ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
ह॒र्यन्नु॒षस॑मर्चयः॒ सूर्यं॑ ह॒र्यन्न॑रोचयः। वि॒द्वांश्चि॑कि॒त्वान्ह॑र्यश्व वर्धस॒ इन्द्र॒ विश्वा॑ अ॒भि श्रियः॑॥
स्वर सहित पद पाठह॒र्यन् । उ॒षस॑म् । अ॒र्च॒यः॒ । सूर्य॑म् । ह॒र्यन् । अ॒रो॒च॒यः॒ । वि॒द्वान् । चि॒कि॒त्वान् । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । व॒र्ध॒से॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑ । अ॒भि । श्रियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हर्यन्नुषसमर्चयः सूर्यं हर्यन्नरोचयः। विद्वांश्चिकित्वान्हर्यश्व वर्धस इन्द्र विश्वा अभि श्रियः॥
स्वर रहित पद पाठहर्यन्। उषसम्। अर्चयः। सूर्यम्। हर्यन्। अरोचयः। विद्वान्। चिकित्वान्। हरिऽअश्व। वर्धसे। इन्द्र। विश्वा। अभि। श्रियः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे हर्य्यन्नुषसं सूर्य्य इव सत्पुरुषांस्त्वमर्चयः। हे हर्य्यन् सूर्य्यं विद्युदिव न्यायमरोचयः। हे हर्य्यश्वेन्द्र यतश्चिकित्वान्त्सन् विश्वा अभिश्रियः प्राप्तुमिच्छसि तस्माद्वर्धसे ॥२॥
पदार्थः
(हर्यन्) कामयमान (उषसम्) प्रत्यूषकालमिव सत्पुरुषान् (अर्चयः) सत्कुरु (सूर्य्यम्) सवितारमिव न्यायम् (हर्यन्) प्राप्नुवन् प्रापयन् (अरोचयः) रोचय (विद्वान्) (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (हर्य्यश्व) हर्याः कामयमाना अश्वा आशुगामिनोऽग्न्यादयस्तुरङ्गा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (वर्धसे) (इन्द्र) धनमिच्छुक (विश्वाः) सर्वाः (अभि) आभिमुख्ये (श्रियः) शोभाः सम्पत्तयः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उषर्वद्विद्याप्रकाशाभिमुखाः सूर्यवद्धर्माचरणं कामयमानाः सन्तः प्रयत्नेनैश्वर्य्यमिच्छेयुस्ते सर्वथा श्रीमन्तो भूत्वा सततं वर्धन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (हर्यन्) कामना करनेवाले ! (उषसम्) प्रातःकाल को सूर्य के सदृश सत्पुरुषों का आप (अर्चयः) सत्कार करिये और हे (हर्य्यन्) अनेक पदार्थों को प्राप्त होने वा प्राप्त करानेवाले (सूर्यम्) सूर्य को बिजुली जैसे वैसे न्याय का (अरोचयः) प्रकाश करो और हे (हर्यश्व) कामना करते हुए शीघ्र चलनेवाले अश्व वा अग्नि आदि पदार्थों से युक्त (इन्द्र) धन की इच्छा करनवाले जिससे (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (विद्वान्) विद्वान् होते हुए (विश्वाः) संपूर्ण (अभि) सन्मुख वर्त्तमान (श्रियः) सुन्दर संपत्तियों को प्राप्त होने की इच्छा करते हो, इससे (वर्धसे) वृद्धि को प्राप्त होते हो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रातःकाल के सदृश विद्याओं के प्रकाश में तत्पर और सूर्य के सदृश धर्माचरण की कामना करते हुए प्रयत्न से ऐश्वर्य्य की इच्छा करें, वे सब प्रकार लक्ष्मीयुक्त होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥२॥
विषय
सोमरक्षण से 'ज्ञान व श्री' की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (हर्यन्) = सोमरक्षण की कामनावाला होता हुआ तू (उषसं अर्चय:) = [अत्यन्त संयोग में द्वितीया है] सम्पूर्ण उषा काल में प्रभु की अर्चना करता है- तू उषाकाल को अर्चना में व्यतीत करता है। यह प्रभु की अर्चना हृदय को पवित्र बनाती है और हमें सोमरक्षण के योग्य करती है । [२] (हर्यन्) = इस सोमरक्षण की कामनावाला होता हुआ तू (सूर्यम्) = ज्ञानसूर्य को (नः रोचयः) = दीप्त करनेवाला बन । यह रक्षित सोम ही तो तेरी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनेगा। [२] इस प्रकार (विद्वान्) = ज्ञानी व (चिकित्वान्) = [कित निवासे रोगापनयने च] उत्तम निवासवाला व नीरोग बनकर हे (हर्यश्व) = कान्तचमकते हुए इन्द्रियाश्वोंवाले (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (विश्वाः श्रियः अभि) = सब श्रियों व लक्ष्मियों की ओर (वर्धसे) = तू बढ़नेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की उपासना हमें सोमरक्षण के योग्य बनाती है, सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है। यह दीप्त ज्ञानाग्निवाला पुरुष श्री सम्पन्न बनता है।
विषय
गृहवत् राज्य में परस्पर आदर सत्कार और प्रेम का उपदेश।
भावार्थ
हे (हर्यन्) अर्थ, काम आदि की कामना करने वाले पुरुष ! (उषसम् अर्चयः) प्रार्थनाशील पुरुष जिस प्रकार उषःकाल को प्राप्त कर अर्चना करता है उसी प्रकार तू भी (उषसम्) गुणों में कमनीय सहचारी को प्राप्त कर, उसकी अर्चना आदर सत्कार कर। हे राजन् ! तू भी राज्य की कामना करने हारा होकर (उषसम्) उषा अर्थात् राष्ट्र को वश करने वाली तेजस्विनी और शत्रु को भस्म करदेने वाली सैन्य-शक्ति का (अर्चयः) आदर कर, उसकी आराधना, साधना कर, उसको महत्व दे। हे (हर्यन्) कामनाशील स्त्री तू भी (सूर्यम्) सूर्य के समान तेजस्वी एवं सन्तानोत्पादन में समर्थ पुरुष को (अरोचयः) हृदय से चाह। हे (हर्यन्) ऐश्वर्य की कामना करने वाले प्रजाजन तुम भी (सूर्यम्) सूर्यके समान तेजस्वी राजा को (अरोचयः) सदा चाहो। हे (हर्यश्व) वेगवान् अश्वादि साधनों से युक्त राजन् ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (चिकित्वान्) ज्ञानवान् और (विद्वान्) ऐश्वर्य को प्राप्त करने हारा या विद्यावान् होकर (विश्वा श्रियः अभि) समस्त लक्ष्मियों और सम्पदाओं तथा आश्रित प्रजाओं को प्राप्त करके (वर्धसे) वृद्धि को प्राप्त हो। इसी प्रकार हे (हर्यश्व) हरणशील इन्द्रियों वाले ! तू भी विद्वान् विवेकी हो कर समस्त सम्पदाओं को प्राप्त होकर वृद्धि को प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २ निचृद् बृहती। ३, ५ बृहती। ४ स्वराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे प्रातःकाळाप्रमाणे विद्येमध्ये तत्पर व सूर्याप्रमाणे धर्माचरणाची कामना बाळगतात व प्रयत्नपूर्वक ऐश्वर्याची इच्छा करतात ती सर्व प्रकारे श्रीमंत बनून सतत वर्धित होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord of love and beauty, you shine the dawn. Lord of light, you illuminate the sun. Lord omniscient, light of the world, Indra, riding the sun-rays, you create and augment all the beauty and wealth of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More light on the sun or solar energy is throws.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O desirous of acquiring wealth ! honor the gentlemen as the sun (in a way ) honors the dawn. You are desirous of the welfare of others, and therefore illuminate or manifest justice, like the electricity or the energy illuminates the sun. O man! you possess speedy willing horses (or fire, electricity etc.) which are capable to carry you on methodically utilization to distant places. Being learned and intelligent you desire to achieve prosperity and beauty. Therefore, you grow.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The wealthy persons constantly grow from all sides and are always inclined towards the light of knowledge like the dawn. They desire to observe righteousness like the Sun and wish to acquire wealth industriously.
Foot Notes
(उषसम् ) प्रत्यूषकालमिव सत्पुरुषान् = Good men like the beautiful dawn. (सूर्य्यम्) सवितारमिव न्यायम् = Justice like the sun.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal