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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जिघ॑र्म्य॒ग्निं ह॒विषा॑ घृ॒तेन॑ प्रतिक्षि॒यन्तं॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। पृ॒थुं ति॑र॒श्चा वय॑सा बृ॒हन्तं॒ व्यचि॑ष्ठ॒मन्नै॑ रभ॒सं दृशा॑नम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जिघ॑र्मि । अ॒ग्निम् । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । प्र॒ति॒ऽक्षि॒यन्त॑म् । भुव॑नानि । विश्वा॑ । पृ॒थुम् । ति॒र॒श्चा । वय॑सा । बृ॒हन्त॑म् । व्यचि॑ष्ठम् । अन्नैः॑ । र॒भ॒सम् । दृशा॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जिघर्म्यग्निं हविषा घृतेन प्रतिक्षियन्तं भुवनानि विश्वा। पृथुं तिरश्चा वयसा बृहन्तं व्यचिष्ठमन्नै रभसं दृशानम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जिघर्मि। अग्निम्। हविषा। घृतेन। प्रतिऽक्षियन्तम्। भुवनानि। विश्वा। पृथुम्। तिरश्चा। वयसा। बृहन्तम्। व्यचिष्ठम्। अन्नैः। रभसम्। दृशानम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथा विश्वा भुवनानि प्रतिक्षियन्तं तिरश्चा वयसा सह पृथुं बृहन्तं व्यचिष्ठमन्नैस्सह रभसं दृशानमग्निं हविषा घृतेन सह जिघर्मि तथैतं त्वं कुरु ॥४॥

    पदार्थः

    (जिघर्मि) (अग्निम्) (हविषा) होतुमर्हेण सुगन्ध्यादियुक्तेन (घृतेन) आज्येन (प्रतिक्षियन्तम्) पदार्थं पदार्थं प्रतिवसन्तम् (भुवनानि) भवन्ति भूतानि येषु तानि (विश्वा) समग्राणि (पृथुम्) विस्तीर्णम् (तिरश्चा) तिरश्चीनेन (वयसा) कमनीयेन जीवनेन सह (बृहन्तम्) वर्द्धमानम् (व्यचिष्ठम्) अतिशयेन व्याप्तम् (अन्नैः) पृथिव्यादिभिः सह (रभसम्) वेगवन्तम् (दृशानम्) दृश्यमानं दर्शयितारं वा ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या सर्वमूर्त्तद्रव्यस्थां विद्युत्साधनैः संगृह्यात्र सुगन्ध्यादिद्रव्यं जुह्वति तेऽनन्तं सुखमाप्नुवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जैसे (विश्वा) समग्र (भुवनानि) जिनमें प्राणी उत्पन्न होते हैं उन लोकों और (प्रतिक्षियन्तम्) पदार्थ-पदार्थ के प्रति वसते हुए (तिरश्चा) तिरछे सब पदार्थों में वांकेपन से रहनेवाले (वयसा) मनोहर जीवन के साथ (पृथुम्) बढ़े हुए (बृहन्तम्) वा बढ़ते हुए (व्यचिष्ठम्) अतीव सब पदार्थों में व्याप्त और (अन्नैः) पृथिव्यादिकों के साथ (रसभम्) वेगवान् (दृशानम्) देखा जाता वा अपने से अन्य पदार्थों को दिखानेवाले (अग्निम्) अग्नि को मैं (हविषा) होमने योग्य सुगन्धि आदि पदार्थ वा (घृतेन) घी से मैं (जिघर्मि) प्रदीप्त करता हूँ, वैसे आप भी कीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य समस्त मूर्तिमान् पदार्थों में ठहरे हुए बिजुलीरूप अग्नि को साधनों से अच्छे प्रकार ग्रहण कर इसमें सुगन्धि आदि पदार्थ का होम करते हैं, वे अनन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    हविषा घृतेन

