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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स के॒तुर॑ध्व॒राणा॑म॒ग्निर्दे॒वेभि॒रा ग॑मत्। अ॒ञ्जा॒नः स॒प्त होतृ॑भिर्ह॒विष्म॑ते॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । के॒तुः । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अ॒ग्निः । दे॒वेभिः॑ । आ । ग॒म॒त् । अ॒ञ्जा॒नः । स॒प्त । होतृ॑ऽभिः । ह॒विष्म॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स केतुरध्वराणामग्निर्देवेभिरा गमत्। अञ्जानः सप्त होतृभिर्हविष्मते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। केतुः। अध्वराणाम्। अग्निः। देवेभिः। आ। गमत्। अञ्जानः। सप्त। होतृऽभिः। हविष्मते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोपदेशककृत्यमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यथा स केतुरञ्जानोऽग्निर्देवेभिः सप्त होतृभिः सहाऽध्वराणां हविष्मत आगमत्तथा त्वमागच्छ ॥४॥

    पदार्थः

    (सः) (केतुः) ध्वज इव प्रज्ञापकः (अध्वराणाम्) अहिंसामयानां यज्ञानाम् (अग्निः) पावकइव (देवेभिः) दिव्यगुणैः पदार्थैरिव विद्वद्भिः (आ) (अगमत्) आगच्छेत् (अञ्जानः) प्रसिद्धो दिव्यान् गुणान् प्रकटीकुर्वन् (सप्त) सप्तभिः पञ्चप्राणमनोबुद्धिभिः (होतृभिः) आदातृभिः (हविष्मते) प्रशस्तानि हवींषि दातव्यानि यस्य तस्मै ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विज्ञाय संसेवितोऽग्निर्दिव्यान् गुणान् प्रयच्छति तथैव सेवित्वा आप्ता विद्वांसोऽहिंसादिलक्षणं धर्मं विज्ञाप्य दिव्यानि सुखानि श्रोतृभ्यो ददति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उपदेशक का कर्तव्य कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष ! जैसे (सः) वह (केतुः) ध्वजा के तुल्य प्रज्ञापक (अञ्जानः) दिव्य गुणों को प्रकट करता हुआ प्रसिद्ध (अग्निः) अग्नि (देवेभिः) दिव्य गुणोंवाले पदार्थों के तुल्य विद्वानों और (होतृभिः) ग्रहण करनेहारे (सप्त) पाँच प्राण, मन और बुद्धि के साथ (अध्वराणाम्) अहिंसारूप यज्ञों के सम्बन्धी (हविष्मते) प्रशस्त देने योग्य पदार्थोंवाले जन के लिये (आ, अगमत्) आवे प्राप्त होवे अर्थात् अग्निविद्यायुक्त होवे, वैसे तू प्राप्त हो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विज्ञान कर सम्यक् सेवन किया अग्नि दिव्य गुणों को देता है, वैसे ही सेवन किये आप्त विद्वान् जन अहिंसादि रूप धर्म को जताकर श्रोताओं के लिये दिव्य सुखों को देते हैं ॥४॥

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    विषय

    यज्ञ प्रकाशक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह (अध्वराणाम्) = सब हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों का (केतुः) = ज्ञान देनेवाला (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (देवेभिः) = दिव्यगुणों द्वारा (आगमत्) = प्राप्त होता है। हम जितना-जितना अच्छे गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते हैं, उतना उतना प्रभु के समीप होते चलते हैं। 'देव बनना' महादेव की प्राप्ति का महान् साधन है। [२] ये प्रभु (हविष्मते) = हविवाले पुरुष के लिए, यज्ञशील पुरुष के लिए, त्यागपूर्वक अदन करनेवाले पुरुष के लिए (सप्त होतृभिः) = इन दो कान, दो नासिकाछिद्र, दो आँखें व मुख रूप सात जीवनयज्ञ को चलानेवाले होताओं से (अञ्जानः) = व्यक्त किए जाते हैं। यज्ञशील-पुरुष की ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का प्रकाश उसे दिखता है जो कि दिव्यगुणों को धारण करने की कामना करे तथा हविष्मान् बने। प्रभु यज्ञों के प्रकाशक हैं।

