ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उ॒त नो॒ ब्रह्म॑न्नविष उ॒क्थेषु॑ देव॒हूत॑मः। शं नः॑ शोचा म॒रुद्वृ॒धोऽग्ने॑ सहस्र॒सात॑मः॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । ब्रह्म॑न् । अ॒वि॒षः॒ । उ॒क्थेषु॑ । दे॒व॒ऽहूत॑मः । शम् । नः॒ । शो॒च॒ । म॒रुत्ऽवृ॑धः । अग्ने॑ । स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नो ब्रह्मन्नविष उक्थेषु देवहूतमः। शं नः शोचा मरुद्वृधोऽग्ने सहस्रसातमः॥
स्वर रहित पद पाठउत। नः। ब्रह्मन्। अविषः। उक्थेषु। देवऽहूतमः। शम्। नः। शोच। मरुत्ऽवृधः। अग्ने। सहस्रऽसातमः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने त्वं ब्रह्मन्नुक्थेषु नोऽविष उत देवहूतमः सहस्रसातमस्त्वं मरुद्वृधो नः शं शोच प्रापय ॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (नः) अस्मान् (ब्रह्मन्) ब्रह्मणि धने (अविषः) व्यापयेत् (उक्थेषु) प्रशंसनीयपदार्थेषु (देवहूतमः) देवैर्विद्वद्भिरतिशयेन प्रशंसितः (शम्) सुखम् (नः) अस्माकम् (शोच) विचारय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मरुद्वृधः) मनुष्यैर्वर्धमानान् (अग्ने) अग्निरिव यशसा प्रकाशमान (सहस्रसातमः) यः सहस्रमसङ्ख्यं सनति ददाति सोऽतिशयितः ॥६॥
भावार्थः
मनुष्यैर्विदुषः प्राप्य प्रथमतो ब्रह्मचर्य्यविद्यादिग्रहणं ततो धनैश्वर्य्यवर्द्धनोपायो याचनीयो धनं प्राप्य सुपात्रेषु सन्मार्गे व्ययितव्यम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य कीर्त्ति से प्रकाशमान ! आप (ब्रह्मन्) धन और (उक्थेषु) प्रशंसनीय पदार्थों के निमित्त (नः) हमको (अविषः) संयुक्त कीजिये (उत) और (देवहूतमः) विद्वानों से अतिप्रशंसा को प्राप्त (सहस्रसातमः) असङ्ख्य उपदेश वा धनों को अत्यन्त देनेवाले आप (मरुद्वृधः) मनुष्यों से बढ़ते हुए (नः) हमारे (शम्) सुख का (शोच) विचार कीजिये वा सुख प्राप्त कीजिये ॥६॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के शरण जाके प्रथम से ब्रह्मचर्य्य विद्या आदि का ग्रहण तदनन्तर धन ऐश्वर्य्य की वृद्धि के उपाय की प्रार्थना करें और फिर धन को प्राप्त होके उत्तम विद्यावान् पुरुषों और श्रेष्ठ मार्ग में खर्चें ॥६॥
विषय
ब्रह्म+उक्थ (ज्ञान+स्तवन)
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (देवहूतमः) = आप देवों द्वारा अधिक से अधिक (आह्वान) = योग्य होते हैं। आप (नः) = हमें (ब्रह्मन्) = [ब्रह्मणि] ज्ञानप्राप्ति में (अविष:) = रक्षित करिए। आप से रक्षित होकर हम ज्ञान प्राप्त करनेवाले हों। उत और उक्थेषु स्तोत्रों में (अविष:) आप हमारा रक्षण करिए । आप से रक्षित हुए हुए हम स्तुति आदि कार्यों को सम्यक् सम्पन्न करनेवाले हों। [२] हे प्रभो ! आप (मरुद् वृधः) = प्राणों से बढ़नेवाले हैं। प्राणायाम से चित्तवृत्ति का निरोध होकर हमें आपका दर्शन होता है। (सहस्त्रसातमः) = आप हजारों धनों को देनेवाले हैं। आप (नः) = हमारे लिए (शम्) = शान्तिकर होते हुए शोच-दीप्त होइए। आपके उपासन से हमें शान्ति व दीप्ति प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे ज्ञान व स्तवन की वृत्ति को बढ़ायें। हमें शान्ति व दीप्ति प्राप्त कराएँ ।
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! एवं ज्ञानवन् विद्वन् ! तू (मरुद् वृधः) स्वयं भी विद्वान् मनुष्यों, व्यापारी जनों और प्रजाओं और शत्रु को मारने वाले वीर सैनिकों के बल पर बढ़ने वाला और (सहस्र सातमः) सहस्रों ऐश्वर्यों को देने और स्वयं उपभोग करने में सर्वश्रेष्ठ और (उक्थेषु) प्रशंसा योग्य कार्यों और पदों पर भी (देवहूतमः) विद्वानों द्वारा अति प्रशंसित, एवं कामनावान् प्रिय पुरुषों द्वारा प्रेम से बुलाये जाने योग्य, विद्वानों को अपनी शरण में लेने हारा है। ऐसा तू (नः) हमें (ब्रह्मन्) बड़े भारी धनैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (अविषः) व्याप, एवं रक्षा कर और (नः) हम (मरुद्-वृधः) सामान्य व्यापारी प्रजाओं के बल पर बढ़ने वाले प्रजाजनों को भी (शं) शान्ति सुख (शोच) प्रदान कर। (२) विद्वान् जन (उक्थेषु) सूक्तों में (देवहूतमः ) विद्याभिलाषी जनों का उत्तम उपदेष्टा है (वह मरुद्-वृधः) शिष्य गणों से बढ़ने वाला, सहस्रों ज्ञानों का दाता होकर ब्रह्मज्ञान के निमित्त हमें ज्ञानवान् करे और हमें शान्ति प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १ भुरिगुष्णिक्। २, ३,५, ६, ७ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी विद्वानांना शरण जाऊन प्रथमपासून ब्रह्मचर्य विद्या इत्यादींचे ग्रहण करावे. त्यानंतर धन ऐश्वर्याच्या वृद्धी उपायासाठी प्रार्थना करावी व पुन्हा धन प्राप्त करून उत्तम विद्यायुक्त पुरुषांसाठी व श्रेष्ठ कार्यासाठी खर्च करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord and light of infinity, let us flow with infinity. Lord most invoked by brilliant people and adored by divine powers of nature, let us advance into celebrations and service of Divinity. Lord adored and exalted by the Maruts, dynamic people and the winds, let peace shine on us and let us shine in peace. Agni, you are the giver of a thousand blessings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are enumerated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! shining with good reputation like the fire, pervade us in the acquisition of all good objects and wealth. You are praised much among the enlightened men and give thousands of articles. You always think of our welfare. You augment their power with the association of good men and lead us towards the happiness and peace.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of all men to approach the enlightened persons, first to observe, Brahmacharys and seek knowledge, and secondly to adopt the means of multiplying wealth, with its proper distribution among the deserving persons.
Foot Notes
(देवहूतमः) देवैविद्वभ्दिरतिशयेन प्रशंसितः । सत्यसंहिता वै देवाः'।। (ऐत. 1, कोषि 2, 6) विद्वान्सौ हि देवाः। (Stph 3, 7, 3, 10) = Much praised by the enlightened persons. (ब्रह्मन्) ब्रह्मणि धंने । ब्रह्मेति धनानाम (N.G. 2, 10) = In the acquisition of wealth.
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