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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    परा॒ ही॑न्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथि॑: । नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । हि । इ॒न्द्र॒ । धाव॑सि । वृ॒षाक॑पेः । अति॑ । व्यथिः॑ । नो इति॑ । अह॑ । प्र । वि॒न्द॒सि॒ । अ॒न्यत्र॑ । सोम॑ऽपीतये । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथि: । नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । हि । इन्द्र । धावसि । वृषाकपेः । अति । व्यथिः । नो इति । अह । प्र । विन्दसि । अन्यत्र । सोमऽपीतये । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे उत्तर ध्रुव ! हे मेरे पति ! तू (वृषाकपेः) वृषाकपि सूर्य के लिये (अति व्यथिः) अत्यन्त व्यथित हुआ (परा धावसि) मुझ व्योमकक्षा से परे जा रहा है (अह-अन्यत्र) आश्चर्य है, अन्य समय में भी (सोमपीतये) सोमपीति-गृहस्थतृप्ति के निमित्त (न-उ प्र विन्दसि) नहीं मुझे प्राप्त करता है ॥२॥

    भावार्थ

    ज्योतिर्विद्या की दृष्टि से ध्रुवप्रचलन होता है, जो व्योमकक्षा से प्रतिलोम गति करता है, इसलिये आलंकारिक ढंग से व्योमकक्षा से परे हटता हुआ होने से वह उपालम्भ सा दे रही है कि सूर्यादि को लिये हुए ध्रुव  व्योमकक्षा से परे हटता है ॥२॥

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    विषय

    भक्त के लिये प्रभु का असह्य विरह। सर्वोत्कृष्ट, सर्वसुखदाता प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! तू तो (परा हि धावसि) परे ही परे, दूर ही दूर होता जा रहा है, यह बात (वृषाकपेः) उस बलवान् सर्व सुखवर्षी प्रभु को प्राप्त करने के लिये यत्न करने वाले और उससे भय मानने वाले उपासक आत्मा के लिये (अति व्यथिः) बहुत ही व्यथा कारी वा कष्टदायक बात है। हे जीव (विश्वस्मात्) समस्त संसार से (इन्द्रः) वह परमैश्वर्यवान्, सर्वदृष्ट, तेजोमय सर्व दुख-भंजक प्रभु ही (उत्तरः) सबसे उत्कृष्ट है। (सोम-पीतये) स्व अर्थात् अपनी आत्मा के द्वारा परम रस पान के लिये (अन्यत्र) उस प्रभु से अतिरिक्त कहीं और प्रकृति आदि पदार्थ में (नो अह प्र विन्दसे) तुझे निश्चय ही अवसर प्राप्त न होगा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    प्रभु आतुरता

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (हि) = निश्चय से जब (परा) = (धावसि) = दूर होते हैं, अर्थात् जब वृषाकपि को आपका दर्शन नहीं होता तो आप (वृषाकपेः) = इस वृषाकपि के (अतिव्यथिः) = अति व्यथित करनेवाले होते हैं। प्रभु-दर्शन के अभाव में वृषाकपि आतुरता का अनुभव करता है। उसे प्रभु-दर्शन के बिना शान्ति कहाँ ? [२] प्रभु संकेत करते हुए कहते हैं कि (सोमपीतये) = तू सोम के रक्षण के लिये यत्नशील हो । यही प्रभुदर्शन का साधन है । (अन्यत्र) = अन्य चीजों में, अर्थात् (सोमपान) = वीर्यरक्षण न करके अन्य चीजों में लगे रहने से (अह) = निश्चयपूर्वक तू (नो प्रविन्दसि) = उस प्रभु को नहीं प्राप्त कर पाता है। प्रभु प्राप्ति का एक ही मार्ग है- 'वीर्य रक्षण' । इस वीर्य की ऊर्ध्वगति से मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और उस समय सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा प्रभु का दर्शन होता है। ये (इन्द्रः) = प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं । इन्हीं को प्राप्त करने में आत्मकामता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु-दर्शन के लिये हमें आतुरता हो और हम सोमपान - वीर्यरक्षण करते हुए अपने को प्रभु दर्शन के योग्य बनाएँ ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र वृषाकपेः-अति व्यथिः) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! मम पते ! त्वं वृषाकपये सूर्याय “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।३।६२] इति षष्ठी, अतिव्यथितः सन् (परा धावसि) मम सकाशात्-व्योमकक्षातः परा गच्छसि (अह-अन्यत्र सोमपीतये न-उ प्र विन्दसि) आश्चर्यमन्यत्र समयेऽपि सोमपीतिनिमित्तं नैव मां प्राप्नोषि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, far too far you move from Vrshakapi who feels too sorrow stricken. O jivatma you would not find anywhere else other than Indra’s presence to enjoy the soma joy of life... Indra is supreme over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्योतिर्विद्येच्या दृष्टीने ध्रुवाचे प्रचलन होते. तो व्योमकक्षेपासून प्रतिलोमगती करतो. व्योमकक्षा जणू व्यंग्य करते, की सूर्यासाठी ध्रुव व्योमकक्षेपासून दूर जात आहे. ॥२॥

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