ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णस्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स अश्वमेधश्च भारतोऽविर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो म॒ इति॑ प्र॒वोच॒त्यश्व॑मेधाय सू॒रये॑। दद॑दृ॒चा स॒निं य॒ते दद॑न्मे॒धामृ॑ताय॒ते ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयः । मे॒ । इति॑ । प्र॒ऽवोच॑ति । अश्व॑ऽमेधाय । सू॒रये॑ । दद॑त् । ऋ॒चा । स॒निम् । य॒ते । दद॑त् । मे॒धाम् । ऋ॒त॒ऽय॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये। दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयः। मे। इति। प्रऽवोचति। अश्वऽमेधाय। सूरये। ददत्। ऋचा। सनिम्। यते। ददत्। मेधाम्। ऋतऽयते ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपदेशविषयमाह ॥
अन्वयः
योऽश्वमेधाय सूरये म ऋचा सनिं दददृतायते यते मे मेधां ददत् तस्य सत्कारं त्वं कुर्विति मां प्रति यः प्रवोचति तस्योपकारमहं मन्ये ॥४॥
पदार्थः
(यः) (मे) मह्यम् (इति) अनेन प्रकारेण (प्रवोचति) उपदिशति (अश्वमेधाय) आशुपवित्राय (सूरये) विदुषे (ददत्) दद्यात् (ऋचा) ऋग्वेदादिना (सनिम्) सेवनीयां सत्याऽसत्ययोर्विभाजिकां वाणीम् (यते) यत्नशीलाय (ददत्) दद्यात् (मेधाम्) प्रज्ञाम् (ऋतायते) ऋतं कामयमानाय ॥४॥
भावार्थः
उपदेशका यदाऽन्यान् प्रत्युपदिशेयुस्तदैव वेदशास्त्रेषूक्तमाप्तैराचरितमिदं वयं युष्मभ्यमुपदिशामेति प्रत्युपदेशं ब्रूयुः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उपदेशविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (अश्वमेधाय) शीघ्र पवित्र (सूरये) विद्वान् (मे) मेरे लिये (ऋचा) ऋग्वेदादि से (सनिम्) सेवन करने योग्य तथा सत्य और असत्य की विभाग करनेवाली वाणी को (ददत्) देवे और (ऋतायते) सत्य की कामना करते हुए (यते) यत्न करनेवाले मेरे लिये (मेधाम्) बुद्धि को (ददत्) देवे, उसका सत्कार आप करो (इति) इस प्रकार से मेरे प्रति जो (प्रवोचति) उपदेश देता है, उसका उपकार मैं मानता हूँ ॥४॥
भावार्थ
उपदेशक जन जब अन्य जनों के प्रति उपदेश देवें, तब इस प्रकार वेद और शास्त्रों में कहे और यथार्थवक्ताओं से आचरण किये गये इस विषय का हम आप लोगों के लिये उपदेश देवें, इस प्रकार प्रत्युपदेश कहें ॥४॥
विषय
शिष्य गुरु के कर्त्तव्य । अश्वमेध की व्याख्या ।
भावार्थ
भा०—हे विद्वन् ! आचार्य ! ( यः ) जो ( अश्वमेधाय ) अश्व के समान बल युक्त जीवन तथा विद्यामार्ग पर चलने की दृढ़ बुद्धि से युक्त एवं पवित्र शरीर अथवा यज्ञ वा युद्ध के लिये सन्नद्ध अश्व के समान सदा सज्ज और ( सूरये ) विद्वान् पुरुष के लिये ( मे ) यह मेरा है ( इति ) इस प्रकार से ( प्रवोचति ) कहता है वह तू ( यते ) यत्नवान् शिष्य को (ऋचा ) ऋग्वेद के मन्त्रगण से ( सनिं ददत् ) विभाग करने और - सेवन करने योग्य उत्तम ज्ञान प्रदान करे । वह आप ( ऋतायते ) सत्य ज्ञान को चाहने वाले मुझे ( मेधाम् ददत् ) उत्तम बुद्धि प्रदान करे वह भी शिष्य को ( मे इति प्र-वोचति ) अपना कर ही ज्ञान का प्रवचन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
व्यरुणस्त्रैवृष्ण्स्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स्य अश्वमेधश्च भारतोऽत्रिवी ऋषयः ॥ १-५ अग्निः । ६ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:- १, ३ निचृत्त्रिष्टुप । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप । ५, ६ भुरिगुष्णिक् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
