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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    विश्वे॑ दे॒वा अ॑कृपन्त समी॒च्योर्नि॒ष्पत॑न्त्योः । नास॑त्यावब्रुवन्दे॒वाः पुन॒रा व॑हता॒दिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वाः । अ॒कृ॒प॒न्त॒ । स॒म्ऽई॒च्योः । निः॒ऽपत॑न्त्योः । नास॑त्यौ । अ॒ब्रु॒व॒न् । दे॒वाः । पुनः॑ । आ । व॒ह॒ता॒त् । इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवा अकृपन्त समीच्योर्निष्पतन्त्योः । नासत्यावब्रुवन्देवाः पुनरा वहतादिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे । देवाः । अकृपन्त । सम्ऽईच्योः । निःऽपतन्त्योः । नासत्यौ । अब्रुवन् । देवाः । पुनः । आ । वहतात् । इति ॥ १०.२४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (निष्पतन्त्योः समीच्योः) राष्ट्रैश्वर्य के लिये निरन्तर प्रगति करते हुए भलीभाँति सहयोग में वर्तमान हुए उन सभापति तुम दोनों के कर्म को (विश्वे देवाः-अकृपन्त) समस्त विद्वान् ऋषिजन सामर्थ्य देते हैं (नासत्यौ देवाः-अब्रुवन्) हे सत्याचरणवाले सभापति और सेनापति ! विद्वान् जन घोषित करते हैं कि (पुनः-आवहतात्-इति) पुनः-पुनः राष्ट्र को वहन करो अर्थात् पुनः-पुनः राष्ट्र को वहन करो अर्थात् पुनः-पुनः स्वकीयपद ग्रहण करके कार्य करो ॥५॥

    भावार्थ

    राष्ट्रैश्वर्य के लिये निरन्तर प्रगति करते हुए परस्पर सहयोग में वर्तमान हुए सभापति और सेनापतियों के कर्म को समस्त विद्वान् बल देवें और अनुमति देवें कि वे राष्ट्र का वहन करें-चलावें ॥५॥

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    विषय

    देवों का शक्ति-सम्पन्न होना

    पदार्थ

    [१] जब 'अश्विनौ' अर्थात् प्राणापान अन्दर आते हैं और बाहर जाते हैं तो (समीच्यो:) = [सम्+अञ्च्] इन प्राणापानों के शरीर से संगत होने पर तथा (निष्पतनयोः) = बाहर जाने पर अर्थात् इन प्राणापान के विधारण व प्रच्छर्दन से (विश्वेदेवाः) = चक्षु आदि इन्द्रियों के रूप में स्थित सब देव (अकृपन्त) =[कृपू सामर्थ्ये] शक्तिशाली बनते हैं। प्राणसाधना से सब इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। इसी में 'सुख' है । सब इन्द्रियों के स्वस्थ होने से जीवन का कार्यक्रम सुन्दरता से चलता है । [२] अब (देवा:) = ये देव (नासत्यौ) = इन प्राणापानों से (अब्रुवन्) = कहते हैं कि आप (पुनः) = फिर (आवहतात् इति) = हमें सब प्रकार से हमारे घर में प्राप्त करानेवाले होइये । अर्थात् आप की कृपा से हम फिर अपने मूल गृह 'ब्रह्मलोक' में पहुँच सकें। यह जीवन सुन्दरता से बीतेगा, तभी तो हम मोक्ष के भी अधिकारी समझे जाएँगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान के शरीर में आने-जाने की क्रिया से सब इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनती हैं । और ये प्राणापान ही अन्ततः हमें मोक्ष प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    पति-पत्नी, स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (समीच्योः) परस्पर एक दूसरे को आदरपूर्वक प्राप्त कर संगत हुए और (निष्पतन्त्योः) संसार मार्ग पर आने वाली दोनों व्यक्तियों पर (विश्वः देवाः) सब विद्वान् जन (अकृपन्त) कृपा करें, उनपर प्रेम, दयाभाव बनाये रखें। (देवाः) वे विद्वान् जन (नासत्यौ अब्रुवन्) परस्पर असत्य आचरण न करने व सदा सत्य वचन कहने वाले स्त्री और पुरुष दोनों को उपदेश करें कि (पुनः आवहतात् इति) इस प्रकार सत्य प्रतिज्ञा के अनन्तर उत्साहित होकर पुनः २ निरन्तर गृहस्थ का भार धारण करो, परस्पर विवाह करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः विमद ऐन्द्रः प्रजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः॥ देवताः १—३ इन्द्रः। ४-६ अश्विनौ। छन्द:- १ आस्तारपंक्तिः। २ आर्ची स्वराट् पक्तिः। ३ शङ्कुमती पंक्तिः। ४, ६ अनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (निष्पतन्त्योः समीच्योः) राष्ट्रैश्वर्याय निरन्तरं प्रगतिं कुर्वाणयोः सम्यक् सहयोगे वर्त्तमानयोः कर्म  (विश्वे देवाः-अकृपन्त) सर्वे विद्वांस ऋषयो बलं प्रयच्छन्ति-समर्थयन्ति (नासत्यौ देवाः अब्रुवन्) हे सत्याचरणवन्तौ सभासेनेशौ ! विद्वांसो घोषयन्ति यत् (पुनः आवहतात्-इति) पुनः पुनः राष्ट्रं वह, इति प्रत्येकदृष्ट्या खल्वेकवचनम्, पुनः पुनस्तत्पदं गृहीत्वा कार्यं कुरु ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All divinities of nature and humanity shower love and kindness on the complementary powers working together in unison without relent or remiss on their commitment, and as the work goes on, O divinities ever true and never false or failing, the powers of the world exclaim: Go on, go on, that way success lies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्राच्या ऐश्वर्यासाठी सतत प्रगती करत परस्पर सहयोगात वर्तमान असलेल्या सभापती व सेनापतीच्या कर्माला संपूर्ण विद्वानांनी बल द्यावे व अनुमती द्यावी, की त्यांनी राष्ट्राचे वहन करावे. ॥५॥

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