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    विषय

    परमेश्वर का स्वात्म ज्ञान-दर्शन। अध्यात्म में अग्नि जीव।

    भावार्थ

    (अग्निः अध्वराणां केतुः) जिस प्रकार अग्नि यज्ञों का ज्ञान कराने वाला और (सप्तहोतृभिः अञ्जानः) सात होताओं द्वारा प्रकाशित होता है। उसी प्रकार (सः) वह (अध्वराणां) कभी नाश को प्राप्त न होने वाले जीवात्माओं और सत्कर्मों का (केतुः) ज्ञान देने और प्रकाशित करने वाला (अग्निः) तेजोमय परमेश्वर (देवेभिः) दिव्य गुणों, दिव्य पदार्थों और ज्ञानप्रकाशक विद्वानों द्वारा (आगमत्) हमें प्राप्त हो। वही (सप्तहोतृभिः) प्रकाश देने वाली सात रश्मियों से सूर्य के समान और सात प्राणों से आत्मा के समान (सप्त) सात वा सर्पणशील (होतृभिः) संसार के धारण करने वाले प्रवहण आदि सात तत्वों से, ज्ञान प्रदान करने वाले सात छन्दों से (हविष्मते) ‘हवि’ अर्थात् ज्ञान ग्रहण करने में समर्थ बुद्धि बल से युक्त पुरुष के लिये (अञ्जानः) अपने गुणों और ज्ञानों का प्रकाश करने हारा है । (२) अध्यात्म में—अग्नि आत्मा है। सब जीवनादि यज्ञों का चेताने वाला, देव अर्थात् विषयेच्छुक प्राणों या कामनाओं से प्रकट होता है। शिरोगत सात ग्राहक द्वारों से अन्नवान् देह को चेतन करने के लिये अपने को प्रकट या अभिव्यक्त करता है । (३) राजा सात विद्वान् शासकों द्वारा अपना शासन प्रकट करे और विद्वानों सहित अन्नादि सम्पन्न प्रजा के पालन के लिये आवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५, ८ विराडुष्णिक्। ३ उष्णिक्। ४, ६, ७, ९ निचृदुष्णिक्। २ भुरिग् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विज्ञानाने सम्यक सेवन केलेला अग्नी दिव्य गुण देतो, तसेच आप्त विद्वान लोक अहिंसा इत्यादी लक्षणाने धर्म जाणवून देऊन श्रोत्यासाठी दिव्य सुख देतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, that rising fire of the yajnas of love and non-violent creation, raised by seven divine performers, i.e., five pranas, one mind and one intellect, or, five priests and the yajamana couple, comes as a flaming messenger proclaiming the liberal gifts of yajna for the person who offers fragrant libations of holy materials into the fire. Agni comes with gifts and the devas, divinities of nature and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a preacher are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! a preacher of truth is lofty like a banner, famous and manifesting divine virtues and purifier like the fire. He comes to the person who offers oblations in the non-violent sacrifices with enlightened men like the divine articles. With seven substances which grasp different objects namely 5 Pranas (vital breaths) mind and intellect, You too should come.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Agni (fire electricity) when properly known and utilized gives divine attributes. Same way, the absolutely truthful enlightened persons when served well, instruct men about the Dharma (duties) consisting of the non-violence, truth and other virtues, and it bestows divine happiness upon the listeners.

    Foot Notes

    (केतु:) ध्वज इव प्रज्ञापकः। = Preacher of truth (lofty) like a flag or banner. (अकञ्जानः) प्रसिद्धो दिव्यान् गुणान् प्रकटी कुर्वन्। = Famous and manifesting divine virtues. (सप्त ) सप्तभि: पंचप्राणमनोबुद्धिभिः । = Seven namely five pranas (vital breaths) mind and intellect. (होतृभि:) आदत्तृभि:। = which take or grasp the different objects.

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