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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः

    अध॑ श्वे॒तं क॒लशं॒ गोभि॑र॒क्तमा॑पिप्या॒नं म॒घवा॑ शु॒क्रमन्धः॑। अ॒ध्व॒र्युभिः॒ प्रय॑तं॒ मध्वो॒ अग्र॒मिन्द्रो॒ मदा॑य॒ प्रति॑ ध॒त्पिब॑ध्यै॒ शूरो॒ मदा॑य॒ प्रति॑ ध॒त्पिब॑ध्यै ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । श्वे॒तम् । क॒लश॑म् । गोभिः॑ । अ॒क्तम् । आ॒ऽपि॒प्या॒नम् । म॒घऽवा॑ । शु॒क्रम् । अन्धः॑ । अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑ । प्रऽय॑तम् । मध्वः॑ । अग्र॑म् । इन्द्रः॑ । मदा॑य । प्रति॑ । ध॒त् । पिब॑ध्यै । शूरः॑ । मदा॑य । प्रति॑ । ध॒त् । पिब॑ध्यै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध श्वेतं कलशं गोभिरक्तमापिप्यानं मघवा शुक्रमन्धः। अध्वर्युभिः प्रयतं मध्वो अग्रमिन्द्रो मदाय प्रति धत्पिबध्यै शूरो मदाय प्रति धत्पिबध्यै ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। श्वेतम्। कलशम्। गोभिः। अक्तम्। आऽपिप्यानम्। मघऽवा। शुक्रम्। अन्धः। अध्वर्युऽभिः। प्रऽयतम्। मध्वः। अग्रम्। इन्द्रः। मदाय। प्रति। धत्। पिबध्यै। शूरः। मदाय। प्रति। धत्। पिबध्यै ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो मघवा गोभिरक्तमापिप्यानं श्वेतं कलशं शुक्रमन्धः पिबध्यै मदाय प्रतिधदध यः शूर इन्द्रो मदायाऽध्वर्य्युभिः सह मध्वोऽग्रं प्रयतं पिबध्यै प्रतिधत् सोऽक्षयं बलमाप्नोति ॥५॥

    पदार्थः

    (अध) (श्वेतम्) (कलशम्) कुम्भम् (गोभिः) धेनुभिः (अक्तम्) सम्बद्धम् (आपिप्यानम्) सर्वतो वर्धमानम् (मघवा) बहुपूजितधनः (शुक्रम्) उदकम् । शुक्रमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (अन्धः) अन्नम् (अध्वर्युभिः) आत्मनोऽध्वरमहिंसामिच्छुभिः (प्रयतम्) प्रयत्नसाध्यम् (मध्वः) मधुरादिगुणस्य (अग्रम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (मदाय) आनन्दाय (प्रति) (धत्) प्रतिदधाति (पिबध्यै) पातुम् (शूरः) निर्भयः (मदाय) (प्रति) (धत्) (पिबध्यै) पातुम् ॥५॥

    भावार्थः

    ये युक्ताहारविहारा अहिंस्राः शूरवीराः स्युस्ते सदा विजयमाप्नुयुरिति ॥५॥ अत्र जीवगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (मघवा) बहुत श्रेष्ठ धनयुक्त (गोभिः) गौओं से (अक्तम्) सम्बद्ध (आपिप्यानम्) बढ़े हुए (श्वेतम्) श्वेत वर्णवाले (कलशम्) घड़े (शुक्रम्) जल और (अन्धः) अन्न को (पिबध्यै) पीने के लिये (मदाय) आनन्द के लिये (प्रति, धत्) धारण करता है (अध) और जो (शूरः) भय से रहित (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला (मदाय) आनन्द के लिये (अध्वर्य्युभिः) अपने नहीं नाश होने की इच्छा करनेवालों के साथ (मध्वः) मधुर आदि गुणों के (अग्रम्) प्रथम (प्रयतम्) प्रयत्न से सिद्ध करने योग्य आनन्द के लिये (पिबध्यै) पीने को (प्रति, धत्) धारण करता है, वह नहीं नष्ट होनेवाले बल को प्राप्त होता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो नियमित आहार और विहार करने और नहीं हिंसा करनेवाले शूरवीर होवें, वे सदा विजय को प्राप्त होवें ॥५॥ इस सूक्त में जीव के गुणों के वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'श्वेत कलश', जो कि सोम का आधार बनता है

