ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - दितो मृतवाहा आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
द्वि॒ताय॑ मृ॒क्तवा॑हसे॒ स्वस्य॒ दक्ष॑स्य मं॒हना॑। इन्दुं॒ स ध॑त्त आनु॒षक्स्तो॒ता चि॑त्ते अमर्त्य ॥२॥
स्वर सहित पद पाठद्वि॒ताय॑ । मृ॒क्तऽवा॑हसे । स्वस्य॑ । दक्ष॑स्य । मं॒हना॑ । इन्दु॒म् । सः । ध॒त्ते॒ । आ॒नु॒षक् । स्तो॒ता । चि॒त् ते॒ । अ॒म॒र्त्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विताय मृक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहना। इन्दुं स धत्त आनुषक्स्तोता चित्ते अमर्त्य ॥२॥
स्वर रहित पद पाठद्विताय। मृक्तऽवाहसे। स्वस्य। दक्षस्य। मंहना। इन्दुम्। सः। धत्ते। आनुषक्। स्तोता। चित्। ते। अमर्त्य ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरतिथिविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अमर्त्य ! यः स्तोतानुषगिन्दुं चित्ते धत्ते स द्विताय मृक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहना सह वर्त्तमानायाऽतिथये सुखं प्रयच्छेत् ॥२॥
पदार्थः
(द्विताय) द्वाभ्यां जन्मभ्यां विद्यां प्राप्ताय (मृक्तवाहसे) शुद्धविज्ञानप्रापकाय (स्वस्य) (दक्षस्य) (मंहना) महत्त्वेन (इन्दुम्) ऐश्वर्यम् (सः) (धत्ते) (आनुषक्) आनुकूल्ये (स्तोता) सत्यविद्याप्रशंसकः (चित्) अपि (ते) तुभ्यम् (अमर्त्य) आत्मस्वरूपेण नित्य ॥२॥
भावार्थः
ये मनुष्या आप्तानतिथीन् सत्कुर्वन्ति ते सत्यं विज्ञानं प्राप्य सर्वदानन्दन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अतिथिविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अमर्त्य) अपने स्वरूप से नित्य ! जो (स्तोता) सत्य विद्या की प्रशंसा करनेवाला (आनुषक्) अनुकूलता से (इन्दुम्) ऐश्वर्य्य को (चित्) ही (ते) तेरे लिये (धत्ते) धारण करता है (सः) वह (द्विताय) दो जन्मों से विद्या को प्राप्त (मृक्तवाहसे) शुद्ध विज्ञान को प्राप्त करानेवाले (स्वस्य) और अपने (दक्षस्य) बल के (मंहना) बड़प्पन के साथ वर्त्तमान अतिथि के लिये सुख देवे ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य यथार्थवक्ता अतिथियों का सत्कार करते हैं, वे सत्य विज्ञान को प्राप्त हो कर सर्वदा आनन्दित होते हैं ॥२॥
विषय
प्रातः स्मरणीय प्रभु की उपासना । उत्तम विद्वान् अधिनायक वृद्ध का आदर सत्कार ।
भावार्थ
भा०—हे (अमर्त्य ) असाधारण पुरुष ! हे दीर्घजीविन् ! विद्वन् ! जो ( ते ) तेरे अधीन (आनुषक् ) तेरे से निरन्तर सम्बद्ध शिष्य (स्तोता-चित् ) विद्या का अभ्यास करता है, (सः इन्दुं धत्ते) वह तेरे प्रवाहित ज्ञान रस को ओषधि रस के तुल्य ही धारण करता है, ( स्वस्य दक्षस्य मंहना ) अपने दाहक बल के महान् सामर्थ्य से जिस प्रकार अग्नि (इन्दुं ) प्रकाश को चाहता है उसी प्रकार ( द्विताय मृक्त-वाहसे ) दो जनों को प्राप्त, उपनीत, शुद्ध विद्या के ग्रहण करने वाले शिष्य के उपकारार्थ (स्वस्य दक्षस्य मंहना ) अपने अज्ञानदाहक ज्ञान के महान् सामर्थ्य से ( सः ) वह आचार्य भी ( इन्दुं धत्ते ) अपने ज्ञान को धारण करावे । (२) इसी प्रकार जीव शुद्ध ज्ञान का धारक आचार्य और प्रभु की शरण में प्राप्त वा ज्ञान-कर्म में निष्ठ जीव 'मृक्तवाह' और 'द्वित' है, वह निरन्तर स्तुति करे । प्रभु, ऐश्वर्यमय परमेश्वर जीव का रक्षा करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्वितो मृक्तवाहा आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः — १, ४ विराडनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ५ भुरिग-बृहती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'द्वित वृक्तवाहस्' को शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (द्विताय) = ज्ञान व शक्ति का विस्तार करनेवाले अथवा काम-क्रोध को वश में करनेवाले [द्वौ तरति, तौ हि अस्यपरिवन्धिनौ] किनके लिये, जो कि (मृक्तवाहसे) = इन्द्रियाश्वों को शुद्ध करनेवाला हुआ है, उसके लिये हे प्रभो! आप (स्वस्य दक्षस्य) = अपने बल के (मंहना) = देने के लिये होइये [दानाय भव सा०] । 'द्वित मृक्तवाहस्' को आप अपनी शक्ति दीजिये। यह 'द्वित मृक्तवाहस्' प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न बनता है। [२] हे (अमर्त्य) = अमरणधर्मा प्रभो ! (ते स स्तोता) = आपका वह स्तोता (चित्) = निश्चय से (आनुषक्) = निरन्तर (इन्दुम्) = शक्ति को देनेवाले सोम को (धत्ते) = धारण करता है। प्रभु-स्तवन से वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और इस प्रकार सोम के रक्षण का संभव होता है। यह सुरक्षित सोम ही वस्तुतः शक्ति सम्पन्न बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ-काम-क्रोध को तैरनेवाले शुद्धेन्द्रिय पुरुष को प्रभु की शक्ति प्राप्त होती है। यह प्रभु का स्तोता सोम-रक्षण के द्वारा शक्तिशाली बनता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे आप्त विद्वान अतिथींचा सत्कार करतात ती माणसे सत्य विज्ञान जाणून सदैव आनंदी राहतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, immortal spirit and power, by virtue of the grandeur of your own potential bring light and sweetness, power and prosperity for dvita, dedicated celebrant twice born, educated and cultured, who loves free knowledge and bears the knowledge and power for your service only.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of venerable guests is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! you are immortal by the nature of your soul, admirer of truth and knowledge. You have in your mind the idea of acquiring wealth, should delight a guest who has received education in both births i.e. from the parent and Acharya (preceptor). He confers pure knowledge and ever remains with (is confident of) the greatness of his own power.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who honor absolutely truthful enlightened persons, ever enjoy bliss, and acquire true knowledge.
Foot Notes
(द्विताय ) द्वाभ्यां जन्मभ्यां विद्यां प्राप्ताय । = For one who has received education in both births i.e. from the parent and Acharya (or preceptor) (इन्दुम् ) ऐश्वर्यम् । इदि परमेश्वर्ये (भ्वा.)। = Wealth, prosperity. (अमर्त्य) आत्मास्वरुपेण नित्य। = Immortal or eternal by the nature of his soul.
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