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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे पुरुहू॒तमुप॑ ब्रुवे। भरे॑षु॒ वाज॑सातये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । भरे॑षु । वाज॑ऽसातये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वृत्राय हन्तवे पुरुहूतमुप ब्रुवे। भरेषु वाजसातये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। वृत्राय। हन्तवे। पुरुऽहूतम्। उप। ब्रुवे। भरेषु। वाजऽसातये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे सेनास्थवीरा यथा सेनाधीशोऽहं वृत्राय हन्तवे भरेषु वाजसातये पुरुहूतमिन्द्रमुपब्रुवे तथा यूयमप्येतमुपब्रुवन्तु ॥५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यप्रदम् (वृत्राय) मेघ इव न्यायावरकाय शत्रवे (हन्तवे) हन्तुम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतं प्रशंसितं वा (उप) समीपे (ब्रुवे) कथयामि (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (वाजसातये) धनादिसंविभागाय ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा सङ्ग्रामः प्रवर्त्तेत तदा योधॄन्प्रत्यध्यक्षैर्यथा विजयः स्यात्तथोपदेष्टव्यम्। योद्धारश्चाधिष्ठातॄणामाज्ञायां सर्वथा वर्त्तेरन्नेवं सति कुतः पराजयः ?॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे सेना में वर्त्तमान वीर पुरुषो ! जिस प्रकार सेना का अधीश मैं (वृत्राय) न्याय के आवरण करनेवाले शत्रु के (हन्तवे) नाश के लिये तथा (भरेषु) संग्रामों में (वाजसातये) धन आदि को बाँटने के लिये (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे वा प्रशंसा किये गये (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले राजा को (उप) समीप में (ब्रुवे) कहता हूँ वैसे आप लोग भी इसके समीप कहो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब संग्राम प्रवृत्त होवै तो योधाओं के प्रति अध्यक्ष पुरुषों को चाहिये कि जिस प्रकार विजय हो वैसा उपदेश दें और योद्धा लोग अधिष्ठाता पुरुषों की आज्ञा में सब प्रकार वर्त्तमान होवैं, ऐसा करने से कैसे पराजय हो ? ॥५॥

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    विषय

    संग्राम में शक्तिलाभ

    पदार्थ

    [१] मैं (इन्द्रम्) = उस शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभु को (उपब्रुवे) = पुकारता हूँ, ताकि (वृत्राय हन्तवे) = वे प्रभु मेरे ज्ञान पर आवरणभूत इस वृत्र का हनन करनेवाले हों- मुझे 'वार्त्रहत्यशवस्' प्राप्त कराएँ । [२] मैं (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारे जानेवाले उस प्रभु को (उपब्रुवे) = पुकारता हूँ, ताकि (भरेषु वाजसातये) = इन काम-क्रोध-लोभ आदि के साथ चलनेवाले संग्राम में वे मुझे शक्ति के प्राप्त करानेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वृत्र के विनाश व संग्राम में शक्ति की प्राप्ति के लिए मैं प्रभु को पुकारता हूँ ।

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    विषय

    पञ्चजन का स्पष्टीकरण

    भावार्थ

    (वृत्राय हन्तवे) विघ्नकारी, नगरादि को घेरने वाले, बढ़ते हुए शत्रु को दण्डित करने के लिये और (भरेषु) संग्रामों और प्रजा-पोषणकारी कार्यों, यज्ञों में (वाजसातये) ऐश्वर्य के लाभ के लिये (पुरु-हूतम्) बहुतों से प्रस्तुत (इन्द्रं) शत्रुदल के विदारक पुरुष को मैं प्रजाजन (उपब्रुवे) चाहता हूं। (२) अध्यात्म में ‘पुरु’ इन्द्रियगण, वाज ज्ञान। वृत्र अज्ञान। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३, ७ निचृद्गायत्री। २, ४-६,८-१० गायत्री। ११ निचृदनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने युद्धात योद्ध्यांना विजय प्राप्त होईल असा उपदेश करावा व योद्ध्यांनी राजाची आज्ञा पालन करावी. असे केल्यामुळे पराभव कसा होईल? ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I invoke Indra, invoked and worshipped by all, for the destruction of evil and victory in life’s battles for food, energy, prosperity and progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and attributes of a king are told in the fifth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave warriors of the army! I the Chief Commander of the Army invoke Indra, (a king-giver of abundant wealth). He is invited and praised by many in order to give a crushing defeat to the enemy. He awards justice like a cloud, in the battle for the distribution of wealth and other thing. So you should also invite him to do likewise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When a battle is on, the Commanders should tell the warriors about the target and means of achieving victory, and the warriors should obey the commands of their officers. How can there be defeat when this tradition and norms are strictly observed.

    Foot Notes

    (वृत्राय) मेघ इव न्यायावरकाय शत्रवे । = For an enemy who covers justice like a cloud.

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