ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 8
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - सोमः
छन्दः - विराडार्षीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं न॑: सोम सु॒क्रतु॑र्वयो॒धेया॑य जागृहि । क्षे॒त्र॒वित्त॑रो॒ मनु॑षो॒ वि वो॒ मदे॑ द्रु॒हो न॑: पा॒ह्यंह॑सो॒ विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । सो॒म॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ । व॒यः॒ऽधेया॑य । जा॒गृ॒हि॒ । क्षे॒त्र॒वित्ऽत॑रः । मनु॑षः । वि । वः॒ । मदे॑ । द्रु॒हः । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं न: सोम सुक्रतुर्वयोधेयाय जागृहि । क्षेत्रवित्तरो मनुषो वि वो मदे द्रुहो न: पाह्यंहसो विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । सोम । सुऽक्रतुः । वयःऽधेयाय । जागृहि । क्षेत्रवित्ऽतरः । मनुषः । वि । वः । मदे । द्रुहः । नः । पाहि । अंहसः । विवक्षसे ॥ १०.२५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (नः) हमारे लिये (सुक्रतुः) तू शोभनप्रज्ञा-प्रद है (वयोधेयाय) जीवन धारण कराने के लिये (जागृहि) हमें सावधान कर (क्षेत्रवित्तरः) हमारे देहक्षेत्र को प्राप्त करानेवाला तू (द्रुहः-मनुषः-अंहसः) द्रोह करनेवाले मनुष्य से एवं पाप से (नः पाहि) हमारी रक्षा कर (वः मदे वि) हम हर्ष के निमित्त तेरी स्तुति करते हैं। (विवक्षसे) तू महान् है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा उपासक को उत्तम बुद्धि देनेवाला एवं जीवन-प्रदाता है तथा उत्तम देह को भी प्राप्त करानेवाला है। वह द्रोही मनुष्य और पाप से भी बचाता है। इसलिये विशेष हर्ष के निमित्त उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
द्रोह व पाप से परे
पदार्थ
[१] हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (सुक्रतुः) = आप उत्तम संकल्पों, कर्मों व प्रज्ञानोंवाले हैं। (क्षेत्रवित्तरः) = हम सब के शरीररूप क्षेत्रों के उत्कृष्टता के साथ जाननेवाले हैं। सब क्षेत्रों में आप ही तो वस्तुतः क्षेत्रज्ञ हैं आप (वयोधेयाय) = हमारे में उत्कृष्ट जीवन के स्थापन के लिये सदा (जागृहि) = जागरित रहिये । आप ही हमारे अप्रमत्त रक्षक होंगे तभी तो हमारा जीवन शत्रुओं से आक्रान्त न होगा। [२] हे प्रभो ! आप (मनुषः) = मनुष्य में स्वभावतः उत्पन्न हो जानेवाले (द्रुहः) = द्रोह के भाव से तथा (अंहसः) = पाप से (नः) = हमें (पाहि) = बचाइये। ज्ञान की अल्पता के कारण आ जानेवाली इन मलिनताओं से आप ही हमें बचायेंगे । [३] इस द्रोह व पाप से हमारा रक्षण आप अवश्य करें ही, जिससे (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति के लिये हों । द्रोह व पाप की भावनावाला कोई भी व्यक्ति प्रभु-भक्त नहीं हो सकता और प्रभु- भक्त में द्रोह व पाप नहीं रह सकते। यह एकत्व को देखता है, सो द्रोह से ऊपर उठ जाता है, सदा 'सर्वभूतहिते रतः ' होता है ।
भावार्थ
प्रभु भावार्थ - प्रभु हमारे रक्षक हों, जिससे हम द्रोह व पाप से ऊपर उठे रहें । द्रोह व पाप हमें से दूर रखते हैं।
विषय
द्रोही से रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासक ! ऐश्वर्यवन् ! विभो ! (त्वं सु-क्रतुः) तू उत्तम क्रियावान्, ज्ञानवान् और (क्षेत्रवित्-तरः) देहरूप निवासस्थान को प्राप्त कराने वाला, एवं प्रकृति तत्व को भली प्रकार जानने वाला है। तू (वयः-धेयाय) अन्न, बल और ज्ञान के लिये (जागृहि) सदा जाग। तू (नः) हमें (अहंसः मनुषः) पापी मनुष्य से और (द्रुहः मनुषः) द्रोही मनुष्य से (पाहि) बचा। हे मनुष्यो ! (विवक्षसे वः वि मदे) वह महान् प्रभु आप लोगों को विविध प्रकार का सुख दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ६, १०, ११ आस्तारपंक्तिः। ३–५ आर्षी निचृत् पंक्तिः। ७–९ आर्षी विराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (नः) अस्मभ्यम् (सुक्रतुः-वयोधेयाय) शोभनप्रज्ञानवान् शोभनप्रज्ञानप्रदः-जीवनस्य धारणाय (जागृहि) जागरय अन्तर्गतो णिजर्थः (क्षेत्रवित्तरः) देहक्षेत्रस्यातिशयेन प्रापयिता (द्रुहः-मनुषः अंहसः) द्रोग्धुर्मनुष्यात् तथा पापात् (नः पाहि) अस्मान् रक्ष (वः-मदे वि) त्वां हर्षनिमित्तं स्तुमः (विवक्षसे) त्वं महानसि ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, lord of all knowledge and holy action, pray let us awake for living a full life of age and enthusiasm. You know the microcosm and the macrocosm of existence, none other knows. Pray protect us from evil men and from sin and jealousy. O lord you are waxing great in your glory for the joy of all.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपासकाला उत्तम बुद्धी देणारा व जीवन प्रदाता आहे व उत्तम देहही देणारा आहे. तो उपद्रवी माणसापासून व पापासून वाचवितो. त्यामुळे विशेष आनंदासाठी त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥८॥
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