ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
ऋषिः - मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनों वा भार्गवः
देवता - आपो गावो वा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यन्नि॒यानं॒ न्यय॑नं सं॒ज्ञानं॒ यत्प॒राय॑णम् । आ॒वर्त॑नं नि॒वर्त॑नं॒ यो गो॒पा अपि॒ तं हु॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । नि॒ऽयान॑म् । नि॒ऽअय॑नम् । स॒म्ऽज्ञान॑म् । यत् । प॒रा॒ऽअय॑नम् । आ॒ऽवर्त॑नन् । नि॒ऽवर्त॑नम् । यः । गो॒पाः । अपि॑ । तम् । हु॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नियानं न्ययनं संज्ञानं यत्परायणम् । आवर्तनं निवर्तनं यो गोपा अपि तं हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । निऽयानम् । निऽअयनम् । सम्ऽज्ञानम् । यत् । पराऽअयनम् । आऽवर्तनन् । निऽवर्तनम् । यः । गोपाः । अपि । तम् । हुवे ॥ १०.१९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्-नियानम्) गौओं, प्रजाओं और इन्द्रियों का जो नियत नैत्यिक कार्य में गमन है (नि-अयनम्) तथा फिर नियत नैत्यिक निश्रयण-रहना (संज्ञानम्) संल्लाभ-दुग्धादि, उपहार वा भोग देना (यत् परायणम्) जो दूरगमन-स्वकार्य से निवृत्त होना है और (आवर्तनम्) पुनः प्रवृत्त होना (निवर्तनम्) कार्य से विराम करना, आदि क्रियाओं का (यः गोपाः-अपि तं हुवे) जो सब ओर से गोस्वामी, प्रजापति इन्द्रियस्वामी परमात्मा है, उसकी प्रार्थना करता हूँ ॥४॥
भावार्थ
गौओं, प्रजाओं, इन्द्रियों का नित्य स्वकार्य में प्रवेश होना-जाना-स्थिर होना और उनसे लाभ लेना; कार्य से पुनः निवृत्त होना फिर कार्य में लगना आदि क्रियाएँ सब रक्षक परमात्मा के अधीन हैं। उसकी हम स्तुति करें ॥४॥
विषय
आवर्तन-निवर्तन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार (यः गोपाः) = जो मैं इन्द्रियों का रक्षक बनता हूँ, इन्द्रियरूपी गौवों का पोषण करनेवाला 'गोपति' होता हूँ, वह मैं (तं अपिहुवे) = उस-उस चीज को समुचित रूप में प्रार्थित करता हूँ, इन सब चीजों को चाहता हूँ । किनको ? [क] (यत् नियानं) = जो इन्द्रियरूप गौवों का नियमेन जाने का स्थान है, जिसे सामान्य भाषा में 'गोष्ठ' कहते हैं। यहाँ इन्द्रियरूप गौवों का 'गोष्ठ' यह हमारा अपना शरीर ही है। प्राणमयकोश का [प्राणाः वाव इन्द्रियाणि] आधार यह अन्नमयकोश ही है। एवं यह अन्नमयकोश बिलकुल ठीक हो जिससे इसमें इन्द्रियों का निवास ठीक प्रकार से हो सके। [ख] (न्ययनम्) = मैं न्ययन की भी प्रार्थना करता हूँ। इन इन्द्रियरूप गौवों का ज्ञातव्य विषय रूप चारागाहों में निश्चय से जाना ही न्ययन है। [ग] वहाँ जाकर (संज्ञानं) = विषयों को उत्तमता से, सम्यक्तया जानना ही संज्ञान है इस संज्ञान की भी मैं प्रार्थना करता हूँ। [घ] संज्ञान के बाद (यत्) = जो (परायणम्) = फिर वापिस आना है इसकी भी मैं प्रार्थना करता हूँ। [२] इस प्रकार संक्षेप में यह जो इन्द्रियों का (आवर्तनम्) = ज्ञान प्राप्ति के लिये विषयों में [turning round and round] सब ओर विचरना है, नाना तथ्यों का संग्रहण है, इसकी मैं प्रार्थना करता हूँ। और (निवर्तनम्) =' विषयों में आसक्त न होकर, लौट आना है' उसकी मैं प्रार्थना करता हूँ । इन्द्रियाँ विषयों में जायें, उनका ज्ञान प्राप्त करें, परन्तु ये उनमें कभी उलझ न जायें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से मैं गोपा बनकर आत्मवश्य इन इन्द्रियों से विषयों में विचरता हुआ उनका तत्त्वज्ञान प्राप्त करूँ। मेरी इन्द्रियाँ विषयों में न फँस जाएँ ।
विषय
जीवों का आवागमन।
भावार्थ
(यत् नियानं) जो जीवों का नीचे जाना, और (नि-अयनम्) निम्न लोक या स्थिति में रहना, और (सं-ज्ञानं) उनका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना और (यत् परा अयनम्) जो दूर, परम पद को प्राप्त करना और इसी प्रकार (आ-वर्त्तनं) इस संसार में लौट कर आना इस सब का मैं (हुवे) ज्ञान प्राप्त करूं और अन्यों को इस का उपदेश करूं। (यः गोपाः) जो सब इन्द्रियों, लोकों और वेदादि वाणियों का पालक रक्षक है (तम् अपि हुवे) उसको भी मैं स्वीकार करता, स्मरण और उपदेश करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनो वा भार्गवः। देवताः ११, २—८ आपो गावो वा। १२ अग्नीषोमौ॥ छन्दः-१, ३-५ निचृदनुष्टुप्। २ विराडनुष्टुप् ७, ८ अनुष्टुप्। ६ गायत्री। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत् नियानम्) गवां प्रजानामिन्द्रियाणां वा यत् खलु नियतं नैत्यिकं स्वकार्ये गमनम् (नि-अयनम्) तथा पुनर्नियतं नैत्यिकं निश्रयणम् (संज्ञानम्) संल्लाभो दुग्धादिकं भोग उपहारो वा (यत् परायणम्) यत् खलु दूरगमनं स्वकार्यान्निवर्तनम् (आवर्तनम्) पुनः प्रवर्तनम् (निवर्तनम्) कार्याद् विरमणम् (यः-गोपाः अपि तं हुवे) यः सर्वतो गोस्वामी प्रजापतिः, इन्द्रियस्वामी परमात्मा तमपि प्रार्थये ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Of the people in the society, of the dynamics of wealth in the socio-political system, of the fluctuations of mind and sense in the individual personality, the movement outward, movement inward, conscious balance and equilibrium, the expense out again, withdrawal, release and hold, I watch, and I invoke and call up whoever is the keeper, ruler and master.
मराठी (1)
भावार्थ
गायी, प्रजा, इंद्रिये यांचा नित्य स्वकार्यात प्रवेश होणे -जाणे- स्थिर होणे, त्यांच्याकडून लाभ घेणे, कार्यापासून निवृत्त होणे, पुन्हा कार्यात लावणे इत्यादी क्रिया सर्वरक्षक परमात्म्याच्या अधीन आहेत. त्याची आम्ही स्तुती करावी. ॥४॥
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