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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कतो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कृ॒धि रत्नं॑ सुसनित॒र्धना॑नां॒ स घेद॑ग्ने भवसि॒ यत्समि॑द्धः। स्तो॒तुर्दु॑रो॒णे सु॒भग॑स्य रे॒वत्सृ॒प्रा क॒रस्ना॑ दधिषे॒ वपूं॑षि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒धि । रत्न॑म् । सु॒ऽस॒नि॒तः॒ । धना॑नाम् । सः । घ॒ । इत् । अ॒ग्ने॒ । भ॒व॒सि॒ । यत् । समि॑द्धः । स्तो॒तुः । दु॒रो॒णे । सु॒ऽभग॑स्य । रे॒वत् । सृ॒प्रा । क॒रस्ना॑ । द॒धि॒षे॒ । वपूं॑षि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृधि रत्नं सुसनितर्धनानां स घेदग्ने भवसि यत्समिद्धः। स्तोतुर्दुरोणे सुभगस्य रेवत्सृप्रा करस्ना दधिषे वपूंषि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृधि। रत्नम्। सुऽसनितः। धनानाम्। सः। घ। इत्। अग्ने। भवसि। यत्। समिद्धः। स्तोतुः। दुरोणे। सुऽभगस्य। रेवत्। सृप्रा। करस्ना। दधिषे। वपूंषि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सुसनितरग्ने ! यद्यस्त्वं समिद्धोऽग्निरिव सुसमिद्धो भवसि स घ धनानां रत्नं कृधि सुभगस्य स्तोतुरिद्दुरोणे यौ सृप्रा करस्ना ते भवतस्ताभ्यां रेवद्वयूंषि च दधिषे स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥५॥

    पदार्थः

    (कृधि) कुरु (रत्नम्) रमणीयन्धनम् (सुसनितः) सुष्ठुसंविभाजक (धनानाम्) सुवर्णादीनाम् (सः) (घ) एव (इत्) इव (अग्ने) विद्युद्वद्धनवर्द्धक (भवसि) (यत्) यः (समिद्धः) प्रदीप्तः (स्तोतुः) ऋत्विजः प्रशंसकस्य (दुरोणे) गृहे (सुभगस्य) वरैश्वर्य्यस्ये (रेवत्) प्रशस्तधनयुक्तम् (सृप्रा) सर्प्पन्ति प्राप्नुवन्ति याभ्यां तौ (करस्ना) बाहू। करस्नौ बाहू कर्मणाम्प्रस्नातारौ। निरु०। ६। १७। (दधिषे) धरसि (वपूंषि) रूपवन्ति शरीराणि ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्यान्सुक्षिक्ष्य पुरुषार्थेन संयोज्य विद्याधनयुक्तान् कृत्वा सुसभ्यान्दीर्घायुषः संपादयेयुरिति ॥५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टादशं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (सुसनितः) उत्तम प्रकार दानविभागकारी (अग्ने) बिजुली के समान शीघ्र धनवृद्धिकर्त्ता ! (यत्) जो आप (समिद्धः) प्रकाशमान अग्नि के सदृश प्रकाशमान होते (सः, घ) सो ही (धनानाम्) सुवर्ण आदि रूप धनों में (रत्नम्) उत्तम धन को (कृधि) संयुक्त कीजिये (सुभगस्य) उत्तम ऐश्वर्य्य और (स्तोतुः) हवनकर्त्ता वा प्रशंसाकर्त्ता के (इत्) समान (दुरोणे) गृह में जो (सृप्रा) अभीष्टस्थान की प्राप्तिकारक (करस्ना) कर्मों की शुद्धिकारक आपके बाहुओं और (रेवत्) उत्तमधनयुक्त (वपूंषि) रूपवत् शरीरों को (दधिषे) धारण करते हो वह आप हम लोगों से आदर करने योग्य हो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! आप लोगों को चाहिये कि मनुष्यों को उत्तम प्रकार शिक्षा तथा पुरुषार्थ से युक्त और विद्या धनयुक्त करके उत्तम सभ्य चिरञ्जीवी जन बनाइये ॥५॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह अठारहवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'धन, क्रियाशील भुजाएँ व उत्तम रूप'

