ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
माध्य॑न्दिने॒ सव॑ने जातवेदः पुरो॒ळाश॑मि॒ह क॑वे जुषस्व। अग्ने॑ य॒ह्वस्य॒ तव॑ भाग॒धेयं॒ न प्र मि॑नन्ति वि॒दथे॑षु॒ धीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठमाध्य॑न्दिने । सव॑ने । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । पु॒रो॒ळाश॑म् । इ॒ह । क॒वे॒ । जु॒ष॒स्व॒ । अग्ने॑ । य॒ह्वस्य॑ । तव॑ । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । न । प्र । मि॒न॒न्ति॒ । वि॒दथे॑षु । धीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माध्यन्दिने सवने जातवेदः पुरोळाशमिह कवे जुषस्व। अग्ने यह्वस्य तव भागधेयं न प्र मिनन्ति विदथेषु धीराः॥
स्वर रहित पद पाठमाध्यन्दिने। सवने। जातऽवेदः। पुरोळाशम्। इह। कवे। जुषस्व। अग्ने। यह्वस्य। तव। भागऽधेयम्। न। प्र। मिनन्ति। विदथेषु। धीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ के सुखिनो भवन्तीत्याह।
अन्वयः
हे जातवेदः कवेऽग्ने त्वमिह ये धीरा यह्वस्य तव विदथेषु भागधेयं न प्रमिनन्ति तच्छिक्षया सहितस्सन्माध्यन्दिने सवनेऽग्निरिव पुरोडाशं जुषस्व ॥४॥
पदार्थः
(माध्यन्दिने) मध्यदिनसम्बन्धिनि (सवने) होमादिकर्मणि (जातवेदः) उत्पन्नविज्ञान (पुरोडाशम्) सुसंस्कृतमन्नादिकम् (इह) अस्मिन्संसारे (कवे) प्राप्तप्रज्ञ (जुषस्व) (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (यह्वस्य) महतः। यह्व इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (तव) (भागधेयम्) भाग्यम् (न) निषेधे (प्र) (मिनन्ति) प्रहिंसन्ति (विदथेषु) विज्ञानेषु सङ्ग्रामेषु वा (धीराः) योगिनः ॥४॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्रातर्मध्याह्नसवने कृत्वा सुसंस्कृतान्नं मितं भुञ्जते त एव भाग्यशालिनः सन्तो महत्सुखं निश्चितं विजयं च प्राप्नुवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब कौन मनुष्य सुखी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (जातवेदः) विज्ञान से युक्त (कवे) उत्तम बुद्धिमान् (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजयुक्त ! आप (इह) इस संसार में जो (धीराः) योगी जन (यह्वस्य) श्रेष्ठ (तव) आपके (विदथेषु) विज्ञान वा संग्रामों में (भागधेयम्) भाग्य को (न) नहीं (प्र) (मिनन्ति) नाश करते हैं उस शिक्षा से सहित होकर (माध्यन्दिने) दिन के मध्य समय के (सवने) होम आदि कर्म में अग्नि के सदृश (पुरोडाशम्) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न आदि का (जुषस्व) सेवन करो ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्रातःकाल तथा दिन के मध्यभाग समय के होमों को करके उत्तम प्रकार छौंकने आदि से संस्कारयुक्त नित्य नियमित अन्न का भोजन करते हैं, वे ही भाग्यशाली होकर बड़े सुख और निश्चित विजय को प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
माध्यन्दिन-सवन में ज्ञानयज्ञ
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (कवे) = क्रान्तप्रज्ञ प्रभो ! (इह) = इस जीवन में माध्यन्दिन सवने जीवन के २५ से ६८ वर्ष तक के ४४ वर्ष के माध्यन्दिनसवन में (पुरोडाशम्) = इस सृष्टि के प्रारम्भ में दिये गये वेदज्ञान को (जुषस्व) = देने में प्रीतिवाले होइये [delight in granting] अर्थात् आपकी कृपा से इस जीवन के मध्याह्न में हम वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले हों। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (यह्वस्य) = महान् (तव) = आपके (भागधेयम्) = भाग को (धीराः) = ज्ञानी पुरुष (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (न प्रमिनन्ति) = हिंसित नहीं करते हैं, अर्थात् धीरपुरुष संसार के सब कार्यों को करते हुए भी स्वाध्याय के समय को समाप्त नहीं कर देते। इसे वे बड़ा पवित्र समय समझते हैं। यह समय ज्ञानयज्ञ द्वारा आपकी उपासना का होता है। यह 'माध्यन्दिन सवन' गृहस्थ का समय है। इसमें भी वे स्वाध्याय का विलोप नहीं होने देते।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन के माध्यन्दिनसवन में भी - २५ से ६८ वर्ष तक भी हम स्वाध्याय को विलुप्त न होने दें।
