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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं सी॒मकृ॑ण्व॒न्तम॑से वि॒पृचे॑ ध्रु॒वक्षे॑मा॒ अन॑वस्यन्तो॒ अर्थ॑म्। तं सूर्यं॑ ह॒रितः॑ स॒प्त य॒ह्वीः स्पशं॒ विश्व॑स्य॒ जग॑तो वहन्ति ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । सी॒म् । अकृ॑ण्वन् । तम॑से । वि॒ऽपृचे॑ । ध्रु॒वऽक्षे॑माः । अन॑वऽस्यन्तः । अर्थ॑म् । तम् । सूर्य॑म् । ह॒रितः॑ । स॒प्त । य॒ह्वीः । स्पश॑म् । विश्व॑स्य । जग॑तः । व॒ह॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं सीमकृण्वन्तमसे विपृचे ध्रुवक्षेमा अनवस्यन्तो अर्थम्। तं सूर्यं हरितः सप्त यह्वीः स्पशं विश्वस्य जगतो वहन्ति ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। सीम्। अकृण्वन्। तमसे। विऽपृचे। ध्रुवऽक्षेमाः। अनवऽस्यन्तः। अर्थम्। तम्। सूर्यम्। हरितः। सप्त। यह्वीः। स्पशम्। विश्वस्य। जगतः। वहन्ति ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यमर्थमनवस्यन्तो ध्रुवक्षेमास्तमसे विपृचे सीमकृण्वँस्तं विश्वस्य जगतः स्पशं सूर्य्यं सप्त यह्वीर्हरितो वहन्तीव शुभगुणान् वहन्तु प्रापयन्तु ॥३॥

    पदार्थः

    (यम्) (सीम्) सर्वतः (अकृण्वन्) कुर्वन्ति (तमसे) अन्धकाराय (विपृचे) वियोजनाय (ध्रुवक्षेमाः) ध्रुवं क्षेमं रक्षणं येषान्ते (अनवस्यन्तः) अपरिचरन्तः कुर्वन्तः (अर्थम्) द्रव्यम् (तम्) (सूर्य्यम्) (हरितः) दिश इव व्याप्ताः किरणाः। हरित इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) (सप्त) (यह्वीः) महत्यः (स्पशम्) बन्धकम् (विश्वस्य) सर्वस्य (जगतः) (वहन्ति) प्रापयन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यथा किरणाः सूर्यं तमोनिवारणाय वहन्ति तथैव सर्वस्य जगतोऽविद्यानिवारणाय विद्यारक्षणाय च सर्वथा सत्योपदेशान् कुर्वन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यम्) जिस (अर्थम्) पदार्थरूप सूर्य को (अनवस्यन्तः) न सेवते और क्रिया करते हुए (ध्रुवक्षेमाः) निश्चित रक्षण करनेवाले जन (तमसे) अन्धकार के अर्थ (विपृचे) वियोग करने के लिये (सीम्) सब ओर से (अकृण्वन्) निश्चित करते हैं (तम्) उस (विश्वस्य) सम्पूर्ण (जगतः) संसार के (स्पशम्) बाँधनेवाले (सूर्य्यम्) सूर्य्य को (सप्त) सात (यह्वीः) बड़ी (हरितः) दिशाओं को (वहन्ति) प्राप्त कराते हैं, वैसे ही उत्तम गुणों को प्राप्त कराओ ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे किरणें सूर्य्य को अन्धकार के दूर करने के लिये धारण करती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण जगत् की अविद्या दूर करने के लिये और विद्या की रक्षा के लिये सब प्रकार सत्य के उपदेश करो ॥३॥

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    विषय

    प्रभु दर्शन व अन्धकार विनाश

    पदार्थ

    [१] (ध्रुवक्षेमाः) = निश्चय से कल्याण के मार्ग पर चलनेवाले, (अर्थम्) = 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' रूप पुरुषार्थों को (अनवस्यन्तः) = न समाप्त करते हुए, अर्थात् सदा इनका साधन करते हुए लोग (यम्) = जिसको (सीम्) = निश्चय से (तमसे विपृचे) = अन्धकार के पृथक् करने के लिये (अकृण्वन्) = उपासित करते हैं। (तम्) = उस (सूर्यम्) = प्रकाशमय प्रभु को (सप्त) = सात (यह्वीः) = महान्, अर्थ के गौरववाली, (हरितः) = अन्धकार का हरण करनेवाली छन्दोरूप वाणियाँ (वहन्ति) = उपासक के लिये प्राप्त कराती हैं। (ध्रुवक्षेम) = पुरुष प्रभु का उपासन करते हैं। इसलिए उपासन करते हैं कि अज्ञानान्धकार दूर हो जाए। इस उपासक के लिये ये वेद की सात छन्दों में बद्ध ज्ञान की वाणियाँ प्रभु का ज्ञान देती हैं 'सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति' । [२] ये प्रभु ही (विश्वस्य जगतः) = सम्पूर्ण जगत् के (स्पशम्) = द्रष्टा हैं, सम्पूर्ण संसार का ध्यान करनेवाले वे प्रभु ही हैं। इस प्रभु को वेदवाणियों के द्वारा वे ही लोग देखते हैं, जो कि 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' रूप चारों पुरुषार्थों के सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यह चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करना ही 'चतुर्भुज' बनना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- कल्याण के मार्ग पर चलते हुए, चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करते हुए हम प्रभु का पूजन करें, यही अन्धकार को दूर करने का उपाय है।