सनिं- मेधाम् [ददत्]
पदार्थ
१. (यः) = जो (मे) = मेरे लिए (इति) = इस प्रकार ज्ञान की वाणियों का सृष्टि के प्रारम्भ में (प्रवोचति) = प्रकर्षेण उपदेश करते हैं वे प्रभु (अश्वमेधाय) = इन्द्रियाश्वों का अपने साथ मेल करनेवाले – इन्द्रियाश्वों को इधर-उधर न भटकने देनेवाले - (सूरये) = उन ज्ञानवाणियों के अनुसार अपने को प्रेरित करनेवाले [षू प्रेरणे], (ऋचा) = [ऋच् स्तुतौ] स्तुतिपूर्वक गति करनेवाले - प्रभुस्मरण के साथ सब कार्यों को करनेवाले व्यक्ति के लिए (सनिं ददत्) = सम्भजनीय [सेवनीय] धन को देते हैं। २. ये प्रभु ही (ऋतायते) = ऋतपूर्वक सब क्रियाओं को करनेवाले के लिए- ठीक समय व ठीक स्थान पर सब कार्यों को करनेवाले के लिए - (मेधां ददत्) = मेधा बुद्धि को देते हैं । वस्तुतः प्रभु की वाणियों का अध्ययन हमारी बुद्धि को परिष्कृत करनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- स्तुतिपूर्वक गति करते हुए हम सम्भजनीय धन को प्राप्त करते हैं और ऋतपूर्वक आचरण करते हुए हम मेधा [बुद्धि] को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
उपदेशक जेव्हा इतरांना उपदेश देतात तेव्हा वेद व शास्त्रात सांगितलेल्या आणि आप्ताकडून आचरणात आणलेल्या विषयाचा आम्ही तुम्हाला उपदेश करतो असा प्रत्युपदेश करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
“Who for me reveals the ancient and eternal Word...”, whoever speaks thus in homage to Agni in the interest of the social order of the world and for advancement of the brave, enlightened people, to him, endeavouring with holy chant, may Agni give wealth, to him, aspiring for truth and rectitude, may the lord grant the light of divine intelligence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Importance of the sermon is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I am grateful to the person who tells me, who is quickly pure and learned man, to be honored who with the teaching of Rigveda and other Vedas gives me speech that can distinguish correctly between truth and untruth. Such a person gives pure intellect to me, who desires to attain truth and I am always trying to secure or learn it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When preachers preach to others they should say, this is what the Vedas enjoin upon us, this is how it has been practiced by absolutely truthful learned persons, and this is what we preach to you for your welfare.
Translator's Notes
मेधु- मेधाहिसनयोः सङ्गमे च । मेधा -शुद्ध बुद्धिः मेध्यः पवित्र इति सुप्रख्यातम् । अश्वः अशूङ् -व्याप्तौ । आशुव्याप्तिः शीघ्रम् । पण भक्तौ (भ्वा० ) ।
Foot Notes
(सनिम्) सेवनीयां सत्याऽसत्ययोर्विभाजिकां वाणीम् । = Speech which is noble as it distinguishes well between truth and untruth, correctly. (अश्वमेधाय ) प्राशुपवित्राय । = For quickly pure.
हिंगलिश (1)
Subject
राष्ट्र में शिक्षा
Word Meaning
(राजा का दायित्व है कि ) जो विद्वद्जन (राष्ट्र की उन्नति के लिए) समाज में ऊर्जा (भौतिक और आत्मबल ) के विस्तार और सत्य असत्य के निर्णय करने मे समाज को सक्षम करने के वेद विद्यानुसार उपदेश करते हैं,उन को सम्माननीय पद दे और उन का सत्कार करे.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal