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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 54/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - सविता छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॑ज्येष्ठान्बृ॒हद्भ्यः॒ पर्व॑तेभ्यः॒ क्षयाँ॑ एभ्यः सुवसि प॒स्त्या॑वतः। यथा॑यथा प॒तय॑न्तो वियेमि॒र ए॒वैव त॑स्थुः सवितः स॒वाय॑ ते ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ऽज्येष्ठान् । बृ॒हत्ऽभ्यः॑ । पर्व॑तेभ्यः॑ । क्षया॑न् । ए॒भ्यः॒ । सु॒व॒सि॒ । प॒स्त्य॑ऽवतः । यथा॑ऽयथा । प॒तय॑न्तः । वि॒ऽये॒मि॒रे । ए॒व । ए॒व । त॒स्थुः॒ । स॒वि॒त॒रिति॑ । स॒वाय॑ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रज्येष्ठान्बृहद्भ्यः पर्वतेभ्यः क्षयाँ एभ्यः सुवसि पस्त्यावतः। यथायथा पतयन्तो वियेमिर एवैव तस्थुः सवितः सवाय ते ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रऽज्येष्ठान्। बृहत्ऽभ्यः। पर्वतेभ्यः। क्षयान्। एभ्यः। सुवसि। पस्त्यऽवतः। यथाऽयथा। पतयन्तः। विऽयेमिरे। एव। एव। तस्थुः। सवितरिति। सवाय। ते ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 54; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सवितर्जगदीश्वर ! त्वं यथायथा बृहद्भ्य एभ्यः पर्वतेभ्यः पस्त्यावत इन्द्रज्येष्ठान् क्षयान् सुवसि तथा तथा पतयन्त एव सर्वे वियेमिरे ते सवायैव तस्थुः ॥५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रज्येष्ठान्) इन्द्रो विद्युत्सूर्य्यो वा ज्येष्ठो येषां तान् (बृहद्भ्यः) महद्भ्यः (पर्वतेभ्यः) मेघादिभ्यः (क्षयान्) निवासान् (एभ्यः) (सुवसि) (पस्त्यावतः) प्रशंसितानि पस्त्यानि विद्यन्ते येषु तान् (यथायथा) (पतयन्तः) पतिरिवाचरन्तः (वियेमिरे) विशेषेण नियच्छन्ति (एव) निश्चये (एव) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (सवितः) जगदीश्वर (सवाय) ऐश्वर्य्याय (ते) तव ॥५॥

    भावार्थः

    हे भगवन् ! भवता सर्वेषां जीवानां निवासादिव्यवहाराय भूम्यादिलोका निर्मिता अत एव भवन्तं धन्यवादान् समर्प्य वयं तवैश्वर्य्ये निवसाम ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सवितः) जगदीश्वर ! आप (यथायथा) जैसे जैसे (बृहद्भ्यः) बड़े (एभ्यः) इन (पर्वतेभ्यः) मेघादिकों से (पस्त्यावतः) प्रशंसित गृहों से युक्त (इन्द्रज्येष्ठान्) बिजुली वा सूर्य्य बड़े जिनमें उन (क्षयान्) निवासों को (सुवसि) प्रेरणा करते हो, वैसे-वैसे (पतयन्तः) पति के सदृश आचरण करते हुए (एव) ही सब (वियेमिरे) विशेष करके देते हैं और (ते) आपके (सवाय) ऐश्वर्य्य के लिये (एव) ही (तस्थुः) स्थित होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    हे भगवन् ! आपने सब जीवों के निवासादि व्यवहार के लिये भूमि आदि लोक रचे, इसी से आपके लिये धन्यवादों को समर्पण करके हम लोग आपके ऐश्वर्य्य में निवास करें ॥५॥

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    विषय

    'अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्'

    पदार्थ

    [१] (बृहद्भ्यः) = [बृहि वृद्धौ] वृद्धि के मार्ग पर चलनेवाले (पर्वतेभ्यः) = अपना पूरण करनेवाले (एभ्यः) = इन लोगों के लिए, हे (सवितः)= सर्वोत्पादक प्रभो ! (इन्द्रज्येष्ठान्) = [इन्द्र: ज्येष्ठः येषु] प्रभु ही जिनमें ज्येष्ठ हैं, अर्थात् सदा प्रभु के स्मरणवाले (पस्त्यावतः) = उत्तम गृहों [कमरों] वाले (क्षयान्) = निवास स्थानों को (सुवसि) = आप प्राप्त कराते हैं । [२] इन घरों में रहते हुए वे लोग (यथा यथा) = जैसे-जैसे (पतयन्तः) = आपकी ओर गति करते हुए ये (वियेमिरे) = यम-नियम से युक्त जीवनवाले होते हैं, (एव एव) = उस उस प्रकार (ते) = आपके (सवाय) = ऐश्वर्य के लिए (तस्थुः) = स्थित होते हैं । ये प्रभुभक्त संयत जीवनवाले होते हुए आपकी ओर आते हैं और आपके ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु की उपासनावाले गृह प्राप्त हों ऐसे घरों में ही हमारा जन्म हो। वहाँ प्रभु की ओर चलते हुए जीवनवाले बनकर हम प्रभु के ऐश्वर्य को प्राप्त करें ।

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    विषय

    सब महान् शक्तियों, पञ्च भूतों के भी सामर्थ्य उसी उत्पादक के हैं।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! हे राजन् ! (बृहद्भयः) बड़े २ (पर्वतेभ्यः) मेघों को जिस प्रकार सूर्य (पस्त्यावतः इन्द्रज्येष्ठान् क्षयान् सुवति) जल धाराओं से युक्त विद्युद्, वायु आदि बड़े २ शक्तिमान तत्वों वाले अन्तरिक्षादि प्रदेश प्रदान करता है उसी प्रकार तू भी (पर्वतेभ्यः) प्रजा के पालनकारी सामर्थ्यों से युक्त (बृहद्भयः) बड़े, बड़े (एभ्यः) इन पुरुषों को (इन्द्रज्येष्ठान्) राजा वा सेनापति आदि सर्वश्रेष्ठ पदों से युक्त नाना (पस्त्यावतः) निवास गृहों से युक्त (क्षयान्) स्थान उत्तम पढ़ (सुवाति) प्रदान करता है । हे (सवितः) सूर्यवत् तेजस्विन्! राजन् ! वे (पतयन्तः) प्रजा के पालक, सेनापाल, अश्वपाल, पशुपाल, वनपाल आदि नाना अध्यक्ष पदों पर कार्य करते हुए (यथायथा) जैसे २ भी (वि ये मिरे) विशेष प्रकार से प्रजा का नियन्त्रण वा व्यवस्थापन करते हैं (एव- एव) उसी २ प्रकार (ते) वे सब (ते) तेरे ही (सवाय) शासन और ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (तस्थुः) विराजें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ सविता देवता॥ छन्दः- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २ निचृत्-त्रिष्टुप्। ३, ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। षडृर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सवितः) हे उत्पादक प्रेरक परमात्मन् ! तू (एम्य: बृहद्भ्यः पर्वतेभ्यः) इन महान् - मेघों से मेघों को बरसा कर "पर्वतो मेघनाम" (निघं० १।१०) (इन्द्रज्येष्ठान्) ऐश्वर्य प्रधान तथा (पस्त्यावतः) सन्तान वाले "विशो वै पस्त्याः" (शत० ५।३।५।१९) (क्षयान्) निवास करने वाले गृहस्थजनों को (सुवसि) बना देता है (यथा यथा) जैसे जैसे ज्यौं ज्यौं (पतयन्तः) ऐश्वर्य के स्वामी अपने को कहते हुए कि हम ऐश्वर्य के पति होगए 'तत्करोति तदाचष्टे - इति णिच (नियेमिरे) अपने गृहाश्रम विशेष नियमन करते हैं एव-एव ऐसे ऐसे ही (ते सवाय तस्थुः) तेरे शासन में अपने को स्थित करते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    इन्द्र 'ऐश्वर्यं प्रधानं येषु तान् क्षियन्ति निवसन्ति येते ' अच् कर्त्तरि "उच्छादीनां च" (अष्टा० ६।१।१५४) आद्युदातः ।

    विशेष

    ऋषिः- वामदेवः (वननीय-श्रेष्ठ विद्वान्) देवता- सविता (उत्पादक प्ररेक परमात्मा तथा सूर्य)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे भगवान ! तू सर्व जीवांच्या निवासासाठी भूमी इत्यादी निर्माण केलेली आहेस, त्यासाठी तुला धन्यवाद देतो. आम्ही तुझ्या या ऐश्वर्यात निवास करतो. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Savita, O lord creator, you create the stars and forces great as the sun and cosmic energy, greater than the mighty mountains and the thunderous clouds, and you create the regions and orbits for these wherein they abide like home dwellers. And as these fly around and observe the cosmic law, so they abide for your honour and grandeur doing homage to your glory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The varied activities of the enlightened persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, Creator of the world ! You make from clouds etc. these dwelling places, where are many houses to live in and where electricity or the sun are the most powerful. Behaving so, the lords or owners give us benefits more and more. They stand to glorify your great wealth or prosperity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O God + You have made the earth and others for the habitation of all souls. So we thank, express our gratitude and live under Your Great Prosperity.

    Foot Notes

    (इन्द्रज्येष्ठान् ) इन्द्रो विद्युत्सूर्य्यों वा ज्येष्ठो येषां तान् । (इन्द्रः) यत् अशनिरिन्द्रस्तेन (कौषीतकी ब्राह्मणे 6, 9 ) स य: स इन्द्र एष एव स य एष (सूर्य:) तपति (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे । 1, 28, 211 1, 3, 2, 5 = Those among whom the sun and the air are important. (वियेमिरे) विशेषेण नियच्छन्ति । = Particularly give or control.

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