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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 179/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रतर्दनः काशिराजः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ विम॑ध्यम् । परि॑ त्वासते नि॒धिभि॒: सखा॑यः कुल॒पा न व्रा॒जप॑तिं॒ चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । ह॒विः । ओ इति॑ । सु । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । ज॒गाम॑ । सूरः॑ । अध्व॑नः । विऽम॑ध्यम् । परि॑ । त्वा॒ । आ॒स॒ते॒ । नि॒धिऽभिः॑ । सखा॑यः । कु॒ल॒ऽपाः । न । व्रा॒जऽप॑तिम् । चर॑न्तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो विमध्यम् । परि त्वासते निधिभि: सखायः कुलपा न व्राजपतिं चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । हविः । ओ इति । सु । इन्द्र । प्र । याहि । जगाम । सूरः । अध्वनः । विऽमध्यम् । परि । त्वा । आसते । निधिऽभिः । सखायः । कुलऽपाः । न । व्राजऽपतिम् । चरन्तम् ॥ १०.१७९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 179; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे राजन् ! (श्रातं हविः-उ-सु) सुपक्व खाने योग्य अन्न तैयार है (प्र याहि) तू प्रकृष्टरूप से आजा (सूरः) सूर्य (अध्वनः) मार्ग का (वि मध्यम्) मार्ग के विशिष्ट मध्यम काल अर्थात् उत्तरायण के मध्य आषाढ़ मास में सूर्य (जगाम) प्राप्त हुआ (सखायः) समान राष्ट्रवासी जनों (निधिभिः) समर्पणयोग्य निधानों-अन्नों के द्वारा अर्थात् उन अन्नों को देने के लिए (त्वा परि-आसते) तेरे लिए बैठे हैं, तेरी प्रतीक्षा करते हैं (चरन्तं व्राजपतिम्) सेवन किये जाते हुए गृहपति को (कुलपाः-न) कुल के-वंश के रक्षक भावी वंशचालक पुत्रादि जैसे उसके पास-बैठते हैं ॥२॥
भावार्थ
अच्छे राजा के लिये उसके प्रजाजन कृषि आदि का कर उपहार, अन्न देने के लिये उत्सुक रहते हैं और रहना चाहिये, वे इस प्रकार प्रतीक्षा करते और उत्सुक रहते हैं, जैसे गृहपति वृद्धजन को भोजन देने के लिए उसके पुत्रादि उत्सुक रहते हैं ॥२॥
विषय
प्रतर्दनः काशिराजः
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम के संयम व ज्ञान-परिपक्वता से वासनाओं को कुचलनेवाला 'प्रतर्दन' है। वासना-विनाश से इसका ज्ञान सूर्य चमक उठता है, चमकते हुए ज्ञानसूर्यवाला यह 'काशिराज' है, चमकनेवालों का राजा । यह गृहस्थ को संयमजन्य शक्ति व ज्ञान के परिपाक से बड़ी सुन्दरता से निभाता है। इसके गृहस्थ-यज्ञ में (हविः श्रातम्) = हवि का ठीक परिपाक होता है । यह गृहस्थ में सदा देकर खानेवाला बनता है [हु दानादनयो: ] । अब गृहस्थ की समाप्ति पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (उ) = निश्चय से (सु आप्रयाहि) = अच्छी प्रकार सर्वथा घर से जानेवाला बन, वानप्रस्थ होने की तैयारी कर । (सूरः) = तेरा जीवन सूर्य (अध्वनः) = मार्ग के (मध्यम्) = मध्य को (विजगाम) = विशेषरूप से प्राप्त हो गया है । अर्थात् आयुष्य के प्रथम ५० वर्ष बीत गये हैं, सो वनस्थ होने का समय हो गया है । [२] (त्वा परि) = तेरे चारों ओर (निधिभिः) = ज्ञाननिधियों की प्राप्ति के हेतु से (सखायः आसते) = समान रूप से ज्ञान प्राप्त करनेवाले ये विद्यार्थी आसीन होते हैं। ये विद्यार्थी (चरन्तम्) = गतिशील (व्राजपतिम्) = विद्यार्थि समूह के रक्षक तेरे चारों ओर (कुलपाः न) = कुल के रक्षकों के समान हैं। इन योग्य विद्यार्थियों से ही तो कुल का पालन होता है। विद्यार्थियों के अभाव में वह कुल नहीं रह जाता। उपनिषद् में आचार्य प्रार्थना करता है कि-'दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा' 'शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा' 'आमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा' 'विमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा' 'प्रमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा'
