ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
शिशुं॒ न त्वा॒ जेन्यं॑ व॒र्धय॑न्ती मा॒ता बि॑भर्ति सचन॒स्यमा॑ना । धनो॒रधि॑ प्र॒वता॑ यासि॒ हर्य॒ञ्जिगी॑षसे प॒शुरि॒वाव॑सृष्टः ॥
स्वर सहित पद पाठशिशु॑म् । न । त्वा॒ । जेन्य॑म् । व॒र्धय॑न्ती । मा॒ता । बि॒भ॒र्ति॒ । स॒च॒न॒स्यमा॑ना । धनोः॑ । अधि॑ । प्र॒ऽवता॑ । या॒सि॒ । हर्य॑म् । जगी॑षसे । प॒शुःऽइ॑व । अव॑ऽसृष्टः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्ति सचनस्यमाना । धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ्जिगीषसे पशुरिवावसृष्टः ॥
स्वर रहित पद पाठशिशुम् । न । त्वा । जेन्यम् । वर्धयन्ती । माता । बिभर्ति । सचनस्यमाना । धनोः । अधि । प्रऽवता । यासि । हर्यम् । जगीषसे । पशुःऽइव । अवऽसृष्टः ॥ १०.४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वा) तुझ विद्युद्रूप अग्नि को (माता) यह सब प्राणी वनस्पतियों का निर्माण करनेवाली माता बनी हुई पृथिवी (सचनस्यमाना) अपने में समवेत-संयुक्त करनेवाली अथवा अन्न सेवन करनेवाले प्राणियों से संयुक्त हुई (जेन्यं शिशुं वर्धयन्ती न बिभर्ति) जयशील-प्रभावकारी प्रशंसनीय शोभन वत्स को बढ़ाती हुई के समान धारण करती है (धनोः अधि प्रवता यासि) और हे विद्युद्रूप अग्ने ! तू अन्तरिक्ष में होती हुई वृष्टि गिराने द्वारा निम्न मार्ग से प्राप्त होती है और (अवसृष्टः-पशुः-इव) बन्धन से छूटे हुए पशु की भाँति (हर्यन् जिगीषसे) मेघों को जीतना चाहती है, अतः उन्हें प्राप्त होती है ॥३॥
भावार्थ
प्राणियों की माता पृथिवी जयशील विद्युद्रूप अग्नि को बढ़ावा देती है और वह विद्युद् अग्नि वृष्टि के निमित्त चमकती और कड़कती है ॥३॥
विषय
चाहता हुआ और चलता हुआ
पदार्थ
(शिशुं न त्वा) = एक बच्चे के समान तुझे (जेन्यं वर्धयन्ती) = [जयशीलं जि, विकासशीलं वा जन्] जयशील व विकासशील के रूप में बढ़ाती हुई (माता) = यह तेरे जीवन का निर्माण करनेवाली प्रभु रूप माता (सचनस्यमाना) = सदा तेरे सम्पर्क को चाहती हुई (बिभर्ति) = तेरा पोषण करती है। माता जैसे बच्चे का वर्धन करती है, उसी प्रकार प्रभु हमारा वर्धन करते हैं। ये हमें जयशील व विकासशील बनाते हैं। जीवन का निर्माण प्रभु ने ही करना है। ये प्रभु हमारा सम्पर्क कभी छोड़ते नहीं। सांसारिक माता कभी साथ छोड़ भी दे, परन्तु प्रभु हमारा साथ देंगे ही। प्रभु के सम्पर्क में रहनेवाला व्यक्ति 'जेन्य' =जयशील व विकासशील बनता है। जीव से कहते हैं कि (धनो:) = [प्रणवो धनुः] ओंकाररूप धनुष् के द्वारा (प्रवता) = निम्न मार्ग से, अर्थात् सदा झुककर नम्रता से चलता हुआ तू (अधियासि) = उस प्रभु तक पहुँचता है । नम्रता ही तेरे उत्थान के कारण हो जाती है। इस उत्थान में 'ओम्' का जप तेरे लिये सहायक होता है। इस जप से तेरी चित्तवृत्ति ठीक बनी रहती है । (हर्यन्) = [गतिकान्त्योः] उस प्रभु की ओर चलता हुआ और उस प्रभु को चाहता हुआ तू (जिगीषसे) = उस प्रभु को उसी प्रकार प्राप्त करना चाहता है, (इव) = जैसे (अवसृष्टः पशुः) = खुला छोड़ा हुआ पशु अपने गोष्ठ के प्रति आता है। जीव भी बन्धनों से मुक्त हुआ हुआ प्रभु की ओर जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सदा साथ देनेवाली माता है, वह हमें जयशील व विकासशील बनाती है ओम् के जप से नम्रता से चलते हुए हम प्रभु को उसी प्रकार प्राप्त करते हैं जैसे कि बन्धनमुक्त हुआ हुआ पशु गोष्ठ को प्राप्त होता है।