विषय
पक्षान्तर में आचार्य के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (कवे) विद्वन् ! हे (जातवेदः) विज्ञानवन् ! तू (माध्यन्दिने सवने) मध्याह्न काल में होने वाले ‘सवन’ अर्थात् होमादि कर्म, बलिवैश्वदेव आदि के हो चुकने पर (इह) यहां गृह में पुरोडाश को अग्नि के समान ही (पुरोडाशम्) आदरपूर्वक आगे स्थापित अन्न आदि भोज्य द्रव्य को (जुषस्व) प्रेम से सेवन कर। हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! (धीराः) बुद्धिमान् पुरुष (विदथेषु) विज्ञानों, संग्रामों, यज्ञों और प्राप्त होने वाले ऐश्वयों में से भी (तव यह्वस्य) तुझ महान् एवं शत्रु पर प्रयाण करने वाले राजा के समान विद्या मार्ग या देवयान ज्ञान मार्ग से जाने वाले का (भागधेयं न प्रमिनन्ति) भाग नष्ट नहीं करते। विद्वान् पुरुष निःसंकोच होकर मध्याह्न-सवन बलिवैश्व होम के अनन्तर अपना अंश प्रेमपूर्वक स्वीकार करें। (२) आचार्य पक्ष में— ‘पुरोडाश’ अर्थात् पुरस्थित विद्यादि से अलंकृत शिष्य को माध्यदिन सवन अर्थात् २४ से ३६ वर्ष की आयु तक के काल में भी प्रेम से रक्खें। ज्ञानों के ग्रहण के अवसरों में अपने (भागं) प्रेम से सेवा करने वाले को धीर पुरुष विनष्ट नहीं करते। (३) राजा का मध्यदिन सवन, सूर्य के समान अति प्रचण्ड ताप से शत्रु से संग्राम करने का अवसर है। उस समय भी वह उपायन, भेंट आदि प्रजा से ले, प्रजाएं राजा के उचित भाग का नाश नहीं करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ गायत्री। २, ६ निचृद्गायत्री। ३ स्वराडुष्णिक्। ४ त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे प्रातःकाळी व दिवसाच्या मध्यभागी होम करून उत्तम प्रकारे संस्कारयुक्त अन्न नित्य नियमित खातात, तेच भाग्यशाली बनून अत्यंत सुख व निश्चित विजय प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of vision and imagination, omniscient and omnipotent, ever vigilant on the move, come and share your part of the delicacies in the middle session of the day’s yajna. Yajakas of constant devotion never transgress their dedication and commitment to you, they never fail to make the offering.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who enjoy happiness is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise and learned person ! you purify like the fire, and accept this PURODĀSHA (a kind of cake with butter) in pursuance of the teaching of the Yogis (or thoughtful persons). Those Yogis do not transgress the destiny in the dealings of knowledge or battles, of the who are great. Accept it like the fire in this afternoon session of the Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are fortunate, enjoy great happiness and achieve decided victory, who perform Homa (daily sacrifice) in the morning and afternoon and take PURODĀSHA or PRASĀDA (well-cooked good food) afterwards.
Foot Notes
(यह्वस्य) महतः। यह्व इति महान्ननाम। (N. G. 3, 3) = The great. (मिनन्ति) प्रहिन्सन्ति। = Kill.
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