भावार्थ
भावार्थ- गृहस्थ में दानपूर्वक अदन करते हुए हम पचास वर्ष बीत जाने पर वानप्रस्थ बनें। वहाँ हमें ज्ञान प्राप्ति के हेतु से ब्रह्मचारी प्राप्त हों ।
विषय
राजा का मित्र राजाओं के साथ व्यवहार। गृहस्थ की भोजन व्यवस्था।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! (सूरः) सूर्य (अध्वनः) मार्ग के (वि मध्यम् जगाम) बीच में आगया है। (श्रातं हविः) अन्न परिपक्व होगया है। तू (प्र याहि) उत्तम रीति से आ। (चरन्तं) जाते हुए (व्राज-पतिं) गन्तव्य मार्गों के पालक, वा गृहों के पालक पिता वा आचार्य के (परि) घेर कर (कुलपाः न) कुल के पालक, शिष्य पुत्रादि जिस प्रकार विराजते हैं उसी प्रकार (सखायः) मित्र, तेरे जैसी आख्या वा संज्ञा वाले, स्नेही जन (निधिभिः) अपने २ खजानों सहित (त्वा परि आसते) तेरे चारों ओर विराजते हैं। (२) वसन्त-सम्पात से प्रारम्भ कर ६ मास में सूर्य आधा मार्ग संक्रमण कर चुकता है, उस समय एक फसल हो जाती है। अन्न पक जाता है। उस समय राजा दौरा करे और कर संग्रह करले। (३) गृहस्थ में—इन्द्र गृहपति है, वह मध्याह्न में सूर्य के मध्याकाश में आने पर, अन्न पक जाने पर भोजन ग्रहण करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शिविरौशीनरः। २ प्रतर्दनः काशिराजः। ३ वसुमना रौहिदश्वः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृदनुष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे राजन् ! (श्रातं हविः-उ सु) सुपक्वं हि खल्वदनीयमन्नं “हविः-अत्तव्यमन्नम्” [यजु० २९।११ दयानन्दः] (प्र-आयाहि) प्रकृष्टमागच्छ (सूरः-अध्वनः-वि मध्यं जगाम) सूर्यः “सूरः-यः सरति स सूर्यः” [ऋ० १।५०।९ दयानन्दः] “सूर उदिति” मार्गस्य विशिष्टमध्यमं कालमुत्तरायणस्य मध्यमाषाढमासं प्राप्तवान् (सखायः) समानख्यानाः समानराष्ट्राः प्रमुखप्रजाजनाः (निधिभिः) समर्पणयोग्यैर्निधानैरन्नैः सह तद्दानाय (त्वा परि-आसते) त्वां परित-उपविशन्ति प्रतीक्षन्ते, इत्यर्थः, (व्राजपतिं चरन्तं कुलपाः-न) व्रजन्ति यस्मिन् स व्राजः-“घञ्प्रत्ययोऽधिकरणे” व्राजस्य गृहस्य पतिं चरन्तं सेव्यमानम् ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययो व्यत्ययेन’ कुलस्य वंशस्य रक्षका भाविवंशचालकाः पुत्रादयः यथा तमुपविशन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The havi is ripe and ready for the offering. O Ruler, Indra, come, the sun has reached the middle of its course. Friends sit with their treasure offering and wait like family heads for the chief commander of hosts out on the sojourn on the borders and around.
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तम राजासाठी त्याचे प्रजाजन कृषी इत्यादीचा कर, उपहार अन्न देण्यासाठी उत्सुक असतात. जसे वृद्ध लोकांना भोजन देण्यासाठी त्यांचे पुत्र उत्सुक असतात. ॥२॥
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