ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
उच्छो॒चिषा॑ सहसस्पुत्र स्तु॒तो बृ॒हद्वयः॑ शशमा॒नेषु॑ धेहि। रे॒वद॑ग्ने वि॒श्वामि॑त्रेषु॒ शं योर्म॑र्मृ॒ज्मा ते॑ त॒न्वं१॒॑ भूरि॒ कृत्वः॑॥
स्वर सहित पद पाठउत् । शो॒चिषा॑ । स॒ह॒सः॒ । पु॒त्र॒ । स्तु॒तः । बृ॒हत् । वयः॑ । श॒श॒मा॒नेषु॑ । धे॒हि॒ । रे॒वत् । अ॒ग्ने॒ । वि॒श्वामि॑त्रेषु । शम् । योः । म॒र्मृ॒ज्म । ते॒ । त॒न्व॑म् । भूरि॑ । कृत्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छोचिषा सहसस्पुत्र स्तुतो बृहद्वयः शशमानेषु धेहि। रेवदग्ने विश्वामित्रेषु शं योर्मर्मृज्मा ते तन्वं१ भूरि कृत्वः॥
स्वर रहित पद पाठउत्। शोचिषा। सहसः। पुत्र। स्तुतः। बृहत्। वयः। शशमानेषु। धेहि। रेवत्। अग्ने। विश्वामित्रेषु। शम्। योः। मर्मृज्म। ते। तन्वम्। भूरि। कृत्वः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे भूरि कृत्वः सहस्पुत्राग्ने ! स्तुतस्त्वं शोचिषा शशमानेषु विश्वामित्रेषु रेवद्बृहद्वयो भूरि शं धेहि। योर्मर्मृज्मा त्वन्ते तन्वमुद्धेहि ॥४॥
पदार्थः
(उत्) (शोचिषा) तेजसा (सहसः) (पुत्र) बलस्योत्पादक (स्तुतः) प्रशंसितः (बृहत्) महत् (वयः) कमनीयमायुः (शशमानेषु) भोगाभ्यासोल्लङ्घनेषु (धेहि) (रेवत्) प्रशस्तधनयुक्तम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान वैद्यराज विद्वन् (विश्वामित्रेषु) विश्वं मित्रं सुहृद्येषान्तेषु (शम्) सुखम् (योः) दुःखवियोजकः सुखसंयोजकः (मर्मृज्मा) भृशं शुद्धः शोधयिता (ते) तव (तन्वम्) भूरि) बहु (कृत्वः) बहवः कर्त्तारो विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥४॥
भावार्थः
हे पुरुषाः युष्माभिः ब्रह्मचर्य्येण विद्यायुषी वर्द्धयित्वा सर्वैः सह मित्रतां कृत्वा सर्वे दीर्घायुषो बृहद्विद्याः सम्पादनीयाः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (भूरि) (कृत्वः) बहुत पुरुषों से रचित (सहसस्पुत्र) बल के उत्पादक (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी वैद्यराज विद्वान् ! (स्तुतः) प्रशंसायुक्त आप (शोचिषा) तेज से (शशमानेषु) भोग अभ्यास उल्लङ्घनों तथा (विश्वामित्रेषु) संपूर्ण जनों के मित्रों में (रेवत्) प्रशंसा करने योग्य धन से युक्त (बृहत्) अधिक (वयः) कामना योग्य अवस्था और बहुत (शम्) सुख को दीजिये (योः) दुःख के नाशक (मर्मृज्मा) अति पवित्र वा पवित्रकारक आप (ते) अपने (तन्वम्) शरीर को (उत्) (धेहि) स्थिर कीजिये ॥४॥
भावार्थ
हे पुरुषो ! आप लोगों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य द्वारा विद्या और अवस्था बढ़ा सब लोगों के साथ मित्रता करके सकल जनों को अधिक अवस्थायुक्त तथा बहुत विद्यावान् करो ॥४॥
विषय
ज्ञानयुक्त उत्कृष्ट जीवन
पदार्थ
[१] हे (सहसः) = पुत्र बल के (पुतले) = बल के पुञ्ज प्रभो! आप (शशमानेषु) = शंसन व स्तवन करनेवालों में अथवा प्लुत गतिवालों, अर्थात् स्फूर्ति के साथ कार्य करनेवालों में (उत् शोचिषा) = उत्कृष्ट ज्ञानदीप्ति के साथ (बृहद्वयः) = दीर्घ जीवन को (धेहि) = धारण करिए। इनको ज्ञानयुक्त दीर्घजीवन प्राप्त कराइये। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (विश्वामित्रेषुः) = इन सब के प्रति स्नेह की वृत्तिवालों में रेवत्-धन से युक्त शंयोः शान्ति व भयों के यावन (दूरीकरण) को (धेहि) = स्थापित करिए। इन्हें धन की कमी न हो । शान्तियुक्त इनका जीवन हो, ये निर्भय व नीरोग हों। (३) हे प्रभो! हम इसी उद्देश्य से ते (तन्वम्) = आपके इस शरीर को (भूरिकृत्य:) = बहुत बार (मर्मृज्म) = शुद्ध करते हैं । इस शरीर को आपका जानते हुए इसे मलिन नहीं होने देते।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्तोताओं को उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति के साथ वृद्धिशील जीवन प्राप्त हो। इस जीवन में 'धन, शान्ति व निर्भयता' हो। हम शरीर को प्रभु का समझें और मलिन न करें।
