ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
कूचि॑ज्जायते॒ सन॑यासु॒ नव्यो॒ वने॑ तस्थौ पलि॒तो धू॒मके॑तुः । अ॒स्ना॒तापो॑ वृष॒भो न प्र वे॑ति॒ सचे॑तसो॒ यं प्र॒णय॑न्त॒ मर्ता॑: ॥
स्वर सहित पद पाठकूऽचि॑त् । जा॒य॒ते॒ । सन॑यासु । नव्यः॑ । वने॑ । त॒स्थौ॒ । प॒लि॒तः । धू॒मऽके॑तुः । अ॒स्ना॒ता । आपः॑ । वृ॒ष॒भः । न । प्र । वे॒ति॒ । सऽचे॑तसः । यम् । प्र॒ऽनय॑न्त । मर्ताः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः । अस्नातापो वृषभो न प्र वेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ता: ॥
स्वर रहित पद पाठकूऽचित् । जायते । सनयासु । नव्यः । वने । तस्थौ । पलितः । धूमऽकेतुः । अस्नाता । आपः । वृषभः । न । प्र । वेति । सऽचेतसः । यम् । प्रऽनयन्त । मर्ताः ॥ १०.४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कूचित्) कहीं (धूमकेतुः) धुँआ जिसको जतानेवाला है, ऐसा अग्नि (सनयासु जायते) पुरानी सूखी ओषधियों लकड़ियों में उत्पन्न होता है (वने तस्थौ पलितः-नव्यः) और कहीं जल में रहता हुआ शुभ्र नया सुन्दर अग्नि-विद्युद्रूप में उत्पन्न होता है, वह (अस्नाता-आपः) जलों में न बुझने योग्य है (वृषभः-न प्रवेति) वृषभ के समान बलवान् मेघ में दौड़ता है (यं सचेतसः-मर्ताः प्रणयन्त) जिसे प्रज्ञावान् जन प्रकट करते हैं ॥५॥
भावार्थ
एक पार्थिव अग्नि है, जो धुएँ से जानी जाती है-धूमवान् है, सूखी लकड़ियों में उत्पन्न होती है। दूसरी विद्युत् रूप जो शुभ्र-श्वेत है, जल में स्थित होकर भी जल से भीगती बुझती नहीं है, जिसे प्रज्ञावान् जन उत्पन्न करते हैं। विद्युत् का आविष्कार किया जाना चाहिये, उससे अनेक उपयोग लिये जाते हैं ॥५॥
विषय
नव्य जीवनवाला विरल पुरुष
पदार्थ
संसार में मूर्ख तो बहुत हैं समझदार ज्ञानी कोई एक आध ही होता है। इस बात को मन्त्र में इस प्रकार कहते हैं कि (कूचित्) = [कूचित्] कहीं विरल स्थान में ही (सनयासु) = [स-नया] नीति मार्ग पर चलनेवाली प्रजाओं में (नव्यः) = स्तुत्य जीवनवाला व्यक्ति (जायते) = पैदा होता है। माता-पिता का जीवन नीति सम्पन्न हो, वे न्याय मार्ग पर चलनेवाले हों तो उनका सन्तान उत्तम वातावरण में पलकर प्रशस्त जीवनवाला बनता है । यह व्यक्ति वने प्रभु के संभजन में स्थित होता है [वन्= संभक्तौ] इसकी चित्तवृत्ति भोगप्रवण न होकर प्रभु-प्रवण होती है । यह (पलितः) = पालयिता धर्म के नियमों का पालन करनेवाला होता है। (धूमकेतुः) = [धू कम्पने] इसका ज्ञान सब बुराइयों को कम्पित करके दूर करनेवाला होता है । (अस्नाता) = यह उस प्रभु में स्नान करनेवाला होता है, अर्थात् प्रभु की उपासना इस के जीवन के शोधन का कारण बनती है। यह (आपः) = [रेतः] वीर्यकणों को प्रवेति प्रकर्षेण प्राप्त होता है अर्थात् उन्हें सुरक्षित रखता है, और अतएव वृषभो न वृषभ के समान शक्तिशाली होता है। इस प्रकार के जीवनवाला बन वही पाता है (यम्) = जिसको कि (सचेतसो मर्ताः) = समझदार ज्ञानी पुरुष (प्रणयन्त) = प्रकृष्ट मार्ग पर ले चलनेवाले होते हैं । उत्तम माता, पिता व आचार्य को प्राप्त करनेवाला ही तो ज्ञानी बनता है, माता ने उसे चरित्र सम्पन्न बनाना हैं, पिता ने उसे शिष्टाचार सिखाना है और आचार्य ने उसे साङ्गोपाङ्ग वेद-ज्ञान देना है। तीनों का सम्मिलित प्रयत्न ही इसे नव्य व स्तुत्य जीवनवाला बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु प्रवण वृत्ति वाला व्यक्ति विरल ही होता है । उत्कृष्ट जीवन उसीका बनता है जिसे कि योग्य माता, पिता व गुरु प्राप्त हो जाते हैं ।
