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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वायु: छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अनु॑ कृ॒ष्णे वसु॑धिती ये॒माते॑ वि॒श्वपे॑शसा। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । कृ॒ष्णे । वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती । ये॒माते॒ इति॑ । वि॒श्वऽपे॑शसा । वायो॒ इति॑ । आ । च॒न्द्रेणे॑ । रथे॑न । या॒हि । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा। वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। कृष्णे। इति। वसुधिती इति वसुऽधिती। येमाते इति। विश्वऽपेशसा। वायो इति। आ। चन्द्रेण। रथेन। याहि। सुतस्य। पीतये ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 48; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वायो ! यथा विश्वपेशसा कृष्णे वसुधिती अनु येमाते तथैव सुतस्य पीतये चन्द्रेण रथेन त्वमा याहि ॥३॥

    पदार्थः

    (अनु) (कृष्णे) कर्षिते (वसुधिती) वसूनां धितिर्ययोर्द्यावापृथिव्योस्ते (येमाते) नियमेन गच्छतः (विश्वपेशसा) सर्वस्वरूपेण (वायो) राजन् (आ) (चन्द्रेण) रत्नजटितेन (रथेन) (याहि) (सुतस्य) (पीतये) रक्षणाय ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा भूमिसूर्य्यौ बहुफलदौ वर्त्तेते नियमेन गच्छतस्तथा बहुफलदो भूत्वा विद्याविनयनियमेन सततं गच्छेः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वायो) राजन् ! जैसे (विश्वपेशसा) सम्पूर्ण उत्तमरूप से (कृष्णे) खींची गई (वसुधिती) सम्पूर्ण लोकों की स्थिति जिनमें वे अन्तरिक्ष और पृथिवी (अनु, येमाते) नियम से चलती हैं, वैसे ही (सुतस्य) उत्पन्न किये गये पदार्थ की (पीतये) रक्षा के लिये (चन्द्रेण) रत्नों से जड़े हुए (रथेन) वाहन के द्वारा आप (आ, याहि) प्राप्त हूजिये ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे भूमि और सूर्य्य बहुत फल देनेवाले वर्त्तमान और नियम से चलते हैं, वैसे बहुत फलों के देनेवाले होकर विद्या और विनय के नियम से निरन्तर जाइये ॥३॥

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    विषय

    'वसुधिती' द्यावापृथिवी

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को सारिथ बनाकर जीवनयात्रा में चलने से हमारे द्यावापृथिवीमस्तिष्क व शरीर (कृष्णे) = एक दूसरे को आकृष्ट करनेवाले-परस्पर सम्बद्ध (वसुधिती) = ज्ञान व शक्ति रूप वसुओं को धारण करनेवाले - ब्रह्म व क्षत्र का अपने में समन्वय करनेवाले, विश्वपेशसा - सब अंग-प्रत्यंगों का ठीक से निर्माण करनेवाले (अनुयेमाते) = अनुकूलता से संयत होते हैं। मस्तिष्क व शरीर ठीक होने पर, सब ठीक ही रहता है । [२] हे (वायो) = क्रियाशील जीव! तू (चन्द्रेण रथेन) = मन: प्रसादवाले शरीर रथ से सुतस्य पीतये सोमपान के लिए वीर्य के रक्षण के लिए, आयाहि समन्तात् कर्त्तव्यों में प्रवृत्त हो । कर्त्तव्यकर्मों में लगे रहने से ही तू शरीर में सोम का रक्षण कर पाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे मस्तिष्क व शरीर परस्पर सम्बद्ध व ब्रह्म व क्षेत्र का धारण करनेवाले हों।

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    विषय

    शत्रु उच्छेदक सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    (कृष्णे) एक दूसरे का आकर्षण करने वाले (वसुधिती) बसने वाले और बसने योग्य लोकों को धारण करने वाले (विश्व-पेशसा) समस्त विश्व के रूप आकाश और पृथिवी दोनों को जिस प्रकार वायु व्यापता है उसी प्रकार हे (वायो) वायु के तुल्य व्यापक सामर्थ्य से युक्त बलवान् पुरुष ! (कृष्णे) राष्ट्र में कृषि करने वाली और शत्रु का कर्षण और पीड़न करने वाली (विश्वपेशसा) सब प्रकार के द्रव्यों को धारण करने वाली (वसुधिती) बसे जनों को अन्न से और रक्षा से पालन पोषण करने वाली होकर (अनुयेमाते) एक दूसरे के अनुकूल होकर नियम व्यवस्था में रहें । और तू (सुतस्य पीतये) उन दोनों को ऐश्वर्य के उपभोग और पुत्रवत् उनके पालन के लिये कटिबद्ध होकर (चन्द्रेण रथेन आयाहि) सुवर्ण लोहादि के बने रथ से सर्वाह्लादक रमणीय, सर्वप्रिय व्यवहार से उन दोनों को प्राप्त हो, अपने वश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ वायुदेवता॥ छन्दः- १ निचृदनुष्टुप्। २ अनुष्टुप। ३, ४, ५ भुरिगनुष्टुप। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा जशी भूमी व सूर्य पुष्कळ फलदाते असून नियमाने चालतात तसे पुष्कळ फलदायी बनून विद्या व विनयाच्या नियमाने वागा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vayu, both heaven and earth, sustained by your cosmic energy, hold and sustain the wealth of the world and are themselves the form and wielders of the forms of the world, moving in accord with your force and law. Come by the chariot of the golden beauty of the moon and drink the soma distilled by us in our yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O the wind-like mighty king! the heaven and earth uphold all wealth and are attractive by various beautiful forms. They move regularly according to the Divine Law. You should also come with your brilliant jewel-decked car to drink the Soma juice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! as the earth and the sun give many useful fruits (useful things), and they move regularly (the earth around the sun and the sun at his own axis). A ruler being giver of many fruits (rewards), goes to all the places endowed with knowledge and humility.

    Foot Notes

    (कृष्णे ) कपित्ने । कृष -विलखने (भ्वा० तु० ) = Attracted or attractive. (विश्वपेशसा ) सर्वस्वरूपेण । पेश इति रूपनाम (NG 3, 7)। = With all forms (चन्द्रेण) रत्नजटितेन । चन्द्रम् इति हिरण्यनाम (NG 1, 2) हिरण्यम्-हितरमणं भवतीति वा हृदयरमणं भवतीति वा हयंतेर्वा स्यात् प्रसाकर्मणः (NKT 2, 3, 10 ) अत्रो रत्नादिकमपि हिरण्यपदेन वाच्यम् । = Jewel decked.

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