विषय
उत्तम राजा का कर्त्तव्य। सर्वस्नेही उत्तम पुरुषों में शक्ति स्थापन करके उपद्रवों को शान्त करने का उपदेश
भावार्थ
हे (सहसः पुत्र) शत्रु को पराजित करने योग्य बल के सञ्चालक और उत्पादक ! तू (स्तुतः) स्तुतियुक्त, प्रशंसित एवं उच्च पद पर प्रस्तुत होकर (शोचिषा) दीप्ति से अग्नि के समान तेजस्वी होकर (शशमानेषु) प्रशंसा करने योग्य और (विश्वामित्रेषु) सबके स्नेही, सबसे मित्रभाव से रहने वाले पुरुषों में (रेवत्) धनैश्वर्य से युक्त राष्ट्र और (बृहत् वयः) बड़ा भारी बल, सैन्य (उत् धेहि) उत्तम रूप में स्थापित कर । राजा सैन्य आदि का भार उत्तम प्रशंसनीय सर्वस्नेही निष्पक्षपात पुरुषों के कन्धे पर रक्खे, जिससे राष्ट्र में (शं) शान्ति और (योः) दुःखों और उपद्रवों का नाश हो। हे (कृत्वः) क्रियाशील, उत्तम कर्मों के करने वाले कर्मण्य पुरुष ! इसीलिये हम (ते) तेरे (तन्वं) शरीर को एवं विस्तृत राष्ट्र को (भूरि) बहुत २ (मर्मृज्म) शुद्ध करें, अभिषिक्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे पुरुषांनो! तुम्ही ब्रह्मचर्याद्वारे विद्या व आयू वाढवून सर्व लोकांबरोबर मैत्री करून सर्व लोकांना दीर्घायू व विद्यावान करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, spirit of power and courage, holding immense wealth of life, rising with light and lustre and served and worshipped with divine verses, bear, bring and in-vest good health, long age and ample wealth, peace and freedom among the zealous celebrants and lovers and favourites of entire humanity. Lord of great action, we refine and brighten your form and potential more and ever more.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of learned persons still goes on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O son of mighty person ! O physician ! eradicating diseases like the fire you have many medical and paramedical workers co-operating in the noble work. Praised by us they give with splendor, great vital power, wealth and long life to those who have risen above the mundane targets for enjoyment and are friendly to all. Grant them health and happiness and freedom from sickness and danger. You are pure and purifier and bestow happiness sand eradicate all diseases and thus develop well your body, mind and soul.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should develop your knowledge and span of life by the observance of Brahmacharya and cultivating friendship with all. Try to make all endowed with knowledge and long life.
Foot Notes
( शशमानेषु ) भोगाभ्यासोल्लङ्घनेषु। = Those who have risen above the desire of mere wordly enjoyments. (अग्ने) पावकवद्वर्तमान वैद्यराज विद्वन् |= = O good physician burning diseases like the fire. (ममंज्मा ) भृशं शुद्ध: शोधयिता। = Pure and purifier.
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