विषय
अग्नि के तुल्य राजा की उत्पत्ति। राजा के श्लिष्ट विशेषण।
भावार्थ
(धूम-केतुः) धूम की ध्वजा वाला अग्नि, (पलितः वने तस्थौ) व्याप कर वन या काष्ठ में रहता है, (नव्यः सनयासु चित् जायते) स्वयं नया होकर पुरानी सूखी गतिशील लकड़ियों में कहीं भी उत्पन्न होजाता है, वही अग्नि (वृषभः) जल-वर्षणकारी मेघस्थ विद्युत् होकर (अस्नाता आपः प्रवेति) विना गीला हुए ही जलों में व्यापता है, और (यं मर्त्ता सचेतसः प्र-णयन्त) ज्ञानवान् मनुष्य जिसे उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार (नव्यः) स्तुत्य जन् (सनयासु) पूर्व विद्यमान प्रजाओं में, नीतियुक्त सभाओं के बीच में (क्वचित् जायते) कहीं भी बनाया जाता है और वह (पलितः) वयोवृद्धवत् पूज्य ज्ञानवान् (धूम-केतुः) शत्रुओं को कंपित करने वाले ज्ञापक ध्वजा से युक्त, अथवा स्वयं केतुवत् उन्नत होकर (वने तस्थौ) ऐश्वर्य युक्त पद पर वा सैन्यदल में विराजता है। और (वृषभः आपः न) बैल जिस प्रकार पिपासित होकर जलों के पास जाता है उसी प्रकार स्वयं वह (अस्नाता) अनभिषिक्त होकर, भी (आपः प्रवेति) आप्त प्रजाजनों को प्राप्त करता है, और तब (मर्त्ताः) मनुष्य (स-चेतसः) एक समान चित्त वाले होकर (यं प्र-नयन्त) जिसको प्रधान पद पर स्थापित करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कूचित्-धूमकेतुः) कुत्रचित्-धूमः केतुर्ज्ञापको यस्य तथाभूतोऽग्निः (सनयासु) सनातनीषु पुरातनीषु-ओषधीषु शुष्कासु, सना शब्दाद् डयन् छान्दसः प्रत्ययः (जायते) उत्पद्यते (वने तस्थौ पलितः-नव्यः) अथ च कुत्रचित्-उदके स्थितः “वनमुदकम्” [निघ० १।१२] नवीनः प्रियदर्शनः पलितः शुभ्रः सन् स्थितो भवति विद्युद्रूपः, स च (अस्नाता-आपः) अस्नातः, सु स्थाने-आकारादेशश्छान्दसः, अनिमज्जितोऽप्सु भवति, व्यत्ययेन जस् प्रत्ययः। जलप्रभावरहितो भवति (वृषभः-न प्रवेति) वृषभः-इव बलवान् सन् मेघे प्रगच्छति (यं सचेतसः-मर्ताः) यं प्रज्ञावन्तो जनाः (प्रणयन्त) प्रकटयन्ति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Somewhere it arises and manifests in old and dried woods with the banner of smoke or streak of a falling star in dead worlds. New, adorable as well as ancient bright, it abides unattached in floods of water and vibrates and radiates in vapours and clouds like a mighty force of energy which intelligent knowledgeable people visualise, realise and generate in various ways for various uses and purposes.
मराठी (1)
भावार्थ
एक अग्नी पार्थिव आहे. जो धुरामुळे जाणता येतो, धूरयुक्त असतो. शुष्क लाकडांपासून उत्पन्न होतो. दुसरा विद्युतरूपी अग्नी जो शुभ्र श्वेत असतो. जलात स्थित होऊनही जलात भिजत नाही, विझत नाही. प्रज्ञावान लोक तो उत्पन्न करतात. विद्युतमध्ये संशोधन करून अनेक उपयोग करून घेता येतात. ॥५॥
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