विषय
पृथिवी के पुत्र के तुल्य पृथ्वी को राजा का पुत्रवत् पालन-पोषण।
भावार्थ
(शिशुं न माता) जिस प्रकार माता बच्चे को (सचनस्यमाना बिभर्त्ति) अपने संपर्क में रखना चाहती हुई पालती पोषती है, उसी प्रकार (माता) पृथिवी, (त्वा) तुझ (जेन्यं) विजयशील को (वर्धयन्ती) बढ़ाती हुई और (सचनस्यमाना) तेरे साथ सम्पर्क रखती हुईं (त्वा बिभर्त्ति) तुझे धारण करती है तुझे पुष्ट करती है। और तू (हर्यन्) धनादि की कामना करता हुआ, (अवसृष्टः पशुः इव) छूटे हुए पशु के समान स्वच्छन्द होकर (धनोः अधि) धनुष के बल पर (प्रवता यासि) अपने नीचे के स्थानों को प्राप्त करता और (जिगीषसे) उनको जीतना चाहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
विद्युदात्मनोऽग्नेर्वर्णनमुच्यते।
पदार्थः
(त्वा) त्वां विद्युद्रूपमग्निम् (माता) एषा सर्वेषां प्राणिवनस्पतीनां निर्मात्री मातृभूता पृथिवी (सचनस्यमाना) स्वस्मिन् समवेतं करिष्यमाणा सती “षच-समवाये” [भ्वादिः] ‘ततः श्नं विकरणं मध्ये पतितं छान्दसम्’, यद्वा चनस्यमानैः-अन्नं सेवमानैः प्राणिभिः सह युक्ता—“चायतेरन्ने ह्रस्वश्च” [उणा० ४।२००] इति चायृधातोरसुनि तदन्तात् क्यचि च चनस्य इति नामधातुः, “चनस्यतम्-चनस् शब्दात् क्यच्प्रत्यये तदन्तान्नामधातोर्लोटि मध्यमस्य द्विवचने प्रयोगः” [ऋ० १।३।१ दयानन्दः] (जेन्यं शिशुं वर्धयन्ती न बिभर्ति) जयशीलं प्रभावकारिणं वत्सं शंसनीयं शोभनं वर्धयन्तीव धारयति (धनोः अधि प्रवता यासि) त्वं च विद्युद्रूपाग्ने ! धनोः-अधि-धन्वनि-अन्तरिक्षे सन् ‘धनुः-धन्वन्’ वैदिकसाहित्ये पर्यायत्वं भजेते “धन्वान्तरिक्षं धन्वन्त्यस्मादापः” [निरु० ५।५] “धन्वनाजिं जयेम” “धनुः शत्रोरपकामं कृणोति” [ऋ० ६।७५।२।, निरु० ९।१६] प्रवणेन निम्नेन मार्गेण गच्छसि वृष्टिनिपातनद्वारा, किं च (अवसृष्टः-पशुः-इव) बन्धनान्मुक्तः पशुरिव (हर्यन् जिगीषसे) मेघान् जेतुमिच्छसि-अतस्तान्-गच्छसि “हर्य गतिकान्त्योः” [भ्वादि०] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as a mother nurtures a promising child, loving it and raising it, so does mother earth hold and bear you, victorious, as fire and magnetic energy, augmenting you and loving to be with you, and you, radiating through the middle space, rush down, loving and ambitious to win and excel, like a captive animal set free.
मराठी (1)
भावार्थ
प्राण्यांची माता पृथ्वी विजयी विद्युद्रूप अग्नीला वाढविते व तीच विद्युत अग्नी वृष्टीच्या निमित्त चमकून गर्जना करते. ॥३॥
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