ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अना॑यतो॒ अनि॑बद्धः क॒थायं न्य॑ङ्ङुत्ता॒नोऽव॑ पद्यते॒ न। कया॑ याति स्व॒धया॒ को द॑दर्श दि॒वः स्क॒म्भः समृ॑तः पाति॒ नाक॑म् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअना॑यतः । अनि॑ऽबद्धः । क॒था । अ॒यम् । न्य॑ङ् । उ॒त्ता॒नः । अव॑ । प॒द्य॒ते॒ । न । कया॑ । या॒ति॒ । स्व॒धया॑ । कः । द॒द॒र्श॒ । दि॒वः । स्क॒म्भः । सम्ऽऋ॑तः । पा॒ति॒ । नाक॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनायतो अनिबद्धः कथायं न्यङ्ङुत्तानोऽव पद्यते न। कया याति स्वधया को ददर्श दिवः स्कम्भः समृतः पाति नाकम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअनायतः। अनिऽबद्धः। कथा। अयम्। न्यङ्। उत्तानः। अव। पद्यते। न। कया। याति। स्वधया। कः। ददर्श। दिवः। स्कम्भः। सम्ऽऋतः। पाति। नाकम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यमण्डलप्रश्नोत्तरपूर्वकविद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन्नयमनायतोऽनिबद्धो न्यङ्ङुत्तानः कथा नाऽवपद्यते कया स्वधया याति। यो दिवस्स्कम्भः समृतो नाकं पाति तं को ददर्श ॥५॥
पदार्थः
(अनायतः) इतस्ततोऽगच्छन्त्सन्निहितः (अनिबद्धः) न कस्याप्याकर्षेण निबद्धः (कथा) केन प्रकारेण (अयम्) (न्यङ्) यो न्यग्भूतस्सन् (उत्तानः) ऊर्ध्वं स्थितः (अव) (पद्यते) अवगच्छति (न) निषेधे (कया) (याति) गच्छति (स्वधया) अन्नादिपदार्थयुक्त्या पृथिव्या सह (कः) (ददर्श) पश्यति (दिवः) प्रकाशस्य (स्कम्भः) स्तम्भ इव धारकः [(समृतः)] सम्यक्सत्यस्वरूपः (पाति) (नाकम्) अविद्यमानदुःखं व्यवहारम् ॥५॥
भावार्थः
हे विद्वन्नयं सूर्योऽन्तरिक्षमध्ये स्थितः कथमधो न पतति। केन गच्छति कथं प्रकाशस्य धर्त्ता सुखकारको भवतीति प्रश्नस्योत्तरं, परमेश्वरेण स्थापितो धृतो नाऽधः पतति स्वसन्निहितैर्भूगोलैः सह स्वकक्षायां गच्छन् वर्त्तते सर्वेषां सन्निहितानामाकर्षणेन धर्त्ता परमेश्वरस्य व्यवस्थया सुखकरो वर्त्तत इति वेदितव्यम् ॥५॥ अथ सूर्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इति त्रयोदशं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य्यमण्डल प्रश्नोत्तर पूर्वक विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (अयम्) यह (अनायतः) इधर-उधर न जाता और समीप वर्त्तमान (अनिबद्धः) किसी के आकर्षण से नहीं बँधा (न्यङ्) जो नीचे को होता हुआ (उत्तानः) ऊपर स्थित (कथा) किस प्रकार से (न) नहीं (अव, पद्यते) नीचे आता और (कया) किस (स्वधया) अन्न आदि पदार्थों से युक्त पृथिवी के साथ (याति) चलता है, जो (दिवः) प्रकाश का (स्कम्भः) खम्भे के सदृश धारण करनेवाला (समृतः) उत्तम प्रकार सत्यस्वरूप (नाकम्) दुःखरहित व्यवहार की (पाति) रक्षा करता है, उसको (कः) कौन (ददर्श) देखता है ॥५॥
भावार्थ
हे विद्वन् ! यह सूर्य्य अन्तरिक्ष के मध्य में स्थित हुआ क्यों नीचे नहीं गिरता है? किससे चलता है? और कैसे प्रकाश का धारण करनेवाला और सुखकारक होता है? इस प्रश्न का उत्तर-परमेश्वर ने स्थापित और धारण किया इससे नीचे नहीं गिरता है और अपने समीप वर्त्तमान भूगोलों के साथ अपनी कक्षा में चलता हुआ वर्त्तमान है और सम्पूर्ण समीप में वर्त्तमान पदार्थों के आकर्षण से धारणकर्त्ता और परमेश्वर की व्यवस्था से सुखकारक वर्त्तमान है, यह जानना चाहिये ॥५॥ इस सूक्त में सूर्य और विद्वानों के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह तेरहवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
न अवपद्यते
पदार्थ
[१] (अनायत:) = चारों ओर से विषयों से न जकड़ा हुआ, (अनिबद्धः) = वासनाओं के बन्धन में न बँधा हुआ, (उत्तान:) = ऊर्ध्वमुख होकर स्थित हुआ हुआ (अयम्) = यह (कथा) = किस प्रकार (न्यङ् न अवपद्यते) = नीचे की ओर गतिवाला नहीं होता, अर्थात् अवनति के मार्ग पर नहीं चल पड़ता और कया स्वधया याति किस आत्मधारण शक्ति के साथ इस संसार में गतिवाला होता है ? इस बात को (कः) = वह आनन्दस्वरूप प्रभु (ददर्श) = देखते हैं। जैसे एक पिता सन्तान के लिये इस बात का ध्यान करता है कि वह अवनतिपथ पर न चला जाये और अपने पाँव पर खड़ा हो सके इसी प्रकार प्रभु हम जीवों का ध्यान करते हैं। प्रभु ही तो हमारे पिता हैं । [२] वे प्रभु इसीलिए (दिवः स्कम्भ:) = ज्ञान के प्रकाश का हमारे में धारण करनेवाले हैं। (समृतः) = हमें सम्यक् प्राप्त हैं सदा हमारे साथ विद्यमान हैं। वे प्रभु ही हमारे लिये (नाकम्) = मोक्ष सुख का (पाति) = रक्षण करते हैं। प्रभु हमें ज्ञान को देकर निष्पाप बनाते हैं और मोक्ष सुख को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे पिता हैं। वे इस बात के लिये हमें प्रेरित करते हैं कि हम विषयबद्ध होकर निम्न गतिवाले न हो जाएँ तथा आत्मधारण शक्ति का विकास करें। सम्पूर्ण सूक्त प्रभु को ज्ञानसूर्य के रूप में चित्रित करता है। ये प्रभु हमें ज्ञान देकर अवनत होने से बचाते हैं। यही भाव अगले सूक्त में भी पुष्ट हुआ है -
विषय
सूर्य की अनवलम्ब स्थिति का कारण । तद्वत् नायक की सर्वोच्च स्थिति ।
भावार्थ
बतलाओ कि (अनायतः) चारों तरफ कहीं से भी न बंधा हुआ, (अनिबद्धः) और न किसी एक स्थान पर ही कहीं बंधा हुआ (उत्तानः) सबसे ऊपर रहता हुआ (अयम्) यह सूर्य (कथा न्यङ् न अवपद्यते) क्यों नहीं नीचे आ गिरता । वह (क्या) किस (स्वधया) अपने धारण करने वाली शक्ति से (याति) गति करता है और उसको (कः) कौन देखता है, वह (दिवः) प्रकाश का थामने वाला (समृतः) सर्वत्र व्याप्त होकर (नाकं पाति) आकाशस्थ सबको पालन करता है,इसी प्रकार राजा भी किसी विशेष नियम में न बद्ध होकर वा प्रजा के अति समीप रहकर भी (अनिबद्धः) विशेष नियन्त्रित न होकर वह (उत्तानः) सबसे उच्च आसन पर स्थित होकर भी (कथा न न्यङ् अवपद्यते) किसी रीति से नीचे न गिरे ? वह (कया याति) किस नीति से चले, तो इसका उत्तर है वह (स्वधया याति) अपने राष्ट्र का और ‘स्व’ अर्थात् धनैश्वर्य को धारण पोषण करने वाली नीति से चले तो नहीं गिरता । और वह (कः ददर्शः) स्वयं समस्त कर्त्ता होकर राष्ट्र को देखे, वह (दिवः स्कम्भः) ज्ञानवाली राजसभा वा अपनी चाहने वाली पत्नी तुल्य वा विजयेच्छुक प्रजा वा सेना का (स्कम्भः) खम्भे के समान आधार होकर (सम्-ऋतः) सम्यक् सत्य ज्ञान और सम्पूर्ण बल वा ऐश्वर्य से युक्त होकर (नाकम्) अत्यन्त सुख सम्पन्न राष्ट्र को (पाति) पालन करे । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप् । निचृत्त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वाना ! हा सूर्य अंतरिक्षात असून खाली का पडत नाही? कोण त्याला चालविते व कसा प्रकाशाचा धारणकर्ता असून सुखकारक असतो? या प्रश्नाचे उत्तर असे की, परमेश्वराने त्याला स्थापित केलेले असून धारण केलेले आहे. त्यामुळे तो खाली पडत नाही. आपल्याजवळ असलेल्या भूगोलाबरोबर आपल्या कक्षेत चालतो व समीप असलेल्या पदार्थांचा आकर्षणकर्ता व धारणकर्ता असून परमेश्वराच्या व्यवस्थेने सुखकारक असतो, हे जाणावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Unsupported and unbound, high up above yet looking downward, how is it sustained? Why doesn’t it fall down? By what strength of its own does it go on? Who sees it thus behave? The pillar sustainer of the vault of heaven with the cosmic law of Rtam sustains it too. Who sees that pillar of the universe which sustains this giver of bliss?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The questions and answers are put to give out the attributes of the enlightened person, related to the solar world.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! why does not the sun, moving about here and there, is bound by attraction, whether looking up hand down. How does it move along with the earth, containing food materials and other things? Who has seen Him. who is like the Pillar of light and embodiment of truth and, protects the men and provides emancipation where there is no misery ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned person! why does not the sun standing in the firmament fall down? How does the sun give light and happiness? How does it move? The answers to these questions are that the sun does not fall down as it is upheld by God. It moves in its circumference along with the planets surrounding it. It is the upholder of the worlds near it by the law of gravitation. It gives happiness by the Laws of God.
Foot Notes
(अनायत) इतस्ततोगच्छन्त्सन्निहितः। = Not moving here and there, but well-established. (स्वधया) अन्नादिपदार्थयुक्तया पृथिव्या सह । स्व्धेत्यन्नाम (NG 2, 7) = With the earth containing food material and other things. The translation of the commentary of this Sūktam has been written by the Editor because of the non-availability of the scripts)
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