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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्या प॒रो दे॒वेभि॒रसु॑रै॒र्यदस्ति॑ । कं स्वि॒द्गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मप॑श्यन्त॒ विश्वे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रः । दि॒वा । प॒रः । ए॒ना । पृ॒थि॒व्या । प॒रः । दे॒वेभिः॑ । असु॑रैः । यत् । अस्ति॑ । कम् । स्वि॒त् । गर्भ॑म् । प्र॒थ॒मम् । द॒ध्रे॒ । आपः॑ । यत्र॑ । दे॒वाः । स॒म्ऽअप॑श्यन्त । विश्वे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति । कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समपश्यन्त विश्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परः । दिवा । परः । एना । पृथिव्या । परः । देवेभिः । असुरैः । यत् । अस्ति । कम् । स्वित् । गर्भम् । प्रथमम् । दध्रे । आपः । यत्र । देवाः । सम्ऽअपश्यन्त । विश्वे ॥ १०.८२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दिवा परः) जो जगत् रचनेवाला परमात्मा द्युलोक से परे वर्तमान है (एना पृथिव्या परः) इस पृथ्वी से परे वर्तमान महान् अथवा फैली हुई सृष्टि से परे ऊपर स्वामी (देवेभिः-असुरैः-परः) विद्वानों से और असुरों से परे-ऊपर स्वामी (यत्-अस्ति) जिससे वह है (कं स्वित्) उस सुखस्वरूप (प्रथमं गर्भं) प्रमुख ग्रहण करनेवाले को (आपः-दध्रे) व्याप्त परमाणु अपने ऊपर स्वामी रूप में धारण करते हैं (यत्र विश्वेदेवाः समपश्यन्त) जिसमें स्थित सारे विद्वान् ध्यानी जन अपने आत्मा को अनुभव करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा द्युलोक, पृथिवीलोक, मोक्ष तथा सारी सृष्टि का स्वामी है, विद्वानों अविद्वानों का भी स्वामी है, व्याप्त परमाणुओं का भी स्वामी है, उसी के आश्रय में जीवन्मुक्त विद्वान् अपने आत्मा को अनुभव करते हैं ॥५॥

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    विषय

    सर्वाश्रय, सर्वेश्रेष्ठ प्रभु।

    भावार्थ

    वह प्रभु, महान् आत्मा (दिवा परः) इस महान् आकाश से भी परे, उससे भी महान् और (एना पृथिव्या परः) इस पृथिवी अर्थात् भूमिवत् सब की उत्पादक अतिव्यापक प्रकृति से भी परे हैं। (यत्) जो (देवेभिः असुरैः) देव, ज्ञानी, और असुर, प्राण बल से जीने वालों से, वा तेजोमय सूर्यादि लोक और प्राण-जीवन देने वाले वायु, जल आदि इन से भी (परः अस्ति) परम श्रेष्ठ है। (आपः) व्यापक प्रकृति के परमाणु, ‘सरिर’ रूप, वा समस्त लोक (कं स्वित्) किस (प्रथम) सर्वश्रेष्ठ (गर्भम्) सब को ग्रहण करने वाले, विथरे २ परमाणुओं को बांध २ कर सृष्टि रूप में लाने वाले को (दधे) धारण करता है, वह वह तत्व है (यत्र) जिसमें आश्रित (विश्व देवाः) समस्त प्रकाशमान सूर्यादि लोक और समस्त विद्वान् वा जीवगण (सम् अपश्यन्त) अपने आप को आश्रित देखते हैं।

    टिप्पणी

    अस्मिन लोका श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। उपनि०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    सर्वव्यापक- सर्वाच्छादक

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (दिवा परः) = इस द्युलोक से पर हैं, (एना पृथिव्या परः) = इस पृथिवी से भी पर हैं। द्युलोक व पृथिवीलोक उस प्रभु को अपने में सीमित नहीं कर पाते । ये तो स्वयं उसके एक देश में हैं। [२] वे प्रभु वे हैं (यद्) = जो (देवेभिः) = ज्ञान की ज्योति से दीप्त व्यक्तियों से (परः) = उत्कृष्ट हैं। ज्ञान के दृष्टिकोण से वे प्रभु ज्ञान की पराकाष्ठा होने से देवों के भी देव हैं, सभी को ज्ञान देनेवाले वे ही हैं। वे प्रभु निरतिशय ज्ञानवाले हैं। (असुरैः) = प्राणशक्ति में रमण करनेवाले [असुषु रमन्ते] अत्यन्त शक्तिशाली पुरुषों से भी वे (परः) = पर हैं। वे प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं, शक्ति के दृष्टिकोण से भी सभी को लाँघकर वे स्थित हैं। [३] (आप:) = सब प्रजाएँ उसके (स्वित्) = आनन्दमय (प्रथमम्) = [प्रथ विस्तारे] सर्वव्यापक प्रभु को ही (गर्भं दध्रे) = अपने अन्दर धारण करती हैं। सब के अन्दर प्रभु का वास है और उस प्रभु के कारण ही बुद्धि, बल व तेज आदि से वे प्रजाएँ युक्त होती हैं । उस प्रभु को ये प्रजाएँ अपने अन्दर धारण करती हैं, (यत्र) = जिसमें (विश्वे देवाः) = सब सूर्यादि देव (समपश्यन्त) = स्थित हुए हुए देखे जाते हैं । इन सूर्यादि देवों को भी तो ये प्रभु ही देवत्व प्राप्त कराते हैं । एवं सारा चराचर जगत् उस प्रभु के अंश से ही विभूतिमय हो रहा है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को ये द्यावापृथिवी सीमित नहीं कर पाते। वे प्रभु ही ज्ञान व शक्ति से सर्वोच्च हैं । सब प्राणियों के गर्भ में हैं, सब देवों को गर्भ में धारण करनेवाले हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दिवा परः) यो जगद्रचयिता परमात्मा द्युलोकात् परः परवर्तमानो महान् “दिवा पञ्चमीस्थाने तृतीया व्यत्ययेन” (एना पृथिव्या परः) एतस्याः पृथिव्याः परे वर्तमानो महान् मोक्षधाम्नः पर उपरि स्वामी प्रथितायाः सृष्टेः पर उपरि स्वामी (देवेभिः-असुरैः-परः) विद्वद्भ्यः-असुरेभ्यश्च परः उपरि स्वामी (यत्-अस्ति) यतोऽस्ति तस्मात् (कं स्वित् प्रथमं-गर्भं-आपः-दध्रे) तं सुखरूपं ग्रहीतारं खल्वापो व्याप्ताः परमाणवो स्वोपरि स्वामिनं धारयन्ति (यत्र विश्वेदेवाः समपश्यन्त) यस्मिन् स्थिताः सर्वे विद्वांसो ध्यायिनो जनाः स्वात्मानमनुभवन्ति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    What is that generative as well as emergent spirit and reality which is beyond the heavens, beyond this earth and this entire universe, beyond the divinities and the energies, beyond and above all that is in existence? What is that presence, that Hiranyagarbha, that golden seed model of the universe which the primeval Prakrti particles contain and which contains and generates those particles themselves, wherein all the divine existences find and realise themselves?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा द्युलोक, पृथ्वीलोक, मोक्ष व संपूर्ण सृष्टीचा स्वामी आहे. विद्वान व अविद्वानांचा स्वामी आहे. व्याप्त परमाणूचा स्वामी आहे. त्याच्या आश्रयाने जीवनमुक्त विद्वान आपल्या आत्म्याचा अनुभव घेतात. ॥५॥

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