    पदार्थ

    [१] (अध) = गतमन्त्र के अनुसार ज्ञान से मन निर्मल होने पर (श्वेतम्) = शुभ्र (कलशम्) = शरीर घर को (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (प्रतिधत्) = धारण करता है । यह श्वेत कलश (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से (अक्तम्) = कान्त बना हुआ है, (आपिप्यानम्) = समन्तात् सब शक्तियों से बढ़ा हुआ है। [२] (मघवा) = यह ज्ञानैश्वर्यवाला जीव (शुक्रम्) = निर्मल (अन्धः) = सोम को (मदाय) = हर्ष की प्राप्ति के लिए (पिबध्यै) = अन्दर ही पीने के लिए (प्रतिधत्) = धारण करता है। यह सोम (अध्वर्युभिः) = शरीरस्थ सात यज्ञप्रणेताओं से-यज्ञों में लगी हुई इन्द्रियों से (प्रयतम्) = पवित्र किया गया है तथा (मध्वः अग्रम्) = मधुओं में सर्वश्रेष्ठ है। इन्द्रियाँ यज्ञों में लगी रहें, तो यह सोम शरीर में संयत रहता है तथा जीवन को अत्यन्त मधुर बनाता है। इसलिए (शूरः) = वासनाओं को शीर्ण करनेवाला व्यक्ति (मदाय) = हर्ष प्राप्ति के लिए (पिबध्यै) = इसे अन्दर पीने के लिए (प्रतिधत्) = धारण करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब इस शरीर को हम ज्ञान द्वारा निर्मल बनाते हैं, तो यह 'श्वेत कलश' कहलाता है। यह सोम [वीर्यशक्ति] का आधार बनता है 'इन्द्र' वासनाओं को शीर्ण करके इस सोम को शरीर में सुररिक्षत करता है। इस का शरीर में पान करके हम आनन्दानुभव करते हैं। सम्पूर्ण सूक्त उपासना द्वारा जीवन को निर्मल बनाने का वर्णन कर रहा है। अगले सूक्त का भी यही विषय है -

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    विषय

    पक्षान्तर में—राष्ट्र में राजा प्रजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मघवा इन्द्रः) जलप्रद सूर्य (गोभिः अक्तम् शुक्रम् अन्धः आपिप्यानं श्वेतं कलशं मध्वः अग्रम् पिबध्यै प्रति धत्) किरणों से व्यक्त हुए जल को और अन्न बढ़ाने वाले मेघ को और जल के श्रेष्ठ अंश को पान कराने के लिये धारण करता है उसी प्रकार (शूरः) शूरवीर, (मघवा) ऐश्वर्यवान् (इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा (गोभिः अक्तम्) ज्ञान-वाणियों द्वारा प्रकाशित होने वाले (श्वेतं) शुभ्र, स्वच्छ, (कलशं) १६ कलाओं से युक्त, इस आत्मा को (आपिण्यानं) तृप्त या वृद्धि करने वाले (शुक्रम्) तेजोयुक्त वीर्य और (अन्धः) जीवन धारण करने वाले अन्न को और (अध्वर्युभिः प्रयतम्) नाश न होने वाले प्राणों और विद्वानों द्वारा प्रदान किये हुए (मध्वः अग्रम्) ब्रह्म ज्ञान के श्रेष्ठ स्वरूप को (मदाय) हर्ष, परमानन्द प्राप्ति के लिये (पिबध्यै) और उसके उपभोगके लिये (प्रति धत्) प्रतिक्षण धारण करे । वह (मदाय पिबध्यै प्रति धत्) हर्षवृद्धि और उपभोग के लिये ही धारण करे (२) उसी प्रकार शूरवीर राजा, उत्तम भूमियों और शासन वाणियों से प्रकट हुए, शुद्ध सदाचार युक्त राष्ट्र रूप ऐश्वर्य से पूर्ण कलशवत् राष्ट्र को जल, अन्न और विद्वानों द्वारा मधुर ज्ञान को सबके सुख और उपभोगार्थ प्रतिक्षण धारण करें । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ४ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ५ निचृच्छक्वरी ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे नियमित आहार-विहार करतात व अहिंसेचे पालन करतात ते शूरवीर असतात व सदैव विजय प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let Indra, the brave soul, blest with and commanding honour and prosperity, bear, in response to the Lord’s grace, the bright and beauteous body vessel nourished by mother earth and cows, satisfying, pure and powerful, and let him enjoy the food seasoned and sanctified by holy yajakas, and prime delicious drink for realising the beauty and ecstasy of existence. Yes, let the fearless brave spirit bear the body vessel to drink of the joy of life and to celebrate the gift of divine rapture.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of soul are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    One who possesses admired wealth upholds for joy a white covered pitcher (and a basket also. Ed.) growing from all sides and it contains pure water and nourishing food. He upholds sweet food prepared with great labor by the persons for drinking and joy. Desiring non-violence, he gets inexhaustible strength.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The brave men who are regular in eating and walking etc. and are non-violent, achieve victory.

    Foot Notes

    (आपिप्यानम् ) सर्वतो वर्धमानम् । = Growing from all sides. (शुक्रम्) उदकम् । शुक्रमित्युदकनाम (NG 1, 12 ) = Water. ( प्रयंतम् ) प्रयत्नसाध्यम् = Prepared with great care and wrongly printed as प्रयत्न साध्यम्।

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