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (धनानां सुसनित:) = धनों के उत्तम दाता आप (यत्) = जब (समिद्धः भवसि) = हृदयों में दीप्त किये जाते हैं तो (सः) = वे आप (घा इत्) = निश्चय से ही (रत्नं) = हमारे लिए रमणीय धनों को (कृधि) = करिए। [२] (सुभगस्य) = उत्तम ज्ञानवाले [भग = ज्ञान] (स्तोतुः) = स्तोता के दुरोणे गृह में (रेवत्) = धनयुक्त (सृप्रा) = कार्यों में सर्पणशील (करस्ना) = बाहुओं को तथा (वपूंषि) = उत्कृष्टरूपवाले शरीरों को दधिषे धारण करते हैं। ज्ञानी स्तोता 'धन को, कार्यव्याप्त भुजाओं को तथा उत्कृष्ट रूपवाले शरीरों को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक को 'धन, क्रियाशील भुजाएँ व उत्कृष्टरूप सम्पन्न शरीर' प्राप्त होता है। उपासना के लाभों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि- [क] उत्तम मन की प्राप्ति होती है, [ख] कार्यसिद्धि मिलती है और [ग] विघ्नों का विनाश होता है । [१] प्रभु हमारे आन्तर शत्रुओं का दहन करते हैं, [२] स्फूतिबल और वासना- विनाशक दिव्य बुद्धि प्राप्त होती है, [३] ज्ञान ज्योति युक्त उत्कृष्ट जीवन मिलता है, [४] प्रभु हमें 'धन, क्रियाशील भुजाएँ व उत्तम रूप देते हैं। अगले सूक्त में यह प्रभु का स्तवन करनेवाला 'गाथी' 'कौशिक' है 'साधु विक्रोशयिता अर्थानाम्' [नि०] अर्थों का उत्तमता से प्रतिपादन करनेवाला है। यह अर्थों का ठीक निश्चय करता हुआ प्रभु का ही वरण करने का निश्चय करता है -

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    विषय

    राजा को सदा सहायतार्थ उद्यत होने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! हे (धनानां सनितः) धनों के दान और संविभाग करने हारे ! तू (रत्नं कृधि) रमण करने योग्य के उत्तम ऐश्वर्य उत्पन्न कर। (यत् समिद्धः) जब तू अच्छी प्रकार चमकता है तब तू (सः घ इत् भवसि) उसी प्रकार होता है। तू (सुभगस्य) उत्तम ऐश्वर्यवान् (स्तोतुः) स्तुतिकर्त्ता, विद्वान् पुरुष के (दुरोणे) घर में (रेवत्) ऐश्वर्य से युक्त (सृप्रा करस्ना) सदा सहायता के लिये आगे बढ़ने वाले बाहुओं को और (वपूंषि) उत्तम रूपवान् शरीरों का (दधिषे) धारण करता, पालता पोसता है। (२) स्वामी, पिता के समान ही परमेश्वर भी उपासक के घर में (करस्ना सृप्रा) आगे बढ़ने वाले कर्मों को शुद्ध करने वाले मन और वाणी देता और ऐश्वर्यवान् पुरुष के घर में उत्तम २ शरीर या जन्म देता है। इत्यष्टादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कतो वैश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! तुम्ही माणसांना उत्तम प्रकारे शिक्षण द्या. पुरुषार्थाने व विद्या-धनाने युक्त करून उत्तम सभ्य चिरंजीवी बनवा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of wealth, give us the jewel of wealth, generous giver as you are specially when lighted up in yajna. O lord of the wealth of existence, bearing a brilliant form in the house of the prosperous worshipper, you extend your generous hand to the supplicants.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature of the enlightened persons is mentioned

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni! you augment wealth like electricity. O proper distributor of riches ! you shine because of your virtues like the kindled fire. Earn charming wealth righteously in the form of gold and other articles. With your arms extended, you dwell in the home of a fortunate devotee. Indeed, he is admirer of noble virtues and things of beauty, and enables him to have beautiful bodies. Therefore you deserve honor from us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! it is your duty to impart good education to men, to make them industrious and to endow them with true knowledge and wealth. Make them well civilized and long lived.

    Foot Notes

    (सुसनित:) सुष्थुसविभाजक। = Just distributor of wealth. (करस्ना) बाहू करस्नो । बाहू कर्मणाप्रस्तातारौ ( N.R.T. 6, 17 ) = (अग्ने) विद्युद्वद धनवर्द्धक = Augmenter of wealth like electricity. (वपूंषि ) रुपवन्ति शरीराणि। वपुरिति रूपनाम। (N. G. 3, 7) = Beautiful bodies.

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