    पदार्थ

    १. (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (हविषा) = दानपूर्वक अदन से तथा घृतेन मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति से [घृ क्षरणदीप्त्योः] (जिघर्मि) = मैं अपने अन्दर दीप्त करता हूँ । प्रभु का प्रकाश हवि व घृत के द्वारा अलभ्य है। वे प्रभु (विश्वा भुवनानि प्रतिक्षियन्तम्) = सब प्राणियों में निवास कर रहे हैं। हवि स्वीकार करनेवाला तथा मलों के क्षरण व नदीप्तिवाला व्यक्ति सर्वत्र प्रभु का प्रकाश देखता है 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' = सब प्राणियों में स्थित आत्मा को और सब भूतों को आत्मा में देखनेवाला यह व्यक्ति शोक-मोह से ऊपर उठ जाता है। २. हवि व घृत द्वारा मैं उस प्रभु का दर्शन करता हूँ जो कि (पृथुम्) = अत्यन्त विस्तृत हैं– सर्वव्यापक हैं । (तिरश्चा) = एक कोने से दूसरे कोने तक [तिरः अञ्च्] जानेवाले (वयसा) = [वेञ् तन्तुसन्ताने] इस सृष्टितन्तु के विस्तार से भी (बृहन्तम्) = बढ़े हुए वे प्रभु हैं-ये सारा ब्रह्माण्ड तो उनके एक देश में है। (व्यचिष्ठम्) = अत्यधिक विस्तारवाले वे प्रभु हैं-इस सारे ब्रह्माण्ड को उन्होंने घेरा हुआ है। (अन्नैः रभसम्) = इन अन्नों के द्वारा हमें शक्तिशाली [robust] बनानेवाले हैं। (दृशानम्) = दर्शनीय हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुदर्शन 'हवि व घृत' से होता है। वे प्रभु हमें अन्नोंद्वारा शक्तिशाली बनाते हैं।

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    विषय

    अग्निवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( विश्वा भुवनानि ) समस्त प्राणियों में जाठर रूप से और समस्त लोकों में अग्नि रूप से या व्यापक रूप से (प्रतिक्षियन्तं) विद्यमान, (तिरश्चा वयसा) तिरछे जाने वाले धूम से (पृथुं) फैलने वाले, (व्यचिष्ठं) और खूब फैलनेवाले, (अन्नैः रभसम्) खाद्य, काष्ठ आदि पदार्थों से वेग से बढ़ने वाले, (दृशानं) दीप्ति से दिखाई देने वाले अग्नि को (हविषा) चरु से और ( घृतेन ) घी से ( जिघर्मि ) सीचकर बढ़ाता हूं । उसी प्रकार (विश्वा भुननानि प्रतिक्षियन्तं ) समस्त प्राणियों में रहने वाले ( तिरश्चा ) तिर्यग् योनि में व्यापक (वयसा) जीवन रूप से ( पृथुं ) और भी अधिक विस्तृत ( बृहन्तं ) सदा बढ़नेवाले ( वि-अचिष्ठं ) विविध रूपों में व्यापक ( अन्नैः ) अन्नों द्वारा ( रभसं ) कार्य करने वाले ( इशानं ) द्रष्टृशक्ति, जीवात्मा रूप अग्नि को हम ( हविषा ) अन्न से और ( घृतेन ) जल से ( जिघर्मि ) सींचते, पुष्ट करते हैं। नायक जो सर्वत्र रहता है, बड़े व्यापक बल युक्त सैन्य से महान् है, खाद्य पदार्थों ऐश्वर्यों से विस्तृत, तेजस्वी बलवान् है उसको हम प्रजाजन कर और जल से अभिषिक्त करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:– १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप । ५ पङ्क्तिः । षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे संपूर्ण मूर्तिमान पदार्थात स्थित असलेली विद्युत अग्नीरूपी साधने संग्रहित करून सुगंधी पदार्थांचा होम करतात ती अनंत सुख भोगतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I light and sprinkle the fire with ghrta and fragrant oblations, fire, pervading all regions of the universe, vast, radiating in waves, expanding with life energy and splendour, extending and comprehending, mighty and impetuous with energy in velocity, beautiful and gracious with light and illumination.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of fire continues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholar I put oblations of ghee in the Holy Pit, along with good fragrant substances. All the creatures live in their planets and they grow and inhabit with other mundane substances like food grains etc. We should never loose sight of it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who know well the nature and properties of this fire, which is only one form of energy, and put in oblations of fragrant substances in the Holy Pits, they get eternal delight.

    Foot Notes

    (जिघर्मि) ज्वालायुक्त करोमि = Inflame it by oblations. ( प्रतिक्षियन्तम् ) पदार्थं पदार्थं प्रतिवसन्तम् । = Existing in all the substances. (व्यचिष्ठम् ) अतिशयेन व्याप्तम् । Absorbed deeply. ( दुशानम् ) दृश्यमानं दर्शयितारं वा । = Being looked or exposed to other substances.

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