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    विषय

    रक्षार्थ तेजस्वी का आश्रय

    भावार्थ

    जिस प्रकार (ध्रुवक्षेमाः) स्थिर स्थिति वाले नित्य कारण तत्व स्वयं (अर्थम्) इस गतिशील संसार को (अनवस्यन्तः) प्रकाशित करने में असमर्थ रहते हुए भी (तमसे विपृचे) अन्धकार को दूर करने के लिये (सीम् अकृण्वन्) इस सूर्य को निर्माण करते हैं उसी प्रकार (अर्थम्) द्रव्यैश्वर्य और राष्ट्र को (अनवस्यन्तः) स्वयं रक्षा करने में असमर्थ (ध्रुवक्षेमाः) राष्ट्र में अपना स्थिर रूप से निवास करने वाले प्रजागण (तमसे) प्रजा के दुःख देने वाले शत्रु के (विपृचे) दूर करने के लिये (विपृचे तमसे) विरोध करने वाले विद्वेषी दुःखदायी शत्रु के निवारण के लिये (यं) जिस तेजस्वी पुरुष को (सीम्) सर्व प्रकार शत्रु का अन्तकारी (अकृण्वन्) बना देते हैं (तं) उस (सूर्यं) सूर्य के समान तेजस्वी और (विश्वस्य जगतः) समस्त जगत् के (स्पशं) द्रष्टा और प्रबन्धक पुरुष को (सप्त यह्वीः हरितः) सात महती दिशाओं, सात अन्धकार नाशक किरणों के तुल्य (यह्वीः) बड़ी वा पुत्र के तुल्य (सप्त) सातों प्रकार की (हरितः) मनुष्य प्रजाएं (वहन्ति) धारण करती हैं। चार आश्रम और तीन वर्ण वा चारों वर्ण और तीन आश्रम,मिलकर ७ प्रकृति हैं । शूद्र सेवक स्वामी के साथ ही ग्रहण हो जाता है पृथक् नहीं । ब्रह्मचर्य वा संन्यास दोनों में से किसी एक का गैरजिम्मेवार वा संगरहित होने से ग्रहण नहीं भी करने से तीन आश्रम हो जावेंगे । अथवा सात प्रकृतियां राजनीति में प्रसिद्ध हैं । अथवा (सप्त) सर्पणशील, व्यापक विस्तृत प्रजागण या सात दिशाओं वा द्वीपों के वासी प्रजागण (सप्त हरितः) सप्त हरित हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । निचृत्त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जशी किरणे सूर्याला अंधकार दूर करण्यासाठी धारण करतात. तसेच संपूर्ण जगाची अविद्या दूर करण्यासाठी व विद्येचे रक्षण करण्यासाठी सर्व प्रकारे सत्याचा उपदेश करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One of the objects which for sure the fixed centres of cosmic energy for sustenance dedicated to their appointed task create for the dispulsion of darkness is the sun. That sun, centre, eye and light of the entire moving world of the solar system, seven mighty forces of nature carry and conduct and seven blazing rays of light radiate for the appointed purpose.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The efficient cause of the solar and other worlds is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The men who desire to have abiding and sure welfare, never waver from the path of duty and not worship anyone else except God and symbolize the sun for dispelling darkness. As seven kinds of the rays, like the directions, convey to the sun, as upholder (lit. binder) of the whole world, like-wise the highly learned should lead people to the noble virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the rays carry the sun for dispelling darkness, so the enlightened "persons should deliver true sermons for dispelling the darkness of ignorance from the whole world and for the preservation of knowledge.

    Foot Notes

    (हरितः ) दिश इव व्याप्ताः किरणाः । हरित इति दिङ्नाम (NG 1, 6) = Rays of the sun like the directions. (स्पशम्) बन्धकम् । = Binder, Controller, Upholder. (विपूचे) वियोजनाय । = For dispelling.

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