ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 43/ मन्त्र 6
ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सिन्धु॑र्ह वां र॒सया॑ सिञ्च॒दश्वा॑न्घृ॒णा वयो॑ऽरु॒षासः॒ परि॑ ग्मन्। तदू॒ षु वा॑मजि॒रं चे॑ति॒ यानं॒ येन॒ पती॒ भव॑थः सू॒र्यायाः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धुः॑ । ह॒ । वा॒म् । र॒सया॑ । सि॒ञ्च॒त् । अश्वा॑न् । घृ॒णा । वयः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । परि॑ । ग्म॒न् । तत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । वा॒म् । अ॒जि॒रम् । चे॒ति॒ । यान॑म् । येन॑ । पती॒ इति॑ । भव॑थः । सू॒र्यायाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धुर्ह वां रसया सिञ्चदश्वान्घृणा वयोऽरुषासः परि ग्मन्। तदू षु वामजिरं चेति यानं येन पती भवथः सूर्यायाः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसिन्धुः। ह। वाम्। रसया। सिञ्चत्। अश्वान्। घृणा। वयः। अरुषासः। परि। ग्मन्। तत्। ऊम् इति। सु। वाम्। अजिरम्। चेति। यानम्। येन। पती इति। भवथः। सूर्यायाः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 43; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यः सिन्धू रसयो वां सिञ्चद्वयो घृणाऽरुषासोऽश्वान् परि ग्मँस्तदु वामजिरं सु चेति येन यानं प्राप्य सूर्य्यायाः पती भवथस्तौ ह विजानीयाताम् ॥६॥
पदार्थः
(सिन्धुः) नदी समुद्रो वा (ह) किल (वाम्) (रसया) रसादिना (सिञ्चत्) सिञ्चति (अश्वान्) सद्यो गामिनोऽग्न्यादीन् (घृणा) प्रदीप्ताः (वयः) व्यापिनः (अरुषासः) रक्तगुणविशिष्टाः (परि) (ग्मन्) गच्छन्ति (तत्) (उ) (सु) (वाम्) युवाम् (अजिरम्) प्राप्तव्यं प्रक्षेपकं वा (चेति) जानाति। अत्र विकरणस्य लुक् (यानम्) (येन) (पती) पालकौ (भवथः) (सूर्य्यायाः) सूर्य्यस्येयं कान्तिरुषास्तस्याः ॥६॥
भावार्थः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! भवन्तौ यथा सुरसेन जलेन वृक्षान् क्षेत्रादिकं च संसिच्य वर्द्धयित्वैतेभ्यः फलानि प्राप्नुवन्ति तथैवं सर्वान् मनुष्यानध्याप्योपदिश्य प्रज्ञया वर्धयित्वा सुखफलौ भवेताम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जो (सिन्धुः) नदी वा समुद्र (रसया) रस आदि से (उ) तो (वाम्) आप दोनों को (सिञ्चत्) सींचता है तथा (वयः) व्याप्त होनेवाले (घृणा) प्रदीप्त (अरुषासः) रक्त गुण से विशिष्ट पदार्थ (अश्वान्) शीघ्र चलनेवाले अग्न्यादिकों को (परि, ग्मन्) सब ओर से प्राप्त होते हैं (तत्) उनको और (वाम्) आप दोनों को वा (अजिरम्) प्राप्त होने योग्य और फेंकनेवाले को (सु चेति) उत्तम प्रकार जानता है वा (येन) जिससे (यानम्) वाहन को प्राप्त होकर (सूर्य्यायाः) सूर्य्य की कान्तिरूप प्रातःकाल के (पती) पालन करनेवाले (भवथः) होते हो, उन दोनों को (ह) निश्चय जानो ॥६॥
भावार्थ
हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! आप जैसे उत्तम रस युक्त जल से वृक्षों और क्षेत्रादि को उत्तम प्रकार सिञ्चन कर और बढ़ाय के इन से फलों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को पढ़ा उपदेश दे और बुद्धि से बढ़ाय कर सुखरूपी फलयुक्त होओ ॥६॥
विषय
रसया-घृणा
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो ! (सिन्धुः) = शरीर में प्रवाहित होनेवाला यह सोम (ह) = निश्चय से (वाम् अश्वान्) = इन इन्द्रियाश्वों को (रसया) = रस से-लोच-लचक से तथा (घृणा) = दीप्ति से (सिंचत्) = सिक्त करता है। सोम के सुरक्षित होने पर इन्द्रियाश्व सूखे काठ की तरह नहीं हो जाते और ये दीप्ति से युक्त बने रहते हैं। उस समय ये इन्द्रियाश्व (वयः) = गतिवाले तथा (अरुषासः) = आरोचमान होते हुए (परिग्मन्) = सब ओर गतिवाले होते हैं। [२] हे प्राणापानो! (वाम्) = आपका (तद्) = वह (यानम्) गमन (ऊ षु) = निश्चय से (अजिरम्) = [अज क्षेपणे] सब मलों को परे फेंकनेवाला (चेति) = जाना जाता है, (येन) = जिस गमन से आप (सूर्याया:) = सूर्या के पती-रक्षक (भवथः) = होते हैं। 'सूर्य की दुहिता' [सूर्या] शरीर में बुद्धि ही है। इसका रक्षण ये प्राणापान ही करते हैं। प्राणसाधना से सब इन्द्रियों के दोष दूर होकर-सब मलिनताओं का निराकरण होकर 'बुद्धि' दीप्त हो उठती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर में सोम का रक्षण होता है। रक्षित सोम जहाँ इन्द्रियों को रस व दीप्ति से युक्त करता है, वहाँ ज्ञानाग्नि को भी दीप्त करता है ।
विषय
स्त्री पुरुषों के उत्तम गुणों का वर्णन।
भावार्थ
(सिन्धुः) नदी वा समुद्र के समान ज्ञानप्रवाह और गंभीर अगाध ज्ञान वाला पुरुष (वां) आप दोनों को (रसया) उत्तम वाणी से (असिञ्चत्) अभिषिक्त करे, विद्वान् बनाकर स्नातक बनावे । और (वयः) कान्तिमान्, रक्षाकारी (अरुषासः) दोषरहित, दीप्ति-युक्त जन (घृणा) दीप्ति और स्नेह से (परि ग्मन्) किरणों के तुल्य तुम्हें प्राप्त हों और (वाम्) तुम दोनों का (यानं) गमन-साधन रथादि वा संसार मार्ग का गमन (तत् उ) उसी प्रकार पूर्वप्राप्त शिक्षानुसार, (अजिरं) शीघ्रतायुक्त वा हानिरहित (सुचेति) जाना जाय । (येन) जिससे आप दोनों (सूर्यायाः) सूर्य की कान्ति के सदा (पती भवथः) परिपालक होकर रहो। कभी हीन आचारवान् होकर कलङ्कित न होकर सदा तेजस्वी बने रहो। सूर्य की कान्ति सत्यता है। सदा सचाई पर दृढ़ रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुमीळ्हाजमीळ्हौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, त्रिष्टुप। २, ३, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप । ४ स्वराट् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! तुम्ही जसे उत्तम रसयुक्त जलाने वृक्ष व शेत इत्यादींना उत्तम प्रकारे सिंचन करून व वाढवून त्यांची फळे प्राप्त करता. तसेच सर्व माणसांना शिकवून, उपदेश करून, बुद्धी वाढवून सुखरूपी फळ प्राप्त करा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The waters of the flowing rivers and rolling seas evaporate and lend moisture to your horses of sun rays which rise like birds bright and red, and then your chariot, quick and soaring, coming and rising, is seen and known by which you become masters of the dawns.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The role of teachers and preachers is mentioned
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! the rivers delight you (lit. sprinkle) with their sweet water. Pervasive red coloured bright objects are added to the quick-going fire and other things from all sides. You know well what is to be obtained and retained and the rest is to be thrown away, (Ed.) as residue or worthless. With this knowledge, you get a good vehicle manufactured and become protectors of the luster of the sun or the dawn.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! the men water trees and fields with good water and afterwards get fruits when they grow. In the same manner, you should teach and preach all men, develop their intellects and enjoy the fruit of happiness.
Foot Notes
(अश्वान् ) सद्योगामिनोऽग्न्यादीन् = Speedy articles like energy/electricity etc. (घृणा) प्रदीप्ता: । = Bright. (सूर्य्यायाः) सूर्य्यस्येयं कान्तिरूपास्तस्याः । = Of the luster of the sun or dawn. (अजिरम् ) प्राप्तव्यं प्रक्षेपकं वा = Worthy of getting or throwing away.
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