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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒रुत्व॑न्तं वृष॒भं वा॑वृधा॒नमक॑वारिं दि॒व्यं शा॒समिन्द्र॑म्। वि॒श्वा॒साह॒मव॑से॒ नूत॑नायो॒ग्रं स॑हो॒दामि॒ह तं हु॑वेम॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्व॑न्तम् । वृष॒भम् । व॒वृ॒धा॒नम् । अक॑वऽअरिम् । दि॒व्यम् । शा॒सम् । इन्द्र॑म् । वि॒श्वा॒ऽसहम् । अव॑से । नूत॑नाय । उ॒ग्रम् । स॒हः॒ऽदाम् । इ॒ह । तम् । हु॒वे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम्। विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्वन्तम्। वृषभम्। ववृधानम्। अकवऽअरिम्। दिव्यम्। शासम्। इन्द्रम्। विश्वाऽसहम्। अवसे। नूतनाय। उग्रम्। सहःऽदाम्। इह। तम्। हुवेम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यूयमिह नूतनायावसे यं मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं विश्वासाहमुग्रं सहोदामिन्द्रं शासन्नूतनायावसे प्रशंसत तं वयं हुवेम॥५॥

    पदार्थः

    (मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो मनुष्या विद्यन्ते यस्य तम् (वृषभम्) बलिष्ठम् (वावृधानम्) वर्द्धमानं वर्द्धयितारं वा (अकवारिम्) अविद्यमानशत्रुम् (दिव्यम्) शूद्धगुणकर्मस्वभावम् (शासम्) प्रशासितारम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवन्तम् (विश्वासाहम्) सर्वसहम् (अवसे) रक्षणाद्याय (नूतनाय) नवीनाय (उग्रम्) दुष्टानां दमयितारम् (सहोदाम्) बलप्रदम् (इह) अस्मिन् राज्यव्यवहारे (तम्) (हुवेम) प्रशंसेम ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः स एव स्वकीयो राजा कर्त्तव्यो यस्मिन् सर्वे राजधर्माः साङ्गोपाङ्गा वर्त्तन्ते ॥५॥ अत्र राजसूर्य्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति सप्तचत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (इह) इस राज्यव्यवहार में (नूतनाय) नवीन (अवसे) रक्षण आदि के लिये जिस (मरुत्वन्तम्) प्रशंसा करने योग्य मनुष्य हों जिसके उस और (वृषभम्) बलवाले और (वावृधानम्) बढ़ने वा बढ़ानेवाले (अकवारिम्) शत्रुओं से रहित (दिव्यम्) शुद्ध गुण-कर्म और स्वभाव से युक्त (विश्वासाहम्) सबको सहने और (उग्रम्) दुष्टों के नाश करने (सहोदाम्) बल के देने और (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाले (शासम्) शासन करनेवाले की प्रशंसा करो (तम्) उसकी हम लोग (हुवेम) प्रशंसा करें ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि उसीको अपना राजा करें कि जिसमें सम्पूर्ण राजा के धर्म अङ्ग और उपाङ्ग सहित वर्त्तमान हैं ॥५॥ इस सूक्त में राजा और सूर्य्य के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह सैंतालीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सहोदा प्रभु

    पदार्थ

    [१] हम (नूतनाय अवसे) = नवतर-अत्यन्त स्तुत्य रक्षण के लिये (तम्) = उस (विश्वासाहम्) = सब शत्रुओं का मर्षण करनेवाले, (उग्रम्) = तेजस्वी, (सहोदाम्) = बल को देनेवाले (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (हुवेम) = पुकारते हैं। उस प्रभु ने ही तो हमारे काम आदि शत्रुओं का संहार करना है। [२] उस प्रभु को पुकारते हैं, जो कि (मरुत्वन्तम्) = प्रशस्त प्राणोंवाले हैं हमारे लिए प्रशस्त प्राणों को देनेवाले हैं। इन प्राणों को प्राप्त कराके (वृषभम्) = हमारे पर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (वावृधानम्) = हमारा अत्यन्त ही वर्धन करनेवाले हैं। (अकवारिम्) = [अकुत्सितम् इयर्तिं आप्टे] अकुत्सित ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं प्रभु स्वयं ऐश्वर्य के निधान हैं। (दिव्यम्) = प्रकाश के पुञ्ज हैं और (शासम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में वेदवाणी द्वारा हमारे कर्तव्यों का अनुशासन करनेवाले हैं। इस अनुशासन में चलना हमारी सतत वृद्धि का कारण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त होगा। सम्पूर्ण सूक्त प्राणसाधना पर बल दे रहा है। यह प्राणसाधना ही सब उन्नतियों का कारण बनती है। इसी से सोम का रक्षण होता है। अगले सूक्त में सब कार्यों के साधक इस सोमपान का ही वर्णन है—

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी त्यालाच राजा करावे ज्याच्यामध्ये संपूर्ण राजधर्म पाळण्याची क्षमता असते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Here on the yajna vedi of our social order, for the latest modes of defence and protection, we invoke, exalt and celebrate Indra, commander of the stormy troops of Maruts, virile and generous with showers of favours, progressive and advancing in glory, universal friend having no enemies, heavenly, noble ruler, mighty glorious, all patient and all victorious, blazing brave and giver of strength and fortitude.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sphere of a ruler is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! we invoke and praise you for our protection in this task of ruling the State. Such a person should have dependable and capable men under him, is the mightiest, augments his glories and should be devoid of adversaries. A person of divine or pure merits, actions and temperaments, efficient administrator, endure of all troubles, he subdues the wicked and gives strength to the right persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The people should elect only such a man as their representative ruler, who is possessed of all the characteristics of an ideal administrator.

    Foot Notes

    (अकवारिम् ) अविद्यमानशत्रुम् । = Devoid of enemies. (उग्रम) दुष्टानां दमयितारम् । The subduer of the wicked.

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