ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
ज्ञे॒या भा॒गं स॑हसा॒नो वरे॑ण॒ त्वादू॑तासो मनु॒वद्व॑देम। अनू॑नम॒ग्निं जु॒ह्वा॑ वच॒स्या म॑धु॒पृचं॑ धन॒सा जो॑हवीमि॥
स्वर सहित पद पाठज्ञे॒याः । भा॒गम् । स॒ह॒सा॒नः । वरे॑ण । त्वाऽदू॑तासः । म॒नु॒ऽवत् । व॒दे॒म॒ । अनू॑नम् । अ॒ग्निम् । जु॒ह्वा॑ । व॒च॒स्या । म॒धु॒ऽपृच॑म् । ध॒न॒ऽसाः । जो॒ह॒वी॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्ञेया भागं सहसानो वरेण त्वादूतासो मनुवद्वदेम। अनूनमग्निं जुह्वा वचस्या मधुपृचं धनसा जोहवीमि॥
स्वर रहित पद पाठज्ञेयाः। भागम्। सहसानः। वरेण। त्वाऽदूतासः। मनुऽवत्। वदेम। अनूनम्। अग्निम्। जुह्वा। वचस्या। मधुऽपृचम्। धनऽसाः। जोहवीमि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वन् वरेण भागं सहमानस्त्वं यथाऽहं वचस्या जुह्वा मधुपृचमनूनमग्निं जोहवीमि तथा त्वं गृहाण यथा त्वादूतासो ज्ञेया धनसा विद्वांसो मनुवद्वदेत्तमुपदिशेयुस्तथैतं वयमपि वदेम ॥६॥
पदार्थः
(ज्ञेयाः) ज्ञातुं योग्याः (भागम्) भजनीयम् (सहसानः) सहमानः (वरेण) श्रेष्ठेन (त्वादूतासः) त्वं दूतो येषान्ते (मनुवत्) विद्वद्वत् (वदेम) उपदिशेम (अनूनम्) ऊनतारहितम् (अग्निम्) पावकम् (जुह्वा) ग्रहणसाधनया क्रियया (वचस्या) वचनैः सुसाध्या (मधुपृचम्) मधुरादिसम्बन्धिनम् (धनसाः) ये धनानि सनन्ति विभजन्ति ते (जोहवीमि) भृशं स्वीकरोमि ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाप्ता विद्वांसोऽग्न्यादिपदार्थविद्यां विदित्वाऽन्येषां हितायोपदिशन्ति तथा वयमप्येतद्विद्यामुपदिशेम ॥६॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति दशमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वन् ! (वरेण) श्रेष्ठ व्यवहार से (भागम्) सेवने योग्य पदार्थ को (सहसानः) सहते हुए आप जैसे मैं (वचस्या) वचनों में और (जुह्वा) ग्रहण करने में उत्तम क्रिया से (मधुपृचम्) मधुरादि पदार्थ सम्बन्धी (अनूनम्) बहुत (अग्निम्) अग्नि को (जोहवीमि) निरन्तर स्वीकार करता हूँ वैसे तुम ग्रहण करो जैसे (त्वादूतासः) तुम जिन महात्माओं के दूत हो (ज्ञेयाः) वे जानने योग्य (धनसाः) धनादि पदार्थों का विभाग करनेवाले विद्वान् जन (मनुवत्) विद्वान् के समान इसको उपदेश करें, वैसे इसको हम लोग भी (वदेम) कहें ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे आप्त विद्वान् जन अग्न्यादि पदार्थविद्या को जानकर औरों के हित के लिये उपदेश करते हैं, वैसे हमलोग भी विद्या का उपदेश करें ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ यह दसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
जुह्वा वचस्या
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (वरेण सहसान:) = श्रेष्ठ बुद्धि आदि के द्वारा हमारे शत्रुओं का पराभव करते हुए आप (भागम्) = [भज सेवायाम्] मुझ उपासक को (ज्ञेयाः) = जानें, अर्थात् मैं आपकी कृपादृष्टि से ओझल न हो जाऊँ । २. (त्वा दूतासः) = आपको ज्ञानसन्देशवाहक के रूप में प्राप्त करके हम (मनुववदेम) = विचारशील पुरुष की तरह सदा आपकी स्तुतियों का उच्चारण करें। ज्ञानपूर्वक आपका हम स्तवन करें। ३. (अनूनम्) = [न ऊनं] सर्वथा पूर्ण (अग्निम्) = अग्रणी (मधुपृचम्) = माधुर्य के साथ हमारे जीवन को संपृक्त करनेवाले आपको (जुह्वा) = आहुति द्वारा तथा (वचस्या) = स्तुति के द्वारा (जोहवीमि) = पुकारता हूँ। आपकी आराधना करनेवाला मैं (धनसाः) = धनों का संविभाग करनेवाला होता हूँ । वस्तुतः यह धनों का संविभाग ही आहुति है-यह प्राजापत्य यज्ञ में पड़नेवाली आहुति है। धनों का त्याग ही हमें प्रभु-प्रवण बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ - त्याग व स्तुति के द्वारा हम प्रभु की आराधना करनेवाले हों। प्रभु हमारे जीवन को मधुर बनाएँगे ।
विषय
अग्निवत् राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( वचस्या जुह्वा मधुपृचं ) शब्द करने या गर्जने वाली, अन्तरिक्ष में प्रकट वाणी विद्युद् गर्जना से जल और अन्न को देने वाली है और यज्ञ में जुह्वा-नाम पात्र से अग्नि मधुर अन्न, घृत आदि को लेता है । उसी प्रकार हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् विद्वन् ! नायक ! तू ( वरेण ) श्रेष्ठ एवं शत्रु के निवारण करने वाले बल से ( सहसानः ) शत्रुओं का विजय करता हुआ करता हुआ ( भागं ) अपने सेवनीय अंश राष्ट्र को ( ज्ञेयाः ) जान, प्राप्त कर। हम लोग ( त्वा दूतासः ) तुझको अपने प्रमुख मानने वाले अथवा ( दूतासः ) हम दूत गण ( त्वा ) तुझको ( मनुवत् ) विचारने योग्य मन्त्र के समान यह हित उपदेश करते हैं। ( वचस्या जुह्वा ) उत्तम वचनों से युक्त वाणी से तुझको मैं ( धनसाः ) ऐश्वर्य का विभाग करने हारा विचारपति, ( अनूनं ) न्यून भाग न लेने वाले ( मधुपृचं ) अन्न से सम्पर्क रखने हारे अर्थात् भोग्य पदार्थ का भागी ( जोहवीमि ) स्वीकर करता हूं । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:– १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप । ५ पङ्क्तिः । षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे आप्त विद्वान लोक अग्नी इत्यादी पदार्थविद्या जाणून इतरांच्या हितासाठी उपदेश करतात तसा आम्हीही उपदेश करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Know and abide by your share of the beauty, power and prosperity of life by the grace of Agni. Be patient, challenging and victorious at the peak of your conduct and performance. Let us all, your messengers, eloquent and rich in wealth and fire-power, speak and celebrate Agni as human power, preserver, protector and promoter of life. I invoke, enkindle, praise, serve and worship Agni, perfect power without a fault, replete with showers of honey-sweets.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of the scholars are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholar! with excellent behavior you bear all. The same way I also seek extensive fire ( knowledge) constantly, with our words, nice behavior and by having sweet substances. We also honor those great persons who are messengers of your teachings and are capable to distribute the wealth, property etc. proportionately. We say it, and it can not be challenged or contradicted.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here are two similes. The noble persons learn several sciences and thereafter preach it to others. Same way, we should also act.
Foot Notes
(भागम् ) भजनीयम् । = The acceptable substances (मधुपुचम् ) मधुरादिसम्बन्धिनम् । = Related to sweetness or softness of the substances. (त्वादूतासः ) त्वं दूतो येषान्ते = Of those who are your messengers. (धनसा:) ये धनानि सनन्ति विभजन्ति ते । = Those who divide and distribute wealth of the elders. (वचस्या:) वचनैः सुसाध्याः = The points to be tackled or decided with sweet words.
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