ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रतिभानुरात्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
प्रति॑ प्र॒याण॒मसु॑रस्य वि॒द्वान्त्सू॒क्तैर्दे॒वं स॑वि॒तारं॑ दुवस्य। उप॑ ब्रुवीत॒ नम॑सा विजा॒नञ्ज्येष्ठं॑ च॒ रत्नं॑ वि॒भज॑न्तमा॒योः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । प्र॒ऽयान॑म् । असु॑रस्य । वि॒द्वान् । सु॒ऽउ॒क्तैः । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । दु॒व॒स्य॒ । उप॑ । ब्रु॒वी॒त॒ । नम॑सा । वि॒ऽजा॒नन् । ज्येष्ठ॑म् । च॒ । रत्न॑म् । वि॒ऽभज॑न्तम् । आ॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति प्रयाणमसुरस्य विद्वान्त्सूक्तैर्देवं सवितारं दुवस्य। उप ब्रुवीत नमसा विजानञ्ज्येष्ठं च रत्नं विभजन्तमायोः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। प्रऽयानम्। असुरस्य। विद्वान्। सुऽउक्तैः। देवम्। सवितारम्। दुवस्य। उप। ब्रुवीत। नमसा। विऽजानन्। ज्येष्ठम्। च। रत्नम्। विऽभजन्तम्। आयोः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मेघस्य कारणं किमस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे जन विद्वांस्त्वं सूक्तैरसुरस्य प्रयाणं देव सवितारं प्रति दुवस्य नमसा ज्येष्ठं रत्नञ्च विजानन्नायोर्विभजन्तमुप ब्रुवीत ॥२॥
पदार्थः
(प्रति) प्रत्यक्षे (प्रयाणाम्) यात्राम् (असुरस्य) मेघस्य (विद्वान्) (सूक्तैः) सुष्ठ्वर्थवाचकैर्वेदविभागैः (देवम्) देदीप्यमानम् (सवितारम्) मेघोत्पादकम् (दुवस्य) सेवस्व (उप) (ब्रुवीत) (नमसा) अन्नाद्येन सत्कारेण (विजानन्) (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्यम् (च) (रत्नम्) धनम् (विभजन्तम्) (आयोः) जीवनस्य ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्याः ! सूर्य्य एव मेघादीनामुत्पादकोऽस्ति तद्विद्यामुपदिशत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
मेघ का कारण क्या है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे जन (विद्वान्) विद्वान् ! आप (सूक्तैः) अच्छे अर्थों को कहनेवाले वेद के विभागों से (असुरस्य) मेघ की (प्रयाणम्) यात्रा का और (देवम्) प्रकाशित होते हुए (सवितारम्) मेघ को उत्पन्न करनेवाले का (प्रति) प्रत्यक्ष में (दुवस्य) सेवन करो और (नमसा) अन्न आदि के दानरूप सत्कार से (ज्येष्ठम्) अत्यन्त प्रशंसा करने योग्य (रत्नम्) धन को (च) भी (विजानन्) विशेष करके जानता हुआ (आयोः) जीवन के (विभजन्तम्) विभाग करते हुए को (उप, ब्रुवीत) कहें ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! सूर्य्य ही मेघ आदिकों का उत्पन्न करनेवाला है, उसकी विद्या का उपदेश दीजिये ॥२॥
विषय
तेजस्वी नायक का आदरणीय पद ।
भावार्थ
भा०-हे विद्वान् पुरुष ! तू ( असुरस्य ) सबको जीवन देने वाले मेघ के ( प्रयाणं प्रति ) आगमन को प्रत्यक्ष रूप से ( विद्वान् ) जानता हुआ (सूक्तैः) उत्तम वचनों से ( सवितारं ) जिस प्रकार उसके उत्पादक (देवं) तेजस्वी सूर्य की महिमा का वर्णन करता है उसी प्रकार (असुरस्य) शत्रु को उखाड़ फेंकने वाले सैन्य बल के ( प्रयाणं प्रति विद्वान् ) प्रयाण को प्रत्यक्ष रूप से जान कर तू उसके ( सवितारं ) प्रेरक (देवं ) वजिगीषु राजा वा सेनापति का (सूक्तैः) उत्तम आदरयुक्त वचनों से ( दुवस्व ) सत्कार कर । ( आयोः ज्येष्ठं रत्नं विभजन्तम् नमसा विजानन् उपब्रुवीत) जिस प्रकार मनुष्य मात्र को सर्वोत्तम सुख या तेज प्रदान करने वाले सूर्य से अन्न आदि पाकर मनुष्य सूर्य के गुण वर्णन करता है उसी प्रकार ( आयोः ज्येष्ठं रत्नं विभजन्तम् ) मनुष्य के न्यायानुकूल उत्तमोत्तम रत्न, धनादि का विभाग करते हुए राजा को भी मनुष्य (विजानन् ) विशेष जानकर उसके प्रति ( नमसा उप ब्रुवीत ) आदरपूर्वक आवेदनादि करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिप्रभ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्तिः ॥
विषय
'सब धनों के विजेता' प्रभु
पदार्थ
[१] (प्रति प्रयाणम्) = जीवन यात्रा की प्रत्येक मंजिल में अथवा प्रत्येक कार्य में [गति में] (असुरस्य विद्वान्) = उस प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभु को जानता हुआ तू (सूक्तैः) = उत्तम कथनों से, गुणकीर्तन से देवम् प्रकाशमय (सवितारम्) = प्रेरक प्रभु की दुवस्य परिचर्या कर । प्रभु स्मरण के साथ ही प्रत्येक कार्य को करनेवाला हो। [२] (विजानन्) = ज्ञानी पुरुष (नमसा) = नमन के साथ (ज्येष्ठम्) = उस सर्वश्रेष्ठ प्रभु के (उपब्रुवीत) = नामों का व स्तोत्रों का उच्चारण करे। उस प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करे जो (आयो:) = गतिशील पुरुष के लिये (रत्नं विभजन्तम्) = रमणीय धन को प्राप्त कराते हैं । हमारे लिये सब धनों का विजय प्रभु ही तो करते हैं, ऐसा स्मरण रहने पर मनुष्य धनाभिमान से बचा रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सब कार्यों को प्रभु स्मरण के साथ करें। इस बात को न भूलें कि हमारे लिये धनों का विजय भी प्रभु ही करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! सूर्यच मेघ इत्यादींना उत्पन्न करतो तेव्हा त्याच्या विद्येचा उपदेश करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sagely scholar, watch the evolution of life and energy, meditate on the self-refulgent Savita, inspirer of life, with Vedic songs of praise and prayer, and with homage and gratitude speak precisely of the supreme, the most precious felicity pervading and participating in the evolution of life, knowing well the gifts of the lord.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the cause of the cloud is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! being highly learned you know the movement of the cloud and serve or utilise the resplendent sun who makes the cloud through the hymns of the Vedas. By offering food and showing other kinds of respect and the most admirable wealth, you tell about the sun who divides the life of man (through day, night, fortnight etc.). This sun is like the enlightened person who teaches to divide the period of life into the four Ashramas or stages of life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know that the sun is the man instrument in the making of the clouds and other things and tell about its science to others.
Foot Notes
(असुरस्य) मेघस्य । असुर इति मेघनाम (N G 1, 10) = Of the cloud. (सवितारम् ) मेघोत्पादकम् । असावादित्यो देवः सविता । (Stph 6, 3, 1, 18 ) असो वे सविता योऽसौ (सूर्य) तपति ( कोषीतकी ब्राह्मणे 7, 6, गोपथ ब्राह्मणे 2, 1, 20) सविता व प्रसविता ( कोषी० 6, 14) षूञ् - अभिषवे इति धातु- पाठे = The generator of the cloud. (दुवस्य) सेवस्य । दुवस्यतिः परिचरणकर्मा ( N. G. 3, 5) चर गतौ भक्षणे चं (भ्वा० ) = Serve or properly utilise, know thoroughly.
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