ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 57/ मन्त्र 6
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
व॒यं सो॑म व्र॒ते तव॒ मन॑स्त॒नूषु॒ बिभ्र॑तः । प्र॒जाव॑न्तः सचेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । सो॒म॒ । व्र॒ते । तव॑ । मनः॑ । त॒नूषु॑ । बिभ्र॑तः । प्र॒जाऽव॑न्तः । स॒चे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः । प्रजावन्तः सचेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । सोम । व्रते । तव । मनः । तनूषु । बिभ्रतः । प्रजाऽवन्तः । सचेमहि ॥ १०.५७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 57; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (वयं तव व्रते) हम तेरे नियम या आदेश में अर्थात् वेदशासन में वर्तमान हुए (तनूषु मनः-बिभ्रतः) इन्द्रियों में मन को लगाते हुए-उन्हें मन के अनुकूल संयम में चलाते हुए (प्रजावन्तः सचेमहि) प्रशस्त इन्द्रियवाले तेरा सेवन करें-तेरी उपासना करें ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा की उपासना करने के लिए मनुष्य को संयमी होना चाहिए और वेदानुसार धर्मचर्या पर चलना चाहिए ॥६॥
विषय
परमेश्वर प्राप्यर्थ अनेक जन्मों में उत्तम मन उत्तम प्रजावान् होने की कामना।
भावार्थ
हे (सोम) सर्वशासक ! सर्वोत्पादक प्रभो ! (तव व्रते) तेरे व्रत के निमित्त (वयम्) हम लोग (तनूषु मनः बिभ्रतः) अपने देहों में मन को एवं विस्तृत यज्ञों में ज्ञान को धारण करते हुए (प्रजा वन्तः सचेमहि) उत्तम प्रजोयुक्त होकर प्राप्त हों। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्धुः सुबन्धुः बन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायनाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१ गायत्री। २–६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
सोम का व्रत
पदार्थ
[१] पिछले मन्त्र में व्रतों में मन को लगाने का उल्लेख है। उन्हीं व्रतों में एक 'सोम' का भी व्रत है। शरीर में सोमशक्ति के रक्षण का निश्चय करना ही 'सोम का व्रत' है। इसे धारण करनेवाला अवश्य ही मनोनिरोध के लिये यत्नशील होता है । (वयम्) = हम हे (सोम) = सोमशक्ते ! (तव व्रते) = तेरे व्रत में, अर्थात् तेरे रक्षण का निश्चय करने पर (मनः) = मन को (तनूषु) = शरीरों में ही (विभ्रतः) = धारण करते हुए, (प्रजावन्तः) = उत्कृष्ट विकासवाले होकर (सचेमहि) = प्रभु के साथ संगत हों । [२] जो भी सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने का निश्चय करता है वह मन को विषयों में भटकने से रोकता ही है, मन को अपने अन्दर ही निरुद्ध करने के लिये यत्नशील होता है । [३] मन को निरुद्ध कर सकने पर हम विविध शक्तियों के विकासवाले होते हैं, शक्तियों का विकास हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण का व्रत मनोनिरोध से पूर्ण होता है। मनोनिरोध से शक्तियों का विकास होकर प्रभु की प्राप्ति होती है । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम पथ-भ्रष्ट न हों, [१] इसके लिये सोम के रक्षण का व्रत धारण करें, यह व्रत मनोनिरोध से ही पूर्ण होगा, [२] इस दूर-दूर जानेवाले मन को हम लौटाकर उत्तम निवास व जीवनवाले बनें-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (वयं तव व्रते) वयं तव नियमे-आदेशे वेदशासने वर्तमानाः (तनूषु मनः बिभ्रतः) इन्द्रियेषु मनो धारयन्तः, तानि मनोऽनुकूले चालयन्तः (प्रजावन्तः सचेमहि) प्रशस्तेन्द्रियवन्तः “इन्द्रियं प्रजाः” [काठ० २७।२] त्वा सेवेमहि उपास्महे ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, lord of peace and enlightenment, we pray that, holding our mind and senses in body in good health within your law and discipline and blest with noble progeny, we may live a happy life dedicated to you.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची उपासना करण्यासाठी माणसाला संयमी झाले पाहिजे व वेदानुसार धर्माचे आचरण केले पाहिजे. ॥६॥
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