] ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं। जीवन को (प्रथमान् द्यून् अनु) = प्रथम दिनों का लक्ष्य करके अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में यह (द्रप्स:) = सोम (चस्कन्द) = [ स्कन्द् - to ascend, go,move to become dry ] शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला होता है, और शरीर में गति करते हुए इसका शरीर में ही शोषण हो जाता है, अर्थात् शरीर में ही यह व्याप्त हो जाता है । [२] यह सोम (इमं च योनिम्) = इस अपने उत्पत्ति स्थानभूत शरीर को और (यः च पूर्वः) = जो इस शरीर में सब से पूर्व स्थान है उस मस्तिष्क को (अनु) = लक्ष्य करके (चस्कन्द) = ऊर्ध्वगतिवाला व शरीर में ही व्याप्ति वाला होता है। यह सोम जहाँ शरीर को नीरोग बनाता है, वहाँ यह सोम मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करता है। [३] मैं इस सोम को, जो (समानं योनिम् अनु संचरन्तम्) = जहाँ यह उत्पन्न हुआ उस शरीर में ही अंग-प्रत्यंग में रुधिर के साथ संचरण करते रहा है, उस द्रप्सम् ज्ञानाग्नि की दीप्ति के साधनभूत सोम को (सप्तहोत्राः अनु) = सात यज्ञों का लक्ष्य करके (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। 'सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे' प्रत्येक शरीर में सात ऋषि रखे गये हैं । 'कर्णाविमौ नासिक् चक्षणी मुखम्'=दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख । इनसे शब्द, गन्ध, रूप व रसादि विषयों का ग्रहण होकर निरन्तर ज्ञानयज्ञ चल रहे हैं। इन ज्ञानयज्ञों के चलने का सम्भव इस सोम के रक्षण पर ही है। इसी ने इन सप्तर्षियों को सबल बनाना है। इसी से शक्ति सम्पन्न होकर ये ऋषि इन सात ज्ञान यज्ञों को चलाते रहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ब्रह्मचर्याश्रम में सोम का रक्षण करें। यह सोम शरीर को सबल बनाये व मस्तिष्क को दीप्त करे। शरीर में ही व्याप्त होता हुआ यह शरीर सप्तर्षियों से सम्पादित ज्ञानयज्ञ में आहुत हो ।

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    विषय

    सूर्य और ऋतुओं वा मासों के दृष्टान्त से आत्मा और प्राणों का वर्णन। द्रप्स, नाम मूल भूत सर्वजगद्वत्पादक परम तत्त्व का वर्णन।

    भावार्थ

    (द्रप्सः) द्रव रूप से वा द्रुतगति से जाने वाला सूर्य (यः च पूर्वः) जो सब से पूर्व विद्यमान रसरूप तेज, (प्रथमान् द्यून् अनु) प्रथम के सब दिनों वा (प्रथमान् द्यून् अनु) पूर्व उत्पन्न सब तेजस्वी लोकों और (इमं योनिम् च अनु) इस भूमि लोक को भी (चस्कन्द) प्राप्त होता है और (समानं योनिम् सञ्चरन्तं अनु) एक समान लोक या स्थान को जाते हुए जिसके पीछे २ (सप्त होत्राः) सात ऋतुगण जाते हैं उसी प्रकार (द्रप्सः) तेजोरूप, रस रूप आत्मा जो इस देह से पूर्व विद्यमान है, जो (प्रथमान् द्यून्) पूर्व के काम्य देहों और (इमं योनिम्) इस देह को भी प्राप्त होता है। एक समान देह में विचरते उस आत्मा के प्रति (सप्त होत्राः जुहोमि) मैं अपने सातों प्राणों की आहुति करता हूं। सातों प्राण उसी के अधीन रखता हूं।

    टिप्पणी

    (द्रप्सः)—वह तेजोमय मूल तत्व है जिससे सूर्यादि समस्त लोक बने हैं, वही ‘सोम’ है, वही समस्त लोकों का उत्पादक वीर्य के तुल्य है। उसी समानता से प्राणियों का उत्पादक वीर्य भी ‘सोम’ और ‘द्रप्स’ कहाता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (द्रप्सः)  आदित्यः “असौ वा आदित्यो द्रप्सः” [श०७।४।१।२०] रसो जलमोषधिरसो वा “यो वा अस्याः पृथिव्या रसः स द्रप्सः” [मै०४।१।१०] (प्रथमान् द्यून्-अनु चस्कन्द) प्रकृष्टतमान् द्योतमानान् लोकान् लक्ष्यीकृत्य प्राप्नोति (यः-च पूर्वः) यः खलु पुरातनः शाश्वतिकः पूर्वेभावी वा (इमं योनिं च-अनु) इमं पृथिवीलोकञ्च पश्चात् प्राप्नोति “योनिः इयं पृथिवी” [जै०१।५३] (समानं योनिं सञ्चरन्तं द्रप्सम्) समानमन्तरिक्षं स्थानं सञ्चरन्तं प्राप्नुवन्तं खलु तमादित्यं पृथिवीरसं वा (सप्त होत्राः-अनु) सप्त रश्मीन् अनुलक्ष्य “रश्मयो वाव होत्राः” [गो०२।६।६।] (जुहोमि) आददे-प्रयुञ्जे-स्वजीवनोत्कर्षाय खल्वोषधिरसम्, सूर्यचिकित्सापद्धत्या जलचिकित्सापद्धत्या वा ओषधिचिकित्सया वा ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The elixir of life showers on the earliest refulgent worlds by the dawn of days, on this world and this life also as did ever before. The same elixir of life, the same radiant sun, the same soma element of divine nature, vibrant in this world and this life, I invoke and celebrate with all my seven faculties in honour of the spectrum of its beauty and divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    द्युस्थानी लोकांना (गोलांना) सूर्य त्यांच्यापेक्षा पूर्वभावी (प्रथम) रूपाने प्राप्त होतो. नंतर या पृथ्वीला प्राप्त होतो. सात रश्मी त्या सूर्याबरोबर विचरण करतात. त्यांचा उपयोग माणसांच्या चिकित्सेसाठी केला पाहिजे. याच प्रकारे पृथ्वीवर औषधीरसालाही चिकित्सेसाठी उपयोगात आणले पाहिजे. ॥११॥

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