ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ त॑ एतु॒ मन॒: पुन॒: क्रत्वे॒ दक्षा॑य जी॒वसे॑ । ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । ए॒तु॒ । मनः॑ । पुन॒रिति॑ । क्रत्वे॑ । दक्षा॑य । जी॒वसे॑ । ज्योक् । च॒ । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त एतु मन: पुन: क्रत्वे दक्षाय जीवसे । ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । एतु । मनः । पुनरिति । क्रत्वे । दक्षाय । जीवसे । ज्योक् । च । सूर्यम् । दृशे ॥ १०.५७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे पुत्र ! तेरा मन (पुनः-आ-एतु) पुनः पुनः उत्कृष्टत्व को प्राप्त हो (क्रत्वे दक्षाय जीवसे) कर्म करने, बल पाने और जीवन धारण करने के लिए (ज्योक् सूर्यं दृशे च) और देर तक ज्ञानप्रकाशक परमात्मा को देखने अर्थात् अनुभव करने के लिए ॥४॥
भावार्थ
गृहस्थ को चाहिए कि अपने पुत्र के मानसिक स्तर को ऊँचा बनाये तथा उसके अन्दर कर्मप्रवृत्ति, शारीरिक शक्ति और जीवनशक्ति दिनों-दिन बढ़ती जाये, इस बात का ध्यान रखें तथा परमात्मा के प्रति आस्तिक भावना और अनुभूति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाये ॥४॥
विषय
मन का पुनः ज्ञानमार्ग में प्रवर्त्तन, प्रत्याहार, योग-अंग की साधना।
भावार्थ
हे मनुष्य ! (ते मनः) तेरा मन (पुनः) पुनः २ (क्रत्वे दक्षाय) कर्म करने और बल प्राप्त करने के लिये वा अपान और प्राण के लिये और (जीवसे) जीवन के लिये और (ज्योक् च दृशे) चिरकाल तक दर्शन करने के लिये (सूर्य) सूर्य के प्रति चक्षु के तुल्य सर्वप्रेरक सर्व बलशाली प्रभु की ओर (पुनः आहुतः) फिर २ प्राप्त हो। शयन में विलीन होने के उपरान्त भी पुनः २ जागृत दशा में हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्धुः सुबन्धुः बन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायनाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१ गायत्री। २–६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
क्रतु व दक्षं मनोनिरोध के लाभ
पदार्थ
[१] प्रभु 'सुबन्धु' से कहते हैं कि (ते मनः) = तेरा मन (पुनः) = फिर (आ एतु) = विषयों से निवृत्त होकर हृदय देश में ही प्राप्त हो। इस मन के हृदय में निरुद्ध होने पर ही (क्रत्वे) = तू यज्ञादि उत्तम =तू कर्मों के लिये समर्थ होगा, (दक्षाय) = इन कर्मों के द्वारा अपने बल को बढ़ाने के लिये तू समर्थ होगा । निरुद्ध मन यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाला बनता है, इन कर्मों से शक्ति का वर्धन होता है । अथवा ['प्राणो वै दक्षः अपानः क्रतुः तै० सं० २।५२'] मन के निरुद्ध होने पर प्राणापान की शक्ति बढ़ती है । [२] प्राणापान की शक्ति का वर्धन होकर (जीवसे) = तू जीवन के लिये होता है । तेरे में उत्साह व उल्लास होता है। तू मरा-सा प्रतीत नहीं होता। (च) = और उल्लासमय जीवनवाला होकर (ज्योक्) = दीर्घकाल तक (सूर्यं दृशे) = सूर्य के दर्शन के लिये होता है। अर्थात् मनोनिरोध का अन्तिम लाभ दीर्घजीवन है ।
भावार्थ
भावार्थ- मनोनिरोध से 'यज्ञशीलता-शक्ति की वृद्धि, उत्साह व उल्लास तथा दीर्घ जीवन' प्राप्त होता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे पुत्र ! तव मनः (पुनः-आ-एतु) पुनः पुनः उत्कृष्टत्वं प्राप्नोतु (क्रत्वे दक्षाय जीवसे) कर्मकरणाय बलप्रापणाय जीवनधारण-कारणाय (ज्योक् सूर्यं दृशे च) चिरं ज्ञानप्रकाशकं परमात्मानं द्रष्टुं च ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let your mind and spirit arise and be alert again and again, continuously, for noble action, expertise of performance, joyous living, and to see the sun for light and enlightenment for a long long time of health and happiness.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थाने आपल्या पुत्राचा मानसिक स्तर उच्च करावा व त्याच्यामध्ये कर्मप्रवृत्ती, शारीरिक शक्ती व जीवनशक्ती वरचेवर वाढत जावी, ही गोष्ट लक्षात ठेवावी व परमात्म्याविषयी आस्तिक भावना व अनुभूती ही वरचेवर वाढत जावी. ॥४॥
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