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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    उ॒क्ष्णो हि मे॒ पञ्च॑दश सा॒कं पच॑न्ति विंश॒तिम् । उ॒ताहम॑द्मि॒ पीव॒ इदु॒भा कु॒क्षी पृ॑णन्ति मे॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्ष्णः । हि । मे॒ । पञ्च॑ऽदश । सा॒कम् । पच॑न्ति । विं॒श॒तिम् । उ॒त । अ॒हम् । अ॒द्मि॒ । पीवः॑ । इत् । उ॒भा । कु॒क्षी इति॑ । पृ॒ण॒न्ति॒ । मे॒ । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् । उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्ष्णः । हि । मे । पञ्चऽदश । साकम् । पचन्ति । विंशतिम् । उत । अहम् । अद्मि । पीवः । इत् । उभा । कुक्षी इति । पृणन्ति । मे । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषाकपायि रेवति) हे वृषाकपि-सूर्य की पत्नी रेवती तारा नक्षत्र ! (सुपुत्रे-आत् सुस्नुषे) अच्छे पुत्रोंवाली तथा अच्छी सुपुत्रवधू (ते-उक्षणः) तेरे वीर्यसेचक सूर्य आदियों को (प्रियं काचित्करं हविः) प्रिय सुखकर हवि-ग्रहण करने योग्य भेंट को (इन्द्रः-घसत्) उत्तरध्रुव ग्रहण कर लेता है-मैं उत्तर ध्रुव खगोलरूप पार्श्व में धारण कर लेता हूँ, तू चिन्ता मत कर (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्) मेरे लिये ही पन्द्रह और साथ बीस अर्थात् पैंतीस (उक्ष्णः पचन्ति) ग्रहों को प्रकृतिक नियम सम्पन्न करते हैं (उत-अहम्-अद्मि) हाँ, मैं उन्हें खगोल में ग्रहण करता हूँ (पीवः) इसलिये मैं प्रवृद्ध हो गया हूँ (मे-उभा कुक्षी-इत् पृणन्ति) मेरे दोनों पार्श्व अर्थात् उत्तर गोलार्ध दक्षिण गोलार्धों को उन ग्रह-उपग्रहों से प्राकृतिक नियम भर देते हैं ॥१३-१४॥

    भावार्थ

    आकाश में जिन ग्रहों-उपग्रहों की गति नष्ट होती देखी जाती है, वे पैंतीस हैं। आरम्भ सृष्टि में सारे ग्रह-उपग्रह रेवती तारा के अन्तिम भाग पर अवलम्बित थे, वे ईश्वरीय नियम से गति करने लगे, रेवती तारे से पृथक् होते चले गये। विश्व के उत्तर गोलार्ध और दक्षिण गोलार्ध में फैल गये, यह स्थिति सृष्टि के उत्पत्तिकाल की वेद में वर्णित है ॥१३-१४॥

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    विषय

    अध्यात्मिक १५ प्राण और अंगों का एक साथ परिपाक।

    भावार्थ

    (मे) मेरे (पञ्चदश उक्ष्णः) १५ बलयुक्त, शरीर के धारक ज्ञान प्राणों को अथवा (उक्ष्णः मे पञ्चदश) शरीर को धारण करने वाले मुझ आत्मा के (पञ्चदश) पन्द्रहों प्राणों को और (विंशतिम्) हाथ और पैर की २० अंगुलियों के समान शरीर के भीतर के २० अंगों को, वा (विंशतिम्) देह में प्रवेशशील आत्मा को विद्वान् लोग (साकं पचन्ति) एक साथ परिपाक, ज्ञान और अभ्यास से दृढ करते हैं वा विस्तार से वर्णन करते हैं। (उत्) और मैं (पीवः) परिपुष्ट होकर (अद्मि) पुष्टिदायक भोग्य देह और नाना भोगों को वा उन प्राणों का भोग करता हूं। वे समस्त प्राण (मे) मेरे (कुक्षी) दोनों कोखों, पार्श्वों में (पृणन्ति) पूर्ण करते हैं, समस्त प्राण देह के दायें, बायें दोनों ओर अपने २ स्थान पर अंग-प्रत्यंग में व्यापते हैं। वह (इन्द्रः) अद्भुत शक्तिशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सबसे ऊपर है। उसकी इस देह रचना का कौशल अविज्ञेय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    परिपाक

    पदार्थ

    [१] (उक्षण:) = शरीर में शक्ति का सेचन करनेवाले वीर्यकणों को हि निश्चय से (मे) = मेरे (पञ्चदश) = पन्द्रह-दस इन्द्रियाँ तथा पाँच प्राण (साकम्) = साथ-साथ (पचन्ति) = परिपक्व करते हैं। विषय व्यावृत्त इन्द्रियों तथा प्राणायाम द्वारा सिद्ध किये हुए प्राण वीर्यकणों को शरीर में ही परिपक्व करने होते हैं। वीर्यकणों के परिपाक के द्वारा ये (विंशतिम्) = माण्डूक्योपनिषद् के अनुसार एकोनविंशति मुखोंवाले बीसवें इस आत्मा को भी परिपक्व करते हैं आत्मिक शक्ति के विकास का आधार भी ये इन्द्रियाँ व प्राण बनते हैं। [२] (उत) = और (अहम्) = मैं (अद्मि) = इन वीर्यकणों को शरीर में खाने का प्रयत्न करता हूँ। (इत्) = निश्चय से (पीवः) = मैं हृष्ट-पुष्ट बनता हूँ ये सुरक्षित वीर्यकण (मे) = मेरी (उभाकुक्षी) = दोनों कुक्षियों को (पृणन्ति) = [protect] सुरक्षित करते हैं। इन कणों के रक्षण से गुर्दे इत्यादि की बीमारियाँ नहीं होती। [३] इस स्वस्थ अवस्था में मैं उस प्रभु का स्मरण कराता हूँ जो (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली होते हुए (विश्वस्मात् उत्तरः) = सब से उत्कृष्ट हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विषय - व्यावृत्त इन्द्रियों व प्राणसाधना से वीर्य का परिपाक होकर आत्मिक शक्ति का विकास होता है, प्रसंगवश यह वीर्य का परिपाक गुर्दे आदि के कष्टों से भी हमें बचाता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    अनयोर्मन्त्रयोरेकवाक्यतास्ति−(वृषाकपायि रेवति) हे वृषाकपेः सूर्यस्य पत्नि रेवति तारे ! नक्षत्र ! “वृषाकपायी वृषाकपेः पत्नी” [निरु० १२।९] (सुपुत्रे-आत् सुस्नुषे) सुपुत्रे तथा सुपुत्रवधु ! (ते-उक्षणः प्रियं काचित्करं हविः-इन्द्रः-घसत्) तव वीर्यसेचकान् सूर्यादीन् “अरुरूचदुषसः……उक्षा बिभर्त्ति भुवनानि” [ऋ० ९।८३।८] “उक्षास द्यावापृथिवी बिभर्त्ति” [ऋ० १०।३१।८] प्रियं सुखकरं हविरिन्द्रः-उत्तरध्रुवो भक्षितवान् स्वखगोलपार्श्वे धारितवान्, न चिन्तय (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्-उक्ष्णः पचन्ति) हे रेवति ! मह्यमेव मम खगोलं पूरयितुं पञ्चदश साकं विंशतिम् च सर्वान् पञ्चत्रिंशत् उक्ष्णो वीर्यसेचकानिव ग्रहोपग्रहान् प्राकृतिकनियमाः सम्पादयन्ति “उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरा” [ऋ० १।१६४।४३] इत्यत्र “अपचन्त धात्वर्थानादरेण तिङ् प्रत्ययः करोत्यर्थः” सम्पादितवन्त इत्यर्थः” इति सायणः। (उत-अहम्-अद्मि) अपि तानहं खगोले गृह्णामि “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त १।२।९] (पीवः) अतोऽहं प्रवृद्धो जातः (मे-उभा कुक्षी-इत् पृणन्ति) ममोभे पार्श्वे-उत्तरगोलार्धदक्षिणगोलार्धभागौ ते ग्रहोपग्रहैः पूरयन्ति ते नियमाः सृष्टेरारम्भे सर्वे ग्रहोपग्रहा रेवतीनक्षत्रान्तोपर्यवलम्बिता आसन् “ध्रुवताराप्रतिबद्धज्योतिश्चक्रं प्रदक्षिणमाग” (?) पौष्णाश्विन्यन्तस्थैः सह ग्रहैर्ब्रह्मणा सृष्टम्। [ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त मध्यमा ३] ॥१३-१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Natural powers of creative mother Prakrti ripen, mature and give up fifteen evolutionary forms of matter, energy and mind with twenty parts of the biological systems which I swallow at the completion of the existential cycle and I feel satisfied with the involutionary consumption of the Rtam and Satyam modes of existence. Indra is supreme over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आकाशात ज्या ग्रह उपग्रहाची गती-उपगती दिसून येते ते पस्तीस आहेत. सृष्टीच्या आरंभी सारे ग्रह उपग्रह रेवती ताऱ्याच्या अंतिम भागावर अवलंबित होते ते ईश्वरीय नियमाने गती करू लागले व रेवती ताऱ्यापासून वेगळे होत गेले. विश्वाच्या उत्तर गोलार्ध व दक्षिण गोलार्धात पसरले. ही स्थिती सृष्टीच्या उत्पत्ती काळच्या वेदामध्ये वर्णित आहे. ॥